भारत में एक तो पर्यावरण पर नहीं होती कोई चर्चा, अगर होती भी है तो तमाशे से कम नहीं होती
देशभर में प्रदूषण बिगाड़ रहा मौसम का मिजाज, खुली हवा में सांस लेना हुआ दूभर
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
There is no safe level of air pollution : वर्ष 1952 में लन्दन स्मोग (London Smog) के चर्चित अध्याय के बाद से दुनियाभर में वायु प्रदूषण के कुप्रभावों पर चर्चा शुरू की गयी। इसके बाद से अधिकतर देशों में वायु प्रदूषण पर ध्यान देना शुरू किया और इसके मानक को लागू किया। साल-दर-साल अनेक देशों ने वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में सफलता भी पाई। हमारे देश में वर्ष 1981 से वायु प्रदूषण से सम्बंधित क़ानून हैं, पर हम दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों में शामिल हैं। हमारे देश में वायु प्रदूषण दूसरी अन्य समस्याओं की तरह केवल आंकड़ों की बाजीगरी से ही नियंत्रित किया जाने लगा है। हरेक संसद सत्र में पर्यावरण मंