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पर्यावरण

आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस और रोबोट्स वाले युग में विलुप्त होती भाषायें, भारत में 197 भाषाओं के साथ पारंपरिक ज्ञान का अथाह भण्डार हो जायेगा नष्ट

Janjwar Desk
20 Jan 2023 10:48 AM GMT
आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस और रोबोट्स वाले युग में विलुप्त होती भाषायें, भारत में 197 भाषाओं के साथ पारंपरिक ज्ञान का अथाह भण्डार हो जायेगा नष्ट
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वर्ष 1961 से अब तक देश में 220 से अधिक भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं, और अगले 50 वर्षों में 150 से अधिक भाषाएँ विलुप्त हो जायेंगी, अध्ययन के अनुसार हमारे देश में 780 भाषाएँ इस्तेमाल की जा रही हैं और इसमें से 600 से अधिक संकटग्रस्त हैं...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

The climate crisis is vanishing the languages all over the world, and with each extinct language traditional knowledge and culture vanishes. दुनिया से औसतन 40 दिनों के अंतराल पर एक भाषा विलुप्त हो जाती है। यह एक खतरनाक तथ्य है, पर दुखद यह है कि जलवायु परिवर्तन इस विलुप्तीकरण को पहले से अधिक तेज कर रहा है। यदि इस दिशा में कुछ नहीं किया गया तो वर्तमान में दुनिया में बोली जाने वाली लगभग 7000 भाषाओं में से आधी से अधिक इस शताब्दी के अंत तक विलुप्त हो चुकी होंगी।

हमारा इतिहास कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के विलुप्तीकरण के बारे में बहुत कुछ बताता है – ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, साउथ अफ्रीका और अर्जेंटीना एन जनजातियों द्वारा बोली जानी वाली कुल भाषाओं में से आधे से अधिक वर्ष 1920 तक विलुप्त हो चुकी थीं। क्वींस यूनिवर्सिटी के स्ट्रेथी लैंग्वेज यूनिट की निदेशक अनास्तासिया रिएह्ल ने विलुप्त होती भाषाओं पर वर्षों से अनुसंधान किया है और हाल में ही उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के लिए इस विषय पर रिपोर्ट तैयार की है, जिसमें कहा गया है कि दुनिया की भाषाओं के लिए, विशेष तौर पर जनजातीय भाषा और इसमें सम्मिलित ज्ञान के लिए, जलवायु परिवर्तन ताबूत की आख़िरी कील की तरह काम कर रहा है।

वैश्वीकरण और आबादी के बड़े पैमाने पर विस्थापन के कारण अधिकतर भाषाएँ वर्तमान में संकट में हैं, क्योंकि विस्थापन के बाद नए जगह पर वह भाषा नहीं बोली जाती है, या फिर विस्थापितों की भाषा को नया समाज तिरस्कार की नज़रों से देखता है। समस्या यह है कि विस्थापन और आबादी के पलायन को जलवायु परिवर्तन बढाता जा रहा है। इस भाषाओं के साथ एक तरीके की क्रूरता ही कहा जाएगा कि अधिकतर भाषाएँ उन क्षेत्रों में बोली जाती हैं, जो क्षेत्र तेजी से आबादी के नहीं रहने लायक बनते जा रहे हैं।

दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में वानुआतु एक देश है जिसका कुल क्षेत्रफल 12189 वर्ग किलोमीटर है, पर यहाँ 110 भाषाएँ बोली जाती हैं, यानि औसतन हरेक 111 वर्ग किलोमीटर पर एक भाषा। भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार भाषा का यह घनत्व दुनिया में सर्वाधिक है। दुखद यह है कि यह एक ऐसा देश है जिसे बढ़ाते सागर तल के कारण डूबने का ख़तरा सबसे अधिक है। द्वीप या सागर तटीय क्षेत्र चक्रवातों की बढ़ती आवृत्ति और तेजी से बढ़ते सागर तल से खतरे में हैं तो दूसरी तरफ मुख्य भूमि पर तापमान वृद्धि और सूखा के कारण कृषि और मत्स्य पालन पर संकट है। ऐसे में इन क्षेत्रों से जनजातियों का पलायन बढ़ता जा रहा है। ऐसे पलायन के बाद आबादी तो दूसरी जगह पहुँच जाती है, पर स्थानीय भाषा वहीं छूट जाती है और फिर विलुप्त हो जाती है।

जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते प्राकृतिक आपदाओं से पूरी दुनिया की आबादी प्रभावित हो रही है और विस्थापन की दर बढ़ती जा रही है। वर्ष 2021 में दुनिया में 2.37 करोड़ आबादी ने आतंरिक विस्थापन किया, जबकि वर्ष 2018 में यह संख्या 1.88 करोड़ ही थी। आंतरिक विस्थापन वह है जो एक देश के भीतर ही एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में किया जाता है। पिछले 10 वर्षों के दौरान दुनिया में होने वाले कुल विस्थापन में से 20 प्रतिशत से अधिक एशिया और प्रशांत क्षेत्र में किये गए हैं। इससे अनेक भाषाएँ विलुप्त हो गईं हैं, या फिर विलुप्तीकरण के कगार पर हैं। समस्या यह है कि भारत, फिलीपींस और इंडोनेशिया में अनेक भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले 100 से भी कम है।

अमेरिका के प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार जनजातीय भाषाओं के विलुप्तिकरण के कारण औषधीय पौधों के गुण और उपयोग से सम्बंधित बहुमूल्य ज्ञान भी धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। इस शोधपत्र के अनुसार भाषाओं के नष्ट होने से केवल वनस्पतियों की पारंपरिक जानकारियाँ ही नष्ट नहीं हो रहीं, बल्कि जंतुओं, जैव-विविधता और पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की परम्परागत जानकारी ही नष्ट होती जा रही है।

इस शोधपत्र के मुख्य लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ़ ज्यूरिख में वनस्पति विज्ञान के प्रोफ़ेसर डॉ रोड्रिगो कैमरा लेरेट हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दुनिया की 7400 भाषाओं में से 30 प्रतिशत से अधिक विलुप्तिकरण के दौर में हैं और इस शताब्दी के अंत तक इनमें से अधिक हमेशा के लिए खो जायेंगीं। डॉ रोड्रिगो के अनुसार भाषा के नष्ट होने से केवल बहुमूल्य ज्ञान ही नहीं बल्कि पूरे समाज की सांस्कृतिक विविधता को आघात पहुंचता है। इस अध्ययन के लिए कुल 12000 ज्ञात औषधीय गुणों वाले वनस्पतियों का चयन किया गया, जिनका प्राकृतिक आवास उत्तरी अमेरिका, उत्तर-पश्चिम अमेजोनिया और न्यू गिनी था। इन औषधीय गुणों वाले वनस्पतियों के प्राकृतिक आवास के आस-पास कुल 230 जनजातीय भाषाएँ बोली जाती हैं।

इस अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों ने देखा कि उत्तरी अमेरिका में औषधीय गुणों वाले वनस्पतियों की 73 प्रतिशत से अधिक जानकारी केवल एक जनजातीय भाषा में कैद है, जबकि अमेजोनिया में 91 प्रतिशत जानकारी केवल एक भाषा में और न्यू गिनी में 84 प्रतिशत जानकारी केवल एक जनजातीय भाषा में उपलब्ध है। जाहिर है इस एक भाषा के विलुप्त होते ही बहुत सारे औषधीय वनस्पतियों का पीढी-दर-पीढी चला आ रहा व्यावहारिक ज्ञान हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा। इस शोधपत्र के अनुसार ऐसे वनस्पतियों का व्यावहारिक ज्ञान जिन जनजातीय भाषाओं में उपलब्ध है, उनमें से अमेजोनिया में शत-प्रतिशत भाषाएँ विलुप्तिकरण की तरफ बढ़ रही हैं, जबकि उत्तरी अमेरिका और न्यू गिनी में क्रमशः 86 प्रतिशत और 31 प्रतिशत भाषाएं विलुप्त हो रही हैं।

डॉ रोड्रिगो कैमरा लेरेट के अनुसार उन्होंने पूरी दुनिया में ऐसा अध्ययन नहीं किया है, पर इतना तय है कि पूरी दुनिया में भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं या खतरे में हैं और इनके साथ ही पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की व्यावहारिक जानकारी समाप्त हो रही है। हम जैव-विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए बहुत सारे अंतर्राष्ट्रीय समझौते कर रहे हैं, पर जनजातीय भाषाओं के विलोप पर खामोश रहते हैं। डॉ रोड्रिगो कैमरा लेरेट के अनुसार दुनिया के सभी देश यदि सही में पारिस्थितिकी तंत्र और जैव-विविधता को बचाना चाहते हैं तो उन्हें इससे जुड़े पारंपरिक ज्ञान की बहुत जरूरत होगी, पर दुखद यह है कि पारंपरिक ज्ञान जनजातीय भाषाओं के साथ ही नष्ट होता जा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र के यूनेस्को के अनुसार जब किसी भाषा को बोलने वालों की संख्या 10000 से कम हो जाती है तब वह भाषा संकटग्रस्त हो जाती है, और विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ने लगती है। इस दौर में अधिकतर जनजातीय भाषाएँ संकटग्रस्त हैं, इसी समस्या पर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2022 से 2032 तक के दशक को जनजातीय भाषा दशक के तौर पर मनाने का ऐलान किया है।

भाषाओं के विलुप्त होने की दर भारत में दुनिया के किसी भी देश से अधिक है। इसका एक कारण सरकार की जनगणना से सम्बंधित नीतियाँ भी हैं। वर्ष 1971 की जनगणना के समय से उन भाषाओं की सूचि नहीं बनाई जाती, जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10000 से कम हो। यही कारण है कि वर्ष 1961 की जनगणना में देश की 1652 भाषाओं का जिक्र है, जबकि वर्ष 1971 के बाद यह संख्या अचानक गिरकर 108 भाषा तक पहुँच गयी। यूनेस्को के अनुसार भारत में 197 भाषाएँ संकटग्रस्त हैं, यह संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। इसके बाद अमेरिका में 191, ब्राज़ील में 190, चीन में 144 और इंडोनेशिया में 143 भाषाएँ संकट ग्रस्त हैं।

जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी स्थित सेंटर ऑफ़ लिंग्विस्टिक्स की आयशा किदवई के अनुसार सबसे अधिक खतरे में जनजातीय भाषाएँ हैं। ये भाषाएँ वनस्पतियों, जन्तुवों और परम्परागत औषधियों से सम्बंधित ज्ञान का अथाह भण्डार हैं। पर समस्या यह है कि इस ज्ञान को लिखा नहीं जाता, बल्कि ये एक पीढी से दूसरी पीढी तक सुनकर ही पहुँचती हैं।

गुजरात के वड़ोदरा स्थित भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर के निदेशक गणेश देवी के अनुसार वर्ष 1961 से अब तक देश में 220 से अधिक भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं, और अगले 50 वर्षों में 150 से अधिक भाषाएँ विलुप्त हो जायेंगी। इनके अध्ययन के अनुसार देश में 780 भाषाएँ इस्तेमाल की जा रही हैं और इसमें से 600 से अधिक संकटग्रस्त हैं। गणेश देवी के अनुसार सिक्किम की माझी, पूर्वी भारत की महाली, अरुणाचल प्रदेश की कारो, गुजरात की सिदि। असम की दिमासा और बिरहोर सबसे अधिक संकट में हैं और ये सभी जनजातीय भाषाएँ हैं। सिक्किम की माझी भाषा को तो केवल चार लोग ही बोलते हैं और वे सभी एक ही परिवार के हैं। संविधान की आठवीं सूचि में शामिल दो प्रमुख जनजातीय भाषा – बोडो और संथाली – को बोलने वालों की संख्या भी लगातार कम हो रही है।

दूसरी तरफ देश में कुछ ऐसी जनजातीय भाषाएँ भी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है, अब इसमें साहित्य भी लिखा जा रहा है और कुछ भाषाओं में तो फ़िल्में भी बन रही हैं। ऐसी भाषाओं में सबसे आगे है – ओडिशा, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में बोली जाने वाली भाषा गोंडवी। महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात में बोली जाने वाली भीली, मिजोरम की मिज़ो, मेघालय की गारो और खासी और त्रिपुरा की कोकबोरोक को बोलने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।

दुनिया में पूंजीवाद के विकास ने पारिस्थितिकीतंत्र, पर्यावरण, संस्कृति और मानवीय संवेदनाओं को विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है और इसके साथ ही भाषाएँ भी नष्ट हो रही हैं। भाषाओं के साथ ही पारंपरिक ज्ञान का अथाह भण्डार भी नष्ट हो रहा है, पर आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस और रोबोट्स वाले युग में क्या हम अपनी भाषा को सुरक्षित रख पायेंगे?

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