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पर्यावरण

Amur falcon : नागालैंड में शिकारी पक्षी अमूर फाल्कन को देखने के बहाने पक्षी संरक्षण और पर्यावरण की चिंता

Janjwar Desk
2 Dec 2021 2:00 PM GMT
Amur falcon : नागालैंड में  शिकारी पक्षी अमूर फाल्कन को देखने के बहाने पक्षी संरक्षण और पर्यावरण की चिंता
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 प्रवासी शिकारी पक्षी अमूर फाल्कन

Amur falcon : एक दशक पहले तक शिकार करने की अपनी पुरानी परंपराओं के चलते स्थानीय लोग इन शिकारी पक्षियों को अपने भोजन के लिए जाल में फंसाते थे। ऐसा वे पेड़ों की चोटियों पर जाल बाँध कर करते थे...

रोहिणी नीलेकणि का विश्लेषण

Amur falcon : नवम्बर का महीना अभी शुरू ही हुआ था कि मुझे एक रोमांच पैदा करने वाली खबर मिली -"उन्होंने अपना तय रास्ता बदल लिया है। वो अब हमारे करीब हैं।" जिनका हमें बहुत लम्बे समय से इंतज़ार था और जिन्होंने अपने आगमन में खासा विलम्ब कर दिया था ऐसे प्रवासी शिकारी पक्षी अमूर फाल्कन (Amur falcon) ने इस वर्ष खुद को अनेक झुण्ड में बाँट लिया था। जैसा कि हमेशा होता था इसमें से कुछ झुण्ड डोयांग घाटी (Jhund Doyang Valley) और जलाशय की ओर उड़ चले लेकिन एक अन्य समूह ने हैकेज़े गांव का दौरा करने का मन बनाया। यह गांव नागालैंड (Nagaland) के मुख्य हवाई अड्डे दीमापुर से बहुत दूर नहीं है।

मैं सोचती हूँ यह मौका मेरे लिए कितना भाग्यशाली रहा। मैं सालों से पंखों वाले शिकारी पक्षियों के पृथ्वी पर सबसे बड़े पलायन को देखने के लिए तीर्थ यात्रा पर निकलने की योजना बना रही थी।

इसके पहले मुझे ऐसी यात्रा पर निकलने में हिचकिचाहट होती थी क्योंकि फाल्कन के पसंदीदा आरामगाह पांगती की लंबी और ऊबड़खाबड़ यात्रा की बात सोच कर भी मुझे घबराहट होती थी। हर साल अक्टूबर महीने के अंत के आस-पास लाखों की संख्या में ये आलिशान छोटे शिकारी पक्षी मंगोलिया और साइबेरिया सरीखे अपने प्रजनन स्थलों से निकलते हैं। पश्चिमी हवाओं से अपनी उड़ान को गति देते हुए ये साथ-साथ दक्षिणी अफ्रीका स्थित शिकारगाहों में पहुंचते हैं और पंटाला ड्रैगन पतिंगों रुपी अपने शिकार को मुंह में दबाये ये अरब सागर पार करते हैं और नागालैंड में पंद्रह दिनों का आकस्मिक पड़ाव डालते हैं।

एक बार जैसे ही मुझे पक्की सूचना मिली कि शिकारी पक्षियों ने एक ऐसी जगह डेरा डाला है जहाँ जाने वाली सड़कें बहुत टूटी-फूटी नहीं हैं तो मैंने जल्दी-जल्दी अपने कुछ मित्रों और हमारे मार्गदर्शक वन्यजीवों पर फिल्म बनाने वाले सन्देश कदुर को साथ में लिया। सन्देश कदुर की टीम ने पहले से उस जगह को देख लिया था। कुछ घंटों बाद ही हम आवाराओं की टीम दीमापुर से हाखेज़ी की ओर बढ़ी चली जा रही थी जहाँ हाल ही में छपे एक बैनर में लिखा था -आमुर शिकारी पक्षियों का गांव।

