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पर्यावरण

उत्तराखंड त्रासदी का एक महीना: ग्लेशियल लेक नहीं फटी तो कैसे आई चमोली में आपदा?

Janjwar Desk
7 March 2021 3:30 AM GMT
उत्तराखंड त्रासदी का एक महीना: ग्लेशियल लेक नहीं फटी तो कैसे आई चमोली में आपदा?
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आपदा के एक महीने के बाद घटनास्थल पर टीवी कैमरों और पत्रकारों की हलचल खत्म हो गई है और मलबे में दबे मज़दूरों के शव निकालने का काम लगभग ठंडा पड़ गया है.....

वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी का विश्लेषण

वैज्ञानिकों ने इस संभावना से इनकार किया है कि 7 फरवरी को ऋषिगंगा में आई बाढ़ के पीछे कोई ग्लेशियल झील फटने जैसा कारण था लेकिन पहाड़ों पर बन रही सड़कों और हाइड्रो प्रोजक्ट पर सवाल खड़े किये हैं।

उत्तराखंड के चमोली में आपदा के महीने भर बाद अब हिमालयी क्षेत्र में शोध करने वाली इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) ने कहा है कि चमोली में आई बाढ़ किसी हिमनद झील के फटने (ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड) का परिणाम नहीं थी बल्कि यह आपदा नन्दादेवी क्षेत्र में रोंठी पीक के नीचे विशाल चट्टान के खिसकने से हुई जिससे बहुत सारी बर्फ (आइस और स्नो)और मिट्टी नीचे आई। सैटेलाइट तस्वीरों और आपदा से पहले बर्फबारी के साथ तापमान के बारीख अध्ययन और अन्य कारकों पर शोध करने के बाद ICIMOD का निष्कर्ष है कि उस क्षेत्र में कोई ऐसी ग्लेशियल लेक नहीं थीं जिनसे ऐसी तबाही होती।

बड़ी चट्टान के खिसकने से हुई आपदा

ICIMOD के वैज्ञानिकों का कहना है कि आपदा से पहले इस क्षेत्र में पहाड़ पर स्पष्ट दरार दिखाई दी है। यह दरार करीब 550 मीटर चौड़ी थी और इसने 39 डिग्री ढलान की पहाड़ी पर करीब 150 मीटर गहरा निशान छोड़ा जो अपने साथ चट्टानी मलबा और कुछ आइस लेकर गिरा। जब यह विशालकाय चट्टान और मलबा आया तो इससे बहुत गर्मी पैदा हुई और निचले इलाके में मौजूद बर्फ पिघली जो बाढ़ का कारण बनी। वैज्ञानिकों की गणना को सरल भाषा में समझायें तो यह हीट 27 लाख घन मीटर आइस (शून्य डिग्री पर जमी बर्फ) को पिघलाने के लिये काफी थी।

ICIMOD से पहले वैज्ञानिकों के एक अन्य अंतर्राष्ट्रीय समूह – ग्लेशियर एंड पर्माफ्रॉस्ट हेजार्ड इन माउन्टेन्स (GAPHAZ) ने भी अपना शोध जारी किया था। इसमें भी कहा गया कि घर्षण के कारण उत्पन्न ऊर्जा से पिघली बर्फ और एवलांच में आइस के गलने और मिट्टी में जमा पानी से बाढ़ आई और उसके लिये किसी अन्य जलस्रोत (अस्थायी झील आदि) की ज़रूरत नहीं थी।

यह शोध जहां बाढ़ के पीछे किसी अस्थायी झील का हाथ होने से इनकार करता है वहीं यह कहता है कि आपदा के कारण जमा हुआ मलबा बाद में झील बनने का कारण है और खतरा पैदा कर सकता है।

[एनटीपीसी के तपोवन प्रोजेक्ट में सुरंग से मलबा निकालने का काम जारी है| फोटो – अतुल सती ]

