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पर्यावरण

जलवायु परिवर्तन से डूबते देश मार्शल आईलैंड्स के राष्ट्रपति की गुहार, पहल करें नहीं तो खत्म हो जाएगा मेरा देश

Janjwar Desk
28 Sep 2020 11:54 AM GMT
जलवायु परिवर्तन से डूबते देश मार्शल आईलैंड्स के राष्ट्रपति की गुहार, पहल करें नहीं तो खत्म हो जाएगा मेरा देश
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मार्शल आईलैंड्स के राष्ट्रपति डेविड काबुआ।

मार्शल आईलैंड्स सहित दुनिया के 43 द्विपीय देशों के जलवायु परिवर्तन के कारण डूबने का खतरा बना हुआ है। ऐसे में मार्शल आईलैंड्स ने संयुक्त राष्ट्र संघ व विश्व बिरादरी से पहल की अपील की है...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के कारण पृथ्वी के दोनों ध्रुवों पर जमी बर्फ की चादर तेजी से पिघल रही है और महासागरों में सारा पानी उड़ेल रही है। महासागरों में पानी की अथाह मात्रा लगातार मिलने के कारण महासागरों के तल की ऊंचाई बढ़ रही है। इसके प्रभाव से बहुत सारे ऐसे देश जो कई द्वीपों का समूह हैं, के पूरी तरह डूबने का खतरा बढ़ता जा रहा है। प्रशांत महासागर में ऐसे अनेक देश स्थित हैं और इन्हीं देशों में मार्शल आईलैंड्स भी शामिल है। यह देश 1200 द्वीपों का एक समूह है, जिसका विस्तार लगभग 1300 किलोमीटर है। अधिकतर द्वीप पर कोई आबादी नहीं है और इनमें से अधिकतर प्रवालद्वीप हैं। यानी द्वीपों के चारों तरफ प्रवाल भित्तियों का डेरा है।

मार्शल आईलैंड्स की अर्थव्यवस्था मछली निर्यात और पर्यटन पर टिकी है, इसके एक द्वीप पर अमेरिका की मिसाइल परीक्षण प्रणाली स्थित है, जिसके बदले अमेरिका यहाँ के लोगों को रोजगार देता है, देश को आर्थिक मदद करता है और देश की सुरक्षा करता है। यहाँ की राजधानी माजुरो है। वर्ष 1979 से यह स्वतंत्र गणराज्य है और यहाँ के प्रमुख राष्ट्रपति हैं। सितम्बर 1991 से मार्शल आईलैंड्स संयुक्त राष्ट्र का सदस्य है।

मार्शल आईलैंड्स के द्वीपों की ऊंचाई सागर तल से अपेक्षाकृत कम है। इसलिए इस देश के डूबने का खतरा सबसे अधिक है। इसके अधिकतर द्वीपों की सागर तल से ऊंचाई 6 मीटर से भी कम है। हाल में ही यहाँ के राष्ट्रपति डेविड काबुआ ने प्रतिष्ठित ब्रिटिश समाचारपत्र द गार्डियन में एक लेख लिखा है, जिसमें विकसित देशों से आग्रह किया है कि वे जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित पेरिस समझौते के अनुरूप जल्दी कदम उठायें जिससे उनका देश प्रशांत महासागर में डूबने से बच सके।

डेविड काबुआ लिखते हैं, 'मेरे देश को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बने अभी तीस वर्ष ही हुए हैं, पर हमारे साथी देशों ने जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए पर्याप्त कदम जल्दी नहीं उठाये तो हमें संयुक्त राष्ट्र से अलग होना पड़ेगा और हमारा देश जलवायु परिवर्तन की भेंट चढने वाला पहला देश बन जाएगा। ऐसे समय जब सभी सदस्य देश न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र की 75वां स्थापना दिवस का जश्न मनाने में व्यस्त हैं, हमें गंभीरता से यह सोचना चाहिए कि कुल 193 सदस्य देशों में से कितने देश इसके 100वें स्थापना दिवस तक जश्न मनाने के लिए बचेंगें? जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में हम दुनिया के चौकीदार हैं। मेरे जैसे देश अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, पर हमें यह भी पता है कि हमारा अस्तित्व तभी बचेगा जब विकसित देश पेरिस समझौते का सख्ती से पालन करने के साथ ही हमें आवश्यक सहायता देंगे'।

डेविड काबुआ आगे लिखते हैं, 'वैश्विक महामारी ने बता दिया है कि पूरी दुनिया एक-दूसरे से जुड़ी है। कोविड 19 के आरंभिक दौर में ही लगभग सभी देशों ने अपनी सीमाओं को बंद कर दिया। पर इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। आधुनिक वैश्विक अर्थव्यवस्था आगे तो आसानी से बढ़ जाती है, पर इसने रुकना नहीं सीखा। इस महामारी के दौर में जब पहली बार वैश्विक अर्थव्यवस्था में विराम आया, तो यह पूरी तरह से चरमरा गई। मछली उद्योग हमारी अर्थव्यवस्था का आधार है, पर कोविड 19 के दौर में इसका बाजार पूरी तरीके से बाधित हो गया और हमारी अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई। हमारे आसपास जो द्वीपीय देश हैं, उनमें से कुछ देशों की अर्थव्यवस्था हमारी तुलना में और खराब दौर में है। पर्यटन उद्योग पूरी तरह से चौपट हो गया, इससे जुड़े लोग आने वाली अनेक पीढियों तक कर्ज में डूबे रहेंगे'।

