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शिक्षा

उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में आरक्षण रोस्टर से छेड़छाड़ कर हुई चहेतों की भर्ती

Janjwar Desk
26 Aug 2021 12:28 PM GMT
उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में आरक्षण रोस्टर से छेड़छाड़ कर हुई चहेतों की भर्ती
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नियमों के मुताबिक आरक्षण लागू करने के लिए स्कूल और विभाग के क्रम को ध्यान में रखना जरूरी है। रोस्टर कमेटी ने स्कूल के क्रम में तो आरक्षण लागू किया है लेकिन विभागों में मनमानी की है......

जनज्वार। उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय (यूओयू) में हुई पच्चीस प्रोफेसरों की नियुक्ति एक सोची-समझी साजिश की तरफ़ इशारा करती है। पद विज्ञापित करने से पहले ही आरक्षण रोस्टर में तोड़-मरोड़ करना इसका सबसे अहम हिस्सा है। नए रोस्टर में 30 फीसदी महिला आरक्षण पूरी तरह गायब कर दिया गया और एसटी-एसटी-ओबीसी आरक्षण के लिए तय मानकों के साथ छेड़छाड़ की गई। कुलपति ने इस मामले में ऐतराज जताने वाले विश्वविद्यालय के सीनियर प्रोफेसरों को भी रोस्टर कमेटी से दूर रखा।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) और विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद ने आरक्षण लागू करने के लिए कुछ ठोस नियम बनाए हैं। इससे पहले 2015 के विज्ञापन में उनका पालन किया गया था। लेकिन तब ये पद नहीं भरे जा सके। नए कुलपति ओम प्रकाश सिंह नेगी ने रोस्टर लागू करने में मनमानी करते हुए अपने चहेतों के हिसाब से आरक्षण लागू करवा लिया। रोस्टर कमेटी का अध्यक्ष कुलपति करीबी प्रो. एचपी शुक्ला को बनाया गया था।

नियमों के मुताबिक आरक्षण लागू करने के लिए स्कूल और विभाग के क्रम को ध्यान में रखना जरूरी है। रोस्टर कमेटी ने स्कूल के क्रम में तो आरक्षण लागू किया है लेकिन विभागों में मनमानी की है। मसलन स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज एक स्कूल है। इसमें इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि विभाग हैं। इनका भी एक क्रम विश्वविद्यालय ने तय कर रखा है। लेकिन वर्तमान कुलपति ने इस नियम की खुलेआम अनदेखी की है। ठीक इसी तरह उत्तराखंड की महिलाओं के लिए भी तीस फीसदी हॉरीजॉन्टल आरक्षण लागू करना होता है। लेकिन नए रोस्टर में पूरी तरह महिला आरक्षण गायब कर दिया गया।

इस मामले में कुलपति बहुत ही लचर दलील देते हैं कि पहले से ही महिलाएं विश्वविद्यालय में पढ़ा रही हैं इसलिए महिला आरक्षण लागू नहीं किया गया। गौरतलब है कि महिला प्रोफेसर जनरल कोटे और बिना आरक्षण के नियुक्त की गई हैं। इस तर्क के हिसाब से क्या बाकी आरक्षण से भी खिलवाड़ किया जा सकता है? (2015 और 2019 में निकले विज्ञापनों में इस अंतर को साफ देखा जा सकता है। दोनों विज्ञापनों की कॉपी संग्लग्न है)।

रोस्टर में मनमानी के खिलाफ एक केस पहले से नैनीताल हाईकोर्ट में चल रहा है। (रिट पेटिशन का ड्राफ्ट संग्लग्न है)।