क्यों खिसकी चट्टान

रिपोर्ट बताती है कि आपदा से पहले पश्चिमी गड़बड़ी के कारण इस क्षेत्र में भारी बर्फबारी हुई थी जिससे ऋषिगंगा नदी में बाढ़ और अधिक तेज़ हुई। कश्मीर और उत्तर-पश्चिम भारत में 4 से 6 फरवरी के बीच वातावरण में जो कारक हावी था उसे कन्वेक्टिव इन्स्टेबिलिटी कहा जाता है। इसकी वजह से इस क्षेत्र में बहुत बर्फ गिरी और जब आपदा हुई तो इसने बाढ़ की विनाशकारी ताकत को बढ़ाया।

उधर उत्तराखंड स्थित गढ़वाल सेंट्रल यनिवर्सिटी, भरसार विश्वविद्यालय और बीएचयू के शोधकर्ताओं का मानना है कि आपदा से ठीक पहले इस क्षेत्र में तापमान में असामान्य बढ़ोतरी आपदा के पीछे एक कारण रही।

जलवायु परिवर्तन का हाथ

ICIMOD ने अपने शोध में कहा है कि इस घटना के पीछे क्लाइमेट चेंज को सीधे ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता लेकिन इस क्षेत्र में लगातार बढ़ रहे तापमान और पर्माफ्रॉस्ट के जमने-पिघलने के चक्र (थॉ-फ्रीज़ साइकिल) से जलवायु परिवर्तन एक आंशिक कारक हो सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 1980 से 2018 के बीच चमोली क्षेत्र में सालाना औसत अधिकतम तापमान में 0.032 डिग्री की बढ़ोतरी और सालाना औसत न्यूनतम तापमान में 0.024 डिग्री की बढ़ोतरी हुई है।

वैज्ञानिकों की सलाह

चमोली आपदा के अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों ने हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण की हर दृष्टि से (संपूर्ण) मॉनिटरिंग की सिफारिश की है। वैज्ञानिकों का कहना है कि हिन्दुकुश-हिमालय (HKH) क्षेत्र में हिमनद झील के फटने, भूस्खलन, एवलांच, तेज़ बरसात और बर्फबारी जैसे मौसमी कारकों से लगातार संकट पैदा होते रहते हैं। भले ही इन घटनाओं को सीधे क्लाइमेट चेंज से नहीं जोड़ा जा सकता लेकिन क्लाइमेट चेंज इन ख़तरों का ज़रूर बढ़ा रहा है।

वैज्ञानिकों ने पहाड़ी क्षेत्रों में बदलते लैंड यूज़ पैटर्न, बसावट के स्वरूप और मानवीय दखल पर टिप्पणी की है। रिपोर्ट में कहा गया है सड़क और पनबिजली परियोजनायें हिमालयी क्षेत्र में तेज़ी से बढ़ रही हैं और यह चमोली जैसी घटनाओं के प्रभाव को बढ़ा सकता है। इस रिपोर्ट में तेज़ी से बन रहे हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट को लेकर कई सवाल खड़े किये गये हैं।

ग्राउंड ज़ीरो का हाल

आपदा के एक महीने के बाद घटनास्थल पर टीवी कैमरों और पत्रकारों की हलचल खत्म हो गई है और मलबे में दबे मज़दूरों के शव निकालने का काम लगभग ठंडा पड़ गया है। इस आपदा में 200 से अधिक लोग लापता हुये हैं जिनमें से पुलिस ने अब तक 72 लोगों के शव ढूंढे हैं और 30 मानव अंग मिले हैं। यानी लापता लोगों में करीब 100 अभी नहीं मिले हैं।

रेणी में जिस जगह 13.2 मेगावॉट का हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट बह गया था वहां अब भी मशीनें चल रही हैं। अपनों का इंतज़ार करते थककर कई लोग घरों को लौट चुके हैं लेकिन नदी के दूसरी ओर के गांवों से संपर्क जोड़ने के लिये ऋषिगंगा पर एक अस्थायी पुल खड़ा कर दिया गया है। उधर तपोवन में एनटीपीसी के पावर प्लांट की सुरंग से मलबा हटाने का काम अब भी चल रहा है लेकिन एक के बाद एक हो रही आपदायें क्या नीति निर्माताओं को झकझोरने के लिये काफी हैं?

साभार : कार्बनकॉपी

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