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पर्यावरण

कोविड 19 और पर्यावरण विनाश में बहुत समानता है, क्या एकजुट होकर लड़ सकती है दुनिया?

Janjwar Desk
6 Jun 2021 8:49 AM GMT
कोविड 19 और पर्यावरण विनाश में बहुत समानता है, क्या एकजुट होकर लड़ सकती है दुनिया?
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सरकारी आंकड़ों में ही अब तक कोरोना से 4 लाख 26 हजार से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं

हमारे देश में सरकार की प्राथमिकता में कोविड 19 से मुकाबला तो है ही नहीं, इससे तो निपटने के लिए मीडिया, सरकारी प्रचारतंत्र और सोशल मीडिया पर अफवाह फैलाने वाली पूरी फ़ौज ही काफी है....

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पांडेय का विश्लेषण

जनज्वार। हाल में ही वर्ष 2019 में अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से नवाजे गए अभिजित बनर्जी और एस्तेर डूफ्लो ने एक लेख लिखा है – यदि कोविड 19 से दुनिया मिलकर लड़ सकती है तो जलवायु परिवर्तन से क्यों नहीं। इस लेख में बताया गया है कि कोविड 19 के मामले में जिस तरह दुनिया एक जुट है, वैसे ही यदि जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि को रोकने के लिए भी एकजुट हो जाए तो इस समस्या का समाधान आसानी से और जल्दी निकल सकता है। यह सिद्धांत सतही तौर पर तो बिलकुल सही नजर आता है, पर सबसे बड़ा सवाल यो यह है कि क्या वाकई में कोविड 19 के मामले में दुनिया एकजुट है?

पिछले वर्ष के शुरू से आजतक, कोविड 19 का एक ही पहलू है जिसपर दुनिया एक जुट है, और वह है इसकी उत्पत्ति के लिए चीन को कोसने में और आरोप गढ़ने में। यह काम इस दौर में भी बदस्तूर जारी है, जबकि अब तो भारत, यूनाइटेड किंगडम, मेक्सिको, ब्राज़ील के साथ साथ बहुत सारे देशों में इसके परिवर्तित स्वरूपों की उत्पत्ति महीनों पहले हो चुकी है और ये परिवर्तित स्वरुप दुनियाभर में फ़ैल चुके हैं। अब तो नेपाल में भी एक परिवर्तित स्वरुप की बात की जा रही है।

दूसरा सवाल यह है कि कोविड 19 से निपटने के मामले में अंतर केवल अर्थशास्त्र का नहीं है। ऐसा नहीं है कि टीके का अंतर केवल अमीर और गरीब देशों के बीच का मामला है। इन देशों के बीच भारत जैसे देश भी हैं, जहां सारे संसाधनों के रहते हुए भी सरकारी अकर्मण्यता लाखों लोगों की ह्त्या कर देती है – निश्चित तौर पर भारत का मामला अमीरी और गरीबी से परे है। हमारे देश में सरकार की प्राथमिकता में कोविड 19 से मुकाबला तो है ही नहीं, इससे तो निपटने के लिए मीडिया, सरकारी प्रचारतंत्र और सोशल मीडिया पर अफवाह फैलाने वाली पूरी फ़ौज ही काफी है।

इस देश में जनता मरती रहती है, नदियों में लाशें बहती हैं और प्रधानमंत्री कोविड 19 को हराने के दावे करते हैं, दूसरे मंत्री और बीजेपी के नेता लाशों के ढेर पर बैठकर यह बताते हैं कि दुनिया मर रही है, पर हमारे प्रधानमंत्री की अगुवाई में केवल हमही कोविड 19 को हरा पाए हैं।

प्रधानमंत्री जनवरी से आजतक दुनिया के सबसे बड़े टीकाकरण की दुहाई देते रहे हैं और टीकाकरण केंद्र टीके के अभाव में बंद होते जा रहे हैं। दुनिया बिना टीके वाला टीकाकरण कार्यक्रम पहली बार देख रही है। प्रधानमंत्री जी इस पूरे दौर में जनता को आपदा में अवसर का पाठ पढ़ा रहे थे, पर इस अवसर का फायदा केवल उनकी पार्टी ने ही उठाया है।

हाल में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से बताया कि यह संगठन उत्तर प्रदेश सरकार के साथ बड़े स्तर पर काम कर रहा है और गाँव में भी टेस्टिंग की सुविधा उपलब्ध करा रहा है। यह विज्ञप्ति विश्व स्वास्थ्य संगठन की भूमिका से सम्बंधित थी और जाहिर है कहीं भी उत्तर प्रदेश सरकार या किसी और की कोई तारीफ़ नहीं थी। लेकिन इसके बाद से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर नीति आयोग और केंद्र सरकार प्रचारित करती रही कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उत्तर प्रदेश सरकार की कोविड 19 के प्रंधन में तारीफ़ की है।

यही नहीं उत्तर प्रदेश सरकार ने अगले चुनाव के पहले कोविड 19 से निपटने के बदले धार्मिक ध्रुवीकरण का कारनामा कर रही है। कोविड 19 के दूसरे दौर में गैरकानूनी तरीके से सरकार ने पहले बाराबंकी और फिर मुजफ्फरनगर के खतौली में मस्जिदें ध्वस्त कर दीं। इसके बाद सरकारी महकमा वाराणसी और मथुरा की मस्जिदों के विरुद्ध लोगों को भड़काने में व्यस्त है। यकीन मानिए, कोविड की तीसरी लहर में इन मस्जिदों का ही नंबर आने वाला है| एक निकम्मी और आपराधिक प्रवृत्ति की सरकार चुनाव जीतने के लिए कुछ भी कर सकती है, नरसंहार भी।

जब कोविड 19 की दूसरी लहर के दौरान लाखों लोगों के मरने के बाद असर कुछ कम होने लगा, तब अचानक से वैक्सीन की सुगबुगाहट बढ़ गयी। हाल में ही केंद्र सरकार ने एक ऐसी कंपनी से वैक्सीन के लिए करार किया है, जिसने अभी तक वैक्सीन का नाम भी नहीं रखा है और इसके परीक्षण दूसरे स्टेज से आगे नहीं बढे हैं।

हाल में ही केंद्र सरकार ने तेलंगाना स्थित बायोलॉजिकल ई लिमिटेड को 30 करोड़ वैक्सीन का आर्डर दिया है और जल्दी ही 1500 करोड़ रुपये का एडवांस दिया जाने वाला है। करार के अनुसार अगस्त से दिसम्बर के बीच भारत सरकार तक यह वैक्सीन पहुंचेगी, जिसकी सम्भावन कम ही लगती है क्योंकि तब तक इसके पूरे परीक्षण भी पूरे करना कठिन है।

सरकारी सूत्रों के अनुसार वैक्सीन की किल्लत के चलते जून में वैक्सीन की कुल 12 करोड़ डोज ही उपलब्ध है, यदि यही रफ़्तार रही तो दिसम्बर तक सभी को वैक्सीन लगाने का नारा बस नारा ही बन के रह जाएगा, क्योंकि इसे पूरा करने के लिए जुलाई से दिसम्बर तक हरेक महीने कम से कम 26 करोड़ टीके लगाने पड़ेंगें, यानि औसतन हरेक दिन एक करोड़ टीके। सरकारी लापरवाही का आलम देखते हुए यह असंभव ही लगता है।

कोविड 19 वैश्विक समस्या है और इसके आरम्भ में हरेक विकसित देश पूरी दुनिया की मदद का दावा करते रहे, पर टीके के आते ही विकसित देशों ने टीके का भंडारण करना शुरू किया जिससे यह गरीब देशों की पहुँच से दूर हो गया। अप्रैल के अंत तक अफ्रीकी देशों की महज 2 प्रतिशत आबादी को टीका लग सका था, जबकि अमेरिका की 40 प्रतिशत और यूरोप की 20 प्रतिशत आबादी को यह सुविधा मिल चुकी थी।

जाहिर है, गरीब देशों में टीके की उपलब्धता नहीं है। इन सबके बीच भारत एक ऐसा देश है, जहां टीके की उपलब्धता के चलते नहीं बल्कि सरकारी लापरवाही के कारण केवल 3 प्रतिशत आबादी को ही टीका मिल सका था।

भारत एक बड़ा देश है और आबादी के हिसाब से लगभग चीन के बराबर है, इसलिए यहाँ किसी भी वैश्विक समस्या से निपटने में नाकामयाबी पूरी दुनिया को नाकामयाब कर देती है। कोविड 19 को रोकथाम में भारत सरकार की विफलता ने इसके भारतीय संस्करण को 60 से अधिक देशों में फैला दिया।

इसी तरह दूसरी वैश्विक समस्या - जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के विनाश के सन्दर्भ में भी भारत की विफलता पूरी दुनिया के प्रयासों पर पानी फेर देती है और ऐसा लगातार हो रहा है। इस दौर में किसी वैश्विक समस्या का समाधान न हो पाना केवल अमीरी और गरीबी के कारण नहीं है, बल्कि भारत जैसे देश की अकर्मण्यता के कारण है, जाहिर है कम से कम नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अभिजित बनर्जी इससे वाकिफ होंगें।

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