रोस्टर कमेटी के निर्माण से लेकर अंतिम इंटरव्यू तक हर कदम पर घोषित नियमों का मखौल उड़ाया गया। कुलाधिपति यानी राज्यपाल बेबी रानी मौर्य को लिखे एक विस्तृत शिकायती पत्र में इन गड़बड़ियों को पहले ही बता दिया गया था। जिसमें इंटरव्यू से सात महीने पहले ही कुलपति के करीबी नौ लोगों के नाम बाहर आ गये थे। (आरटीआई के माध्यम से मिले शिकायती पत्र की कॉपी संग्लग्न है)। लेकिन आखिरकार उन्हीं लोगों का चयन कर लिया गया जिनके नाम शिकायती पत्र में आ गए थे। आरक्षण रोस्टर से खिलवाड़ कुलपति के इन्हीं चहेतों को ध्यान में रखकर किया गया। रोस्टर में पूरा ध्यान रखा गया कि इससे चहेतों का रास्ता ना बंद हो जाए। एक सीनियर प्रोफेसर ने नाम ना बताने की शर्त पर बताया कि रोस्टर कमेटी ने नियमों को ताक पर रखते हुए कुलपति के निर्देशों का पालन किया गया।

रोस्टर से खिलवाड़ का फायदा भूगर्भ विज्ञान पर चयनित प्रोफेसर पीडी पंत को सीधे मिलता है। पंत विश्वविद्यालय में परीक्षा नियंत्रक थे और अपने नियुक्ति के लिए जी-जान लगाये हुए थे। अगर सही तरीक़े से रोस्टर लागू होता तो उनकी सीट महिला रिजर्व श्रेणी में जानी तय थी। इसी प्रकार सही रोस्टर बनने पर पत्रकारिता विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर की सीट भी आरक्षित खाते में जानी थी। पिछले विज्ञापन में ये सीट उत्तराखंड की महिलाओं के लिए आरक्षित थी। कुलपति ने इस पद को अनारक्षित कर इस पर अपने करीबी जन संपर्क अधिकारी राकेश रयाल का चयन कर लिया। ठीक इसी तरह लॉ में असिस्टेंट प्रोफेसर की सीट महिला के लिए आरक्षित थी उसे आर्थिक रूप से कमजोर तबके लिए आरक्षित कर उस पर दीपांकुर जोशी की नियुक्ति कर दी गई।

पहले से घोषित नामों के अलावा बाकी के सोलह पदों पर भी रोस्टर से खिलवाड़ किया गया। समाज शास्त्र और लॉ में प्रोफेसर के पदों को रिजर्व करवा दिया गया। समाज शास्त्र की रेनु प्रकाश और लॉ के एके नवीन दोनों को ही विषय विशेषज्ञ (स्क्रीनिंग) कमेटी ने अयोग्य करार दे दिया था। कुलपति ने अपने दोनों करीबियों की नियुक्ति इसके बावजूद कर दी। अगर रोस्टर सही तरीके से लागू होता तो ये दोनों ही सीटें जनरल श्रेणी में जानी थीं। ऐसे ही मामले बाकी विषयों में भी हैं। इनमें जुलॉजी में असिस्टेंट प्रोफेसर चयनित पीके सहगल और पत्रकारिता के एसोसिएट प्रोफेसर बने राकेश रयाल का मामला सबसे ज्यादा संगीन है। यूजीसी के मानकों के मुताबिक योग्य ना पाये जाने पर स्क्रीनिंग कमेटी ने दोनों के नाम पर अपनी आपत्ति दर्ज की थी। (ये दोनों मामले विस्तार से चर्चा की मांग करते हैं। इन दोनों व्यक्तियों के सारे दस्तावेज हमारे पास हैं। इनका अध्ययन करने पर आपराधिक साजिश खुलकर सामने आ जाती है)।

विश्वविद्यालय के नियमानुसार स्क्रीनिंग कमेटी ही उम्मीदवारों की योग्यता का निर्धारण करती है। लेकिन कुलपति ने मनमाने तरीक़े से एक स्क्रीनिंग कमेटी की सिफारिशों की अनदेखी करते हुए बिना विशेषज्ञों के एक शिकायत निवारण समिति (ग्रीवांस कमेटी) बनाकर चोर दरवाजे से उनकी नियुक्ति का रास्ता साफ कर दिया। नियमानुसार शिकायत निवारण समिति की कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसी कोई भी सुनवाई स्क्रीनिंग कमेटी ही कर सकती है।

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