चमोली ऋषिगंगा आपदा सिर्फ शुरुआत, बड़ी परियोजनाओं पर नहीं लगी लगाम तो आयेगा इससे भी भयानक तबाहियों का सैलाब
वैज्ञानिकों की चेतावनी : बड़ी परियोजनाओं पर नहीं लगी लगाम तो आयेगा इससे भी भयानक तबाहियों का सैलाब
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। देश के समस्याओं से सरकार उदासीन है, और इन समस्याओं को बढाने में पत्रकारों का बहुत बड़ा योगदान है। आपदाएं आती हैं, सरकारें मुवावजा देकर अपना काम पूरा कर लेती हैं और पत्रकारों में कुछ दिनों की सुगबुगाहट होती है और फिर दूसरी आपदा पर खबरें आनी शुरू हो जाती हैं। शायद ही कोई पत्रकार आपदाओं से निपटने की सरकारी नीति पर सवाल करता है, या फिर किसी प्राकृतिक आपदा की फाइनल सरकारी रिपोर्ट की मांग करता है।
7 फरवरी, 2021 को सुबह 10 बजे के आसपास उत्तराखंड के चमोली जिले में ऋषिगंगा नदी में अचानक चट्टानों और पानी का सैलाब आया, दो पनबिजली परियोजनाएं ध्वस्त हो गईं और इनमें काम करने वाले 200 से अधिक मजदूर लापता हो गए, या सुरंगों में फंस गए। मीडिया इसके बाद कुछ दिनों तक दिनरात वहां की खबरें दिखाता रहा, विशेषज्ञों से चर्चा करता रहा, ऋषिगंगा नदी के ऊपरी हिस्से में बनी झील की तस्वीरें दिखाता रहा और राहत और बचाव कार्यों के बारे में बताता रहा।
फरवरी के अंत तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया इसकी खबरें बताते रहे, और फिर सबकुछ अचानक गायब हो गया। किसी को नहीं मालूम की सरकारी स्तर पर इस आपदा की कोई फाइनल रिपोर्ट बनी भी या नहीं और यदि बनी तो उसमें भविष्य में ऐसी आपदाएं रोकने के लिए कोई सुझाव हैं भी या नहीं।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक जर्नल साइंस के नवीनतम अंक में इस आपदा से सम्बंधित एक अध्ययन प्रकाशित किया गया है, जिसमें दुनिया के 50 से अधिक वैज्ञानिक शरीक हैं। इसमें भारत के वैज्ञानिक भी शामिल हैं| इस अध्ययन में पूरी आपदा को सिलसिलेवार तरीके से बताया गया है और इसके लिए हिमालय पर बड़ी विकास परियोजनाओं और तापमान वृद्धि को जिम्मेदार ठहराया गया है। इस अध्ययन के अनुसार ऋषिगंगा का हादसा तो ऐसे हादसों की शुरुआत भर है, भविष्य में इससे भी भयंकर हादसों का अंदेशा है, क्योंकि न ही तापमान वृद्धि रोकने के लिए कुछ किया जा रहा है और न ही हिमालय के ऊपरी हिस्सों में बड़ी परियोजनाओं पर अंकुश लगाया जा रहा है।
इस अध्ययन का आधार उपग्रहों से प्राप्त चित्र, भूकंप के आंकड़े, प्रत्यक्षदर्शियों के वीडियो और गणितीय मॉडल्स हैं। इसके अनुसार 7 फरवरी को लगभग सूर्योदय के समय समुद्रतल से लगभग 5600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हिमालय की रोंती चोटी के पास से ग्लेशियर और चट्टानों का बहुत बड़ा हिस्सा टूटकर लगभग 3.7 किलोमीटर नीचे गिरा, जिससे ऋषिगंगा नदी में चट्टानों और पानी का सैलाब आ गया।
गिराने वाले चट्टानों और ग्लेशियर के हिस्से का आकार लगभग 2.7 करोड़ घनमीटर था और वजन लगभग 6 करोड़ टन था। ऊंचाई से गिरने और बाद में पानी में बहाने के कारण घर्षण के कारण ग्लेशियर का हिस्सा तेजी से पिघला जिससे नागी जा जलस्तर अचानक बढ़ गया। जलस्तर बढ़ने के कारण पानी का बहाव इस कदर बढ़ गया कि उसमें 20 मीटर से अधिक परिधि वाले चट्टानों के टुकड़े भी आसानी से और तेजी से बहने लगे। यही आगे चलकर पनबिजली योजनाओं और इसमें काम कर रहे श्रमिकों को अपने साथ बहा ले गया।
इस अध्ययन के एक लेखक देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ हिमालय इकोलॉजी के निदेशक कलाचंद सैन के अनुसार इतने बड़े नुकसान का मुख्य कारण अत्यधिक ऊंचाई से चट्टान और ग्लेशियर के हिस्से का गिरना, चट्टानों और ग्लेशियर का अनुपात और पनबिजली परियोजनाओं की स्थिति है। एक अन्य लेखक आईआईटी इन्दोर के वैज्ञानिक मोहम्मद फारुख आज़म के अनुसार यह पूरा क्षेत्र सेडीमेंटरी चतानों का है, जो अपेक्षाकृत कमजोर होता है इसलिए भी यह हादसा हुआ।
इस अध्ययन के अनुसार तापमान वृद्धि के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और ग्लेशियर के आकार में अंतर का असर चट्टानों पर पड़ता है और उनमें दरार उभरने लगते हैं। चट्टानों को कमजोर करने में इस क्षेत्र की बड़ी परियोजनाओं का भी योगदान है, इसलिए यह कोई आख़िरी आपदा नहीं है, बल्कि अभी इससे भी बड़ी दुर्घटनाएं होनी बाकी है।
इस दुर्घटना के दो दिन बाद यानि 9 मार्च को पीआईबी की एक प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया था कि इस दुर्घटना का कारण ग्लेशियर का टूट कर गिरना है, जबकि नया अध्ययन चट्टानों के साथ ग्लेशियर के टूटने की बात करता है| इस प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार गृहमंत्री अमित शाह ने संसद को बताया की प्रधानमंत्री सारी सम्बंधित कार्यवाही पर स्वयं नजर रख रहे हैं और विस्तृत हादसे के विस्तृत अध्ययन के लिए स्नो एंड अवलांच स्टडी एस्टब्लिश्मेंट के साथ ही डीआरडीओ के वैज्ञानिकों का दल भी दुर्घटना स्थल पर पहुँच चुका है। जाहिर है वैज्ञानिकों के दल ने जांच कर कोई तो रिपोर्ट दी होगी, या फिर प्रधानमंत्री यदि स्वयं नजर रख रहे थे तो किसी रिपोर्ट की मांग तो की होगी।
यदि कोई रिपोर्ट है, तो फिर वह कहाँ है या यदि रिपोर्ट अभी बनाई जा रही है तो कबतक बनेगी? ऐसे प्रश्न किसी पत्रकार ने कहीं नहीं पूछे, बल्कि इस पूरे मसाले पर कोई प्रश्न कभी नहीं पूछे। पत्रकारों और मीडिया घरानों की ऐसे मसलों पर उदासीनता तो इससे भी पता चलती है कि 11 जून को जब दिनभर मीडिया योगी की दिल्ली यात्रा और कुछ हद तक सचिन पायलट की दिल्ली यात्रा के मायने बता रहा था, तब बहुत सारे विदेशी मीडिया घराने जर्नल साइंस में प्रकाशित इस अध्ययन पर आधारित खबरें फ्रंटपेज पर प्रकाशित कर रहे थे।
सरकारी उदासीनता का आलम यह था कि ऋषिगंगा की दुर्घटना सुबह 10 बजे के लगभग होती है और गृह मंत्रालय के के अधीन नेशनल क्राइसिस मैनेजमेंट समिति की बैठक शाम को 4.30 बजे बुलाई जाती है और इसकी अध्यक्षता भी गृह मंत्री ने नहीं की थी, बल्कि कैबिनेट सेक्रेटरी ने की थी। बहुत खोजने के बाद भी इस समिति से सम्बंधित अंतिम प्रेस विज्ञप्ति घटना के ठीक एक महीने बाद की उपलब्ध होती है, जिसमें बताया गया है कि 132 लोग अभी तक लापता है। जाहिर है, इसमें बाद गृह मंत्रालय ने इस मामले को बंद कर दिया होगा।
वैज्ञानिकों के अनुसार पूरा हिन्दुकुश हिमालय क्षेत्र एक तरफ तो जलवायु परिवर्तन से तो दूसरी तरफ तथाकथित विकास परियोजनाओं से खतरनाक तरीके से प्रभावित है। हिन्दूकुश हिमालय लगभग 3500 किलोमीटर के दायरे में फैला है, और इसके अंतर्गत भारत समेत चीन, अफगानिस्तान, भूटान, पाकिस्तान, नेपाल और मयन्मार का क्षेत्र आता है। इससे गंगा, ब्रह्मपुत्र, मेकोंग, यांग्तज़े और सिन्धु समेत अनेक बड़ी नदियाँ उत्पन्न होती हैं, इसके क्षेत्र में लगभग 25 करोड़ लोग बसते हैं और 1.65 अरब लोग इन नदियों के पानी पर सीधे आश्रित हैं।
अनेक भू-विज्ञानी इस क्षेत्र को दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कहते हैं क्योंकि दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुव के बाद सबसे अधिक बर्फीला क्षेत्र यही है। पर, तापमान वृद्धि के प्रभावों के आकलन की दृष्टि से यह क्षेत्र उपेक्षित रहा है। हिन्दूकुश हिमालय क्षेत्र में 5000 से अधिक ग्लेशियर हैं और इनके पिघलने पर दुनियाभर में सागर तल में 2 मीटर की बृद्धि हो सकती है।
वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड के एक प्रेजेंटेशन के अनुसार पिछले तीन दशकों के दौरान ग्लेशियर के पिघलने की दर तेज हो गयी है, पर पिछले दशक के दौरान यह पहले से अधिक थी। भूटान में ग्लेशियर 30 से 40 मीटर प्रतिवर्ष की दर से सिकुड़ रहे हैं। भारत का दूसरा सबसे बड़ा ग्लेशियर, गंगोत्री जिससे गंगा नदी उत्पन्न होती है, 30 मीटर प्रतिवर्ष की दर से सिकुड़ रहा है। गंगोत्री ग्लेशियर की लम्बाई 28.5 किलोमीटर है।
साउथ एशियाई नेटवर्क ऑन डैम रिवर्स एंड पीपल नामक संस्था के निदेशक हिमांशु ठक्कर के अनुसार हिमालय की नदियाँ विकास परियोजनाओं, नदियों के किनारे मलबा डालने, मलजल, रेत और पत्थर खनन के कारण खतरे में हैं। जलवायु परिवर्तन एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है पर दुखद यह है की अब इसका व्यापक असर दिखने लगा है इसलिए नदियाँ गहरे दबाव में हैं। जलविद्युत् परियोजनाएं नदियों के उद्गम के पास ही तीव्रता वाले भूकंप की आशंका वाले क्षेत्रों में बिना किसी गंभीर अध्ययन के स्थापित किये जा रहे हैं और पर्यावरण स्वीकृति के नाम पर केवल खानापूर्ति की जा रही है। कनाडा के पर्यावरण समूह, प्रोब इंटरनेशनल की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर पैट्रिशिया अदम्स के अनुसार ऐसे क्षेत्रों में बाँध बनाना हमेशा से बहुत खतरनाक रहा है, क्योंकि इससे पहाड़ियां अस्थिर हो जाती हैं और चट्टानों के दरकने का खतरा हमेशा बना रहता है।
लगभग सभी हिमालयी नदियाँ जिन क्षेत्रों से बहती हैं, वहां की संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। यदि ग्लेशियर नष्ट हो जायेंगे तो नदियाँ भी नहीं रहेंगी और सम्भवतः संस्कृति भी बदल जायेगी। इन सबके बीच हादसे होते रहेंगे, मीडिया आंसू बहायेगा और सरकारें मुवावजा देती रहेंगी। यही न्यू इंडिया में विकास की परिभाषा है।