आर्थिक विकास का दावा कर पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर अपने अत्यधिक प्रदूषणकारी उद्योगों को गरीब देशों पर थोप रहे अमीर देश
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महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Technology is often offered as a panacea for solving environmental problems, but it is not – says latest warning on use of new technologies and innovation I the field of environmental protection. हाल में ही यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, यूनिवर्सिटी ऑफ़ केंसास और ऑरेगोन स्टेट यूनिवर्सिटी के कई विभागों के वैज्ञानिकों ने संयुक्त तौर पर पर्यावरण विनाश, विशेष तौर पर जलवायु परिवर्तन के खतरों पर नई चेतावनी जारी की है। इसमें आगाह किया गया है कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जितनी नई प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया जा रहा है, उसका भविष्य में पर्यावरण विनाश में योगदान के लिए विस्तृत आकलन आवश्यक है। इस चेतावनी को जर्नल ऑफ़ क्लीनर प्रोडक्शन ने प्रकाशित किया है।
पूरे मानव इतिहास में मनुष्य प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करता रहा है, और इससे जीवन सुगम होने के साथ ही आर्थिक समृद्धि भी आई है। कृषि, उत्पादन और परिवहन के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी ने औद्योगिक क्रांति को जन्म दिया और मनुष्य का जीवन सुगम होता चला गया। पर, प्रौद्योगिकी का केवल यही प्रभाव नहीं है, इससे पर्यावरण विनाश हो रहा है, जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि हो रही है और धीरे-धीरे पृथ्वी जीवन को धारण करने वाली से जीवन का हरण करने वाली बन रही है।
अब जब समस्याएं शुरू हुईं तो फिर इसे दूर करने के लिए प्रौद्योगिकी का सहारा लिया जाने लगा। स्वच्छ प्रौद्योगिकी और आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस का उपयोग बढ़ने लगा और इन्हें पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने के लिए रामबाण के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। पर, वास्तविकता यह है कि कोई भी प्रौद्योगिकी स्वच्छ नहीं होती – हरेक प्रौद्योगिकी का पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। यह संभव है कि किसी से अधिक प्रभाव पड़ेगा तो किसी से कम – पर, बिना प्रभाव वाली कोई प्रौद्यगिकी नहीं होती। नवीनीकृत ऊर्जा स्त्रोतों और वाहनों में परम्परागत इंटरनल कम्बशन इंजन के बदले इलेक्ट्रिक मोटर का इस्तेमाल बेतहाशा बढ़ता जा रहा है, पर पर्यावरण पर इनके दीर्घकालीन प्रभाव पर कोई अध्ययन नहीं किया जा रहा है। हरेक प्रौद्योगिकी के अपने खतरे हैं, पर इस सम्बन्ध में दीर्घकालीन विस्तृत अध्ययन कर इन खतरों को कम किया जा सकता है।
तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है और इसे ध्यान में रखकर सतत विकास का रास्ता तलाशना पड़ेगा। इन दिनों आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का भी पर्यावरणीय अध्ययनों में भी खूब इस्तेमाल किया जा रहा है और कहा जा रहा है इससे भविष्य की बहुत सारी समस्याएं हल की जा सकती हैं, पर इसी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर बहुर सारे सवाल भी खड़े किये जा रहे हैं। इनके व्यापक उपयोग से पहले इन सवालों के जवाब खोजने होंगे।
इस अध्ययन से तीन प्रमुख मुद्दे स्पष्ट होते हैं:
1. वर्तमान में उपयोग की जाने वाली कई प्रौद्योगिकी से भले ही आर्थिक लाभ मिल रहा हो, पर जलवायु परिवर्तन और जैव-विविधता का विनाश भी तेजी से हो रहा है। ऐसी प्रौद्योगिकी को जितनी जल्दी संभव हो बदल देना चाहिए।
2. नई और भविष्य की प्रौद्योगिकी के व्यापक इस्तेमाल से पहले पर्यावरण पर इसके दीर्घकालीन प्रभाव का विस्तृत अध्ययन किया जान चाहिए।
3. जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के साथ ही जैव-विविधता का विनाश केवल प्रौद्योगिकी के सहारे नहीं रोका जा सकता, बल्कि इसके लिए आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक स्तर पर समाज में व्यापक बदलाव की आवश्यकता है।
एक दूसरे अध्ययन से स्पष्ट होता है कि पर्यावरण को बचाने की नई प्रौद्योगिकी से पर्यावरण-असमानता भी बढ़ती जा रही है। आईआईटी खड़गपुर की वैज्ञानिक श्रेया पॉल के नेतृत्व में किये गए एक अध्ययन के अनुसार अमीर देशों में पर्यावरण सुरक्षा की नई प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल इन देशों में तो पर्यावरण में सुधार करता है, पर गरीब देशों का पर्यावरण पहले से अधिक खराब हो जाता है। इसका कारण वैश्विक उन्मुक्त व्यापार है। अमीर देश पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर अपने यहाँ के अत्यधिक प्रदूषणकारी उद्योगों और गतिविधियों को गरीब देशों में आर्थिक विकास का नाम देकर थोप देते हैं। इससे अमीर देशों का प्रदूषण गरीब देशों में पहुँच जाता है।
वैज्ञानिक अपनी तरफ से लगातार दुनिया को पर्यावरण विनाश के खतरों से आगाह करते रहे हैं। ऐसी पहली चेतावनी 1990 के दशक में यूनियन ऑफ़ कन्सर्नेड साइंटिस्ट्स ने जारी की थी। इसके बाद दुनिया के 15000 से अधिक वैज्ञानिकों ने वर्ष 2017 में फिर से चेतावनी दी। वर्ष 2017 से अबतक वैज्ञानिकों के अलग-अलग समूहों ने पर्यावरण विनाश के खतरों से आगाह करते हुए 42 चेतावनियाँ प्रकाशित की हैं और इस समय लगभग वैज्ञानिक समूहों द्वारा अलग-अलग 65 चेतावनी तैयार की जा रही है। पर, सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि वैज्ञानिकों की तमाम चेतावनी के बाद भी क्या दुनिया के पूंजीपति और तमाम देशों की सत्ता इसे सुन रही है। वैसे भी दुनिया पहले से अधिक अवैज्ञानिक विचारधारा वाली बन रही है और सत्ता में बैठे अधिकतर लोग वैज्ञानिकों से अधिक अंधविश्वास पर भरोसा कर रहे हैं।
सन्दर्भ:
1. Scientist’s Warning on Technology: Tomlinson Bill, Torrance Andrew W, Ripple William J: Journal of Cleaner Production (2024) – https://doi-org/10.1016/j.jclepro-2023.140074
2. A Comparative Study on the Moderation Impact of Renewable Energy and Innovation on Environmental Quality: Pal Shreya, Villanthenko Md. Ashiq, Ansari Md. Arshad: Natural Resources Forum (2024) – https://doi.org/10.1111/1477-8947.12420