हमारे प्रकृति प्रेमी एच के श्रीहर्षा ने वादा किया कि नज़ारा देखने में तीन मिनट बचे हैं। और यह देखते हुए हमें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जैसी कि उन्होंने भविष्यवाणी की थी शाम ठीक 4 बज कर 15 मिनट पर आकाश में पहला काला धब्बा दिखाई दिया। तब मैंने सोचा कि कोई भी पूरी तरह उन जैविक तौर-तरीकों को नहीं समझ पता है जिनका इस्तेमाल पक्षी अपना रास्ता तय करने में करते हैं यानि कि दृश्य आधारित चुंबकीय तरंगों को प्राप्त करने के सिद्धांतों को। फिर दूसरा फाल्कन आया और फिर दसवां। मिनटों के भीतर देखते-देखते लाखों अमूर फालकन्स से आच्छादित आकाश में अँधेरा छा गया। ये शिकारी पक्षी छोटे-छोटे घेरों में नीचे की ओर उतर रहे थे ताकि टीक के पेड़ों पर अपना आशियाना बना सकें। इन पक्षियों की हल्की चहचहाट ने मधुर सिम्फ़नी का रूप ले लिया था। इस ध्वनि के माध्यम से संभवतः वे आकाश में परस्पर ना टकराने का इशारा कर रहे थे।

अभिभूत करने वाले इस दृश्य को देख कर शुरुआत में तो हम उह-आह करते रहे लेकिन फिर ध्यान मुद्रा की शांति बना चुपचाप खड़े रहे। अपनी गर्दनों को आगे की ओर निकाले हुए हम पेड़ों की झुरमुट के पीछे खड़े इंतज़ार करते रहे ताकि पक्षियों की शांति भंग न हो सकें क्योंकि ये पक्षी हमारी उपस्थिति से अनजान थे। एक घंटे के भीतर-भीतर सब समाप्त हो गया। जल्दी ही पक्षी आशंका ग्रस्त हो रात की बांहों में छतरीनुमा आशियानों में आराम करने लगे। सुबह होते ही यह प्रक्रिया उल्टी तरह से दोहराई गई।

सुनहरी कलाबाज़ी करती सुबह की किरणों का स्वागत करते हुए अपनी नींद से उठते इन पक्षियों का दीदार करने के अपने पूर्व निश्चित इरादे को पूरा करने की गरज से हम भोर में 3 बजे निकल पड़े। अब हम अपनी दूरबीनों को बेहतर तरीके से लगा कर इस अंतर को जान सकते थे कि कौन पुरुष पक्षी है और कौन धारीदार महिला पक्षी है। इसी तरह अभिभावकों और कॉलर धारी किशोरों में अंतर कर सकते थे। फिर ये पक्षी चौड़े घेरे बना भोजन की तलाश में हरी पहाड़ियों की ओर उड़ चले। अपने दिल पर हाथ रखते हुए हमने उन्हें अलविदा कहा।

निश्चय ही यह न भुलाया जा सकने वाला अनुभव था। हमें यह अवसर उपलब्ध कराने के लिए हमें बहुत लोगों को धन्यवाद कहना था। इनमें सबसे पहला नंबर स्थानीय लोगों का था। लेकिन बानो हरालू, रोकोहेबी क्योंत्सु, रमकी श्रीनिवासन और शशांक दलवी जैसे अनेक संरक्षण समर्थकों को भी हमें शुक्रिया कहना था क्योंकि इन लोगों ने स्थानीय लोगों के साथ मिल कर भारत के पक्षी सरंक्षण इतिहास की सबसे बड़ी सफलता की कहानियां लिखी हैं।

एक दशक पहले तक शिकार करने की अपनी पुरानी परंपराओं के चलते स्थानीय लोग इन शिकारी पक्षियों को अपने भोजन के लिए जाल में फंसाते थे। ऐसा वे पेड़ों की चोटियों पर जाल बाँध कर करते थे। लेकिन बहुत ही कम समय में अब इन्होंने इन पक्षियों को 'राज्य के सम्मानित अतिथि' के रूप में देखना शुरू कर दिया है। उम्मीद बंधती है कि क्षेत्र में बढ़ते प्राकृतिक पर्यटन के अवसरों के चलते समुदाय द्वारा फाल्कन को बचाने की सकारात्मक ऊर्जा बनी रहेगी। समझौताकारी तालमेल की वास्तु-कला का ये एक अच्छा पाठ है कि नागरिकों को खुद को बचाने की खातिर प्रकृति और वन्य जीवों के सरंक्षण का खाका खींचने में सक्रिय भागीदारी करनी होगी।

आगे बहुत काम करना बाकी है। नए समुदायों को इस असुरक्षित प्रवासी पक्षी समूह की ख़िदमतदारी के लिए आगे आना ही होगा क्योंकि अपने आशियानों की ख़राब होती हालत के चलते ये पक्षी अपना रास्ता बदल देते हैं। एक ऐसे प्रकृति समर्थक पर्यटन को बढ़ावा देना होगा जो संरक्षण आधारित हो ना कि निचोड़ने पर। सरकार आधी-अधूरी सडकों पर डामर लगवा कर उन्हें पूरा बनवा सकती है ताकि उत्तर-पूर्व भारत के प्राकृतिक सौंदर्य को देखने निकले पर्यटकों और पक्षी प्रेमियों की यात्रा आरामदायक हो सके।

अद्भुत अमूर फाल्कन नामक शिकारी पक्षियों की दोनों गोलार्द्धों,मैदानी इलाकों, पहाड़ों और समुद्रों को पार करने वाली सम्पूर्ण लम्बी यात्रा का दस्तावेज़ीकरण करने के लिए और अधिक शोध की ज़रूरत है। हमें नहीं पता कि फाल्कन पक्षी कब से भारत में आ रहे हैं क्योंकि इनके संबंध में सांस्कृतिक प्राचीन कला कृति नहीं उपलब्ध है और ना ही स्थानीय भाषा का कोई शब्द इनके लिए इस्तेमाल किया जाता है। यहाँ कुल कितने पक्षी आते हैं इसकी जानकारी हासिल करने में टेक्नोलॉजी मददगार हो सकती है ( हमारे समूह का अनुमान था कि हाखेज़ी में 8 लाख से ले कर 10 लाख तक पक्षी आते हैं,हालाँकि इस संख्या की जांच करने का कोई तरीका हमारे पास है नहीं).

संभवतः शोध यह तय कर सके कि अपने जीवन काल में अमूर फाल्कन औसतन ऐसे कितने भ्रमण करता है ( एक चिन्हित पक्षी पर लगातार नज़र बनाये रखी गई तो यह देखा गया कि वो अपने जन्म स्थान से शीत कालीन स्थल तक जाने और वापिस आने में हर बार लगभग 20,000 किलो मीटर की यात्रा करने वाले 4 चक्कर लगाता है)।

सबसे ज़रूरी तो ये है कि और अधिक लोग रहस्य,सौंदर्य और लचीलेपन से भरी इस कहानी का हिस्सा बनें।

यह कहा जाता है कि हमारी उत्सुकता हमें सीखने की ओर ले जाती है, तब हम समझने लगते हैं, समझने के बाद हम प्यार करने लगते और चाहने लगते हैं।

घर लौटने पर, मेरे अंदर यह उम्मीद फिर जगी कि मनुष्य की यह यात्रा शायद जलवायु सम्बन्धी हताशा से निजात दिला सके।

(रोहिणी नीलेकणि का यह आलेख पूर्व में अंग्रेजी समाचार पत्र 'हिंदुस्तान टाइम्स' में प्रकाशित है।)

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