Felling Of Forests : सस्ते दाम पर जंगलों को कटवाकर किनका भला कर रही है केंद्र सरकार ?
Felling Of Forests : सस्ते दाम पर जंगलों को कटवाकर किनका भला कर रही है केंद्र सरकार ?
सौमित्र रॉय का विश्लेषण
Felling Of Forests : देश में पड़ रही भीषण गर्मी और अभूतपूर्व कोयला संकट (Coal Crisis) के बीच पेड़ यानी पर्यावरण (Environment) की याद फिर आने लगी है लेकिन छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य (Hasdeo Aranya) से लेकर एमपी के पन्ना टाइगर रिजर्व (Panna Tiger Reserve) तक में जंगलों की अंधाधुंध कटाई (Indiscriminate Felling Of Forests) जारी है और वह भी बहुत ही सस्ते में। इस साल जनवरी में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की एक विशेषज्ञ कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में सस्ते दाम पर किए जा रहे जंगलों के सफाए पर केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए एनपीवी में चार गुना बढ़ोतरी करने की सिफारिश की थी। लेकिन केंद्र सरकार पर्यावरण मंत्रालय (Ministry Of Environment, Forest And Climate Change) की पिछले साल की सिफारिश को भी लागू नहीं कर रही है, जिसमें एनपीवी को महज डेढ़ गुना दाम बढ़ाने का सुझाव दिया गया था।
एनपीवी (Net Present Value) वह दर है, जिसके तहत प्रति एकड़ जंगल की कीमत तय की जाती है। जब कोई सरकारी या निजी कंपनी किसी परियोजना के लिए जंगल काटती है तो उसे प्रति एकड़ एनपीवी की दर से ही पर्यावरण को हुए नुकसान की भरपाई सरकार को करनी पड़ती है। बीते 13 साल से यानी 2009 से सरकार का एनपीवी नहीं बढ़ा है। यह भी सुप्रीम कोर्ट के 2008 में दिए गए आदेश की अवमानना है, जिसके तहत एनपीवी (NPV) को हर 3 साल में बदलने को कहा गया था। सरकार अभी भी जंगल काटने के लिए प्रति एकड़ 4.38 लाख से 14 लाख रुपए तक वसूल करती है।
सस्ते में जंगल क्यों कटवा रही है सरकार ?
इसके पीछे का पूरा गणित पर्यावरण संरक्षण और विकास (Environmental Protection And Devlopement) में से किसी एक विकल्प के चुनाव भर का ही नहीं है, बल्कि खनन, सड़क, ऊर्जा आदि ढांचागत परियोजनाओं के लिए जंगल की कटाई के लिए सरकार से अनुमति मागने वाली सार्वजनिक और निजी कंपनियों को भारी मुआवजे से बचाना भी है। पर्यावरण मंत्रालय की ही एक विशेषज्ञ समिति ने 2014 में एनपीवी को चार गुना तक बढ़ाने की सिफारिश की थी, लेकिन बीते साल मंत्रालय ने अपनी सिफारिश में समिति के सुझावों को कूड़े में फेंक दिया। फिर पिछले साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट (Wildlife Trust Of India) के पूर्व अध्यक्ष एमके रंजीत सिंह की अध्यक्षता में एक और विशेषज्ञ कमेटी बनाई और उसने जनवरी में रिपोर्ट पेश करते हुए एनपीवी के आंकलन की सरकार की प्रणाली को पुराना और अवैज्ञानिक ठहराया।
हालांकि इससे पहले ही केंद्र सरकार एनपीवी की लागत को 1.53 गुना बढ़ा चुकी थी। यह बढ़ोतरी सभी 6 श्रेणी के वनों और सघन, कम घने और खुले जंगल के लिए अलग-अलग तय की गई थी।
जंगल की कीमत क्यों नहीं बढ़ाना चाहती है सरकार ?
भारतीय वन प्रबंधन संस्थान (Indian Institute Of Forest Management) ने 2014 में एक अध्ययन में एनपीवी को चार गुना बढ़ाने का सुझाव दिया था। पहले तो केंद्र की एनडीए सरकार ने कमेटी के सुझावों को सैद्धांतिक रूप से मान लिया, लेकिन फिर बिजली, इस्पात और कोयला मंत्रालयों समेत और भी कुछ सरकारी विभागों और निजी कंपनियों ने सुझावों का यह कहते हुए विरोध किया कि इससे उनकी परियोजनाओं की लागत 437 प्रतिशत बढ़ जाएंगी।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ
भारतीय वन प्रबंधन संस्थान के अध्ययन में शामिल प्रोफ. मधु वर्मा का कहना है कि फिलहाल जंगल की लागत, यानी एनपीवी का निर्धारण करने के लिए सरकार सिर्फ कार्बन के बाजार मूल्य (कार्बन क्रेडिट) का ही उपयोग कर रही है। लेकिन जंगल की कटाई से पूरा पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है, इसलिए उसकी सामाजिक लागत का वैज्ञानिक पद्धति से आंकलन करना जरूरी है। वन प्रबंधन संस्थान के इस तर्क को सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ने भी तर्कसंगत पाया था और उसके मुताबिक, एनपीवी को 5 गुना बढ़ाया जाना चाहिए। मधु वर्मा यह भी कहती हैं कि पर्यावरण मंत्रालय ने एनपीवी की गणना के लिए महंगाई दर को ही ध्यान में रखा है, जो कि काफी नहीं है।
बेअसर रहा है कैम्पा फंड
सुप्रीम कोर्ट ने क्षतिपूरक वनीकरण (कैम्पा) फंड कानून 2016 में लागू किया था। मकसद था जंगलों को दूसरे कामों में लगाया जा सके और पर्यावरण को हुए नकसान की भरपाई भी हो। इसके लिए डेवलपर को जंगल के नुकसान की भरपाई के लिए कैम्पा फंड के तहत एनपीवी देने की भी बाध्यता रखी गई थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की विशेषज्ञ कमेटी ही अब कह रही है कि डेवलपर मामूली मुआवजा देकर वन भूमि पर कब्जा कर लेते हैं। कैम्पा फंड ने अभी तक शायद ही कोई उजड़ा जंगल आबाद हुआ है।
यही नहीं, भारत के महालेखाकर नियंत्रक ने भी अपनी रिपोर्ट में कैम्पा फंड की कई विसंगतियों को उजागर किया है। सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट में क्षतिपूर्ति वृक्षारोपण की गैर मौजूदगी और गांवों में पेड़ लगाने के लिा सामुदायिक भूमि पर जबरन अधिग्रहण जैसी विसंगतियां शामिल हैं।
साफ है कि निजीकरण के रथ पर सवार केंद्र सरकार विकास के नाम पर निजी कंपनियों को फायदा दिलाने के लिए जंगल को उसकी वास्तविक कीमत नहीं दे रही है। इसका खामियाजा लगभग समूचा भारत भीषण गर्मी, बाढ़ और सूखे के रूप में भुगत रहा है।
(जनता की पत्रकारिता करते हुए जनज्वार लगातार निष्पक्ष और निर्भीक रह सका है तो इसका सारा श्रेय जनज्वार के पाठकों और दर्शकों को ही जाता है। हम उन मुद्दों की पड़ताल करते हैं जिनसे मुख्यधारा का मीडिया अक्सर मुंह चुराता दिखाई देता है। हम उन कहानियों को पाठक के सामने ले कर आते हैं जिन्हें खोजने और प्रस्तुत करने में समय लगाना पड़ता है, संसाधन जुटाने पड़ते हैं और साहस दिखाना पड़ता है क्योंकि तथ्यों से अपने पाठकों और व्यापक समाज को रु-ब-रु कराने के लिए हम कटिबद्ध हैं।
हमारे द्वारा उद्घाटित रिपोर्ट्स और कहानियाँ अक्सर बदलाव का सबब बनती रही है। साथ ही सरकार और सरकारी अधिकारियों को मजबूर करती रही हैं कि वे नागरिकों को उन सभी चीजों और सेवाओं को मुहैया करवाएं जिनकी उन्हें दरकार है। लाजिमी है कि इस तरह की जन-पत्रकारिता को जारी रखने के लिए हमें लगातार आपके मूल्यवान समर्थन और सहयोग की आवश्यकता है।
सहयोग राशि के रूप में आपके द्वारा बढ़ाया गया हर हाथ जनज्वार को अधिक साहस और वित्तीय सामर्थ्य देगा जिसका सीधा परिणाम यह होगा कि आपकी और आपके आस-पास रहने वाले लोगों की ज़िंदगी को प्रभावित करने वाली हर ख़बर और रिपोर्ट को सामने लाने में जनज्वार कभी पीछे नहीं रहेगा, इसलिए आगे आएं और अपना सहयोग दें।)