डेविड काबुआ बताते हैं, 'अर्थव्यवस्था के पतन के बाद जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के सभी संसाधन समाप्त हो गए। अपेक्षाकृत कम ऊंचे प्रवालद्वीपों वाले देश के नाते हमें पता है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से हम अकेले पार नहीं पा सकते। पेरिस समझौते के तहत किये गए सारे वादों को हमारे देश ने प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया है। ऐसी आपदा से केवल हमारा देश ही प्रभावित नहीं है, बल्कि 43 अन्य छोटे द्वीपों वाले देश हैं, जिन पर जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर पड़ेगा। इसीलिए हम सभी देशों ने मिलकर अलायन्स ऑफ़ स्माल आइलैंड स्टेट्स नामक समूह बनाया है। हम सभी देश जानते हैं कि हम कितने भी कदम उठा लें, पर जबतक औद्योगिक देश अपने उत्सर्जन में कटौती नहीं करेंगे, हमारे अस्तित्व पर खतरा बना रहेगा। यदि औद्योगिक देश पेरिस समझौते से संबंधित अपना वादा पूरा भी कर देते हैं और तापमान बढ़ोत्तरी 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रुक जाती है, तब भी जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचने के उपाय जारी रखने पड़ेंगे'।

डेविड काबुआ आगे लिखते हैं, 'वर्तमान में जब तापमान में बढ़ोत्तरी 1 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच चुकी है, तब भी हम इसका भयानक असर भुगत रहे हैं। विशालकाय ज्वार, भयानक सूखा और मच्छरों से पनपने वाले रोगों में बेतहाशा वृद्धि हो चुकी है। इस समय हमारी सरकार पूरी आबादी तक पहुँच कर राष्ट्रीय अनुकूलन योजना पर सख्ती से काम कर रही है। मैं अपनी जनता को धन्यवाद देना चाहता हूँ क्योंकि इस संकट की घड़ी में भी आबादी केवल जिन्दा रहने के लिए प्रयासरत नहीं है, बल्कि वह अच्छा और समानता का जीवन बिताना चाहती है। इसके लिए हम विकसित देशों से आग्रह करते हैं कि वे केवल होने वाले नुकसान और उसकी भरपाई का ही आकलन नहीं करें, बल्कि समाज को बेहतर तरीके से विकसित करने में भी मदद करें'।

डेविड काबुआ स्पष्ट शब्दों में विकसित देशों का आह्वान करते हैं, 'अब वक्त आ गया है जब हमें सहायता का कोरा आश्वासन नहीं बल्कि सहायता चाहिए। पेरिस समझौते के तहत औद्योगिक देशों ने गरीब देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए प्रतिवर्ष 100 अरब डॉलर का कोष स्थापित करने का आश्वासन दिया था, अब इसे मूर्त स्वरूप देने का वक्त आ गया है। हमारा भविष्य इसी पर टिका है। आज के दौर में अंतरराष्ट्रीय समझौतों के परीक्षा की घड़ी है, अनेक देशों के बीच समझौते की इस दौर में बहुत जरूरत है, पर औद्योगिक देश इनसे पीछे हटते जा रहे हैं। इस वर्ष जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज (COP 26) को अगले वर्ष के लिए टाल देना, सहायता रोकने का कोई बहाना नहीं हो सकता'।

मार्शल आईलैंड्स के राष्ट्रपति आगे लिखते हैं, 'यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोविड 19 से रुकी अर्थव्यवस्था जब फिर से पटरी पर लाने का प्रयास किया जा रहा है, तब दुनिया शून्य उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देती, पर दुनिया ने यह अवसर गंवा दिया है। वास्तविकता में यह हो रहा है कि अनेक देश अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने के लिए ऐसे कदम उठा रहे हैं, जिनसे जलवायु परिवर्तन का असर हमारे जैसे देश अधिक भुगतने लगे हैं। कुछ औद्योगिक देश अभी तक जीवाश्म इंधनों पर रियायत दे रहे हैं। कुछ कोयले में भारी निवेश कर रहे हैं और कुछ देश प्रदूषण वाले उद्योगों को बढ़ावा दे रहे हैं। इस दौर में औद्योगिक देशों को यह सोचना चाहिए कि पूरी दुनिया के भविष्य को सुधारने के लिए उन्हें विकास की परिभाषा को बदलने की जरूरत है। एक ऐसी अर्थव्यवस्था विकसित करने की जरूरत है, जिससे दुनिया में सबका भला हो तभी संयुक्त राष्ट्र जैसी सम्मानित संस्था की गरिमा बच सकती है'।

डेविड काबुआ अंत में लिखते हैं, 'संयुक्त राष्ट्र की नजर में सभी देश सामान हैं, छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी देशों के लिए यहाँ एक समान बैठने की व्यवस्था है। हम अपनी तरफ से पूरा प्रयास कर रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र की अगली बैठक तक हम अपना अस्तित्व बचाने में सफल रहें'। पर, सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या औद्योगिक देश भी ऐसे कदम उठायेंगे जिससे हमारा भविष्य सुरक्षित रहे और हम अगली बैठक में उपस्थित रहें?

मार्शल आइलैंड्स के राष्ट्रपति डेविड काबुआ का यह लेख वैसे तो उनके देश के लिए लिखा गया है, पर इससे जलवायु परिवर्तन के भयानक प्रभाव स्पष्ट है। ऐसे प्रभाव जिससे अनेक देशों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। आश्चर्य यह है कि बड़े देश इसके बाद भी अपनी अर्थव्यवस्था में विकास की परिभाषा बदलने को तैयार नहीं नहीं हैं, जबकि उनके तथाकथित विकास से अनेक देश दुनिया के नक़्शे से गायब होने के कगार पर पहुँच चुके हैं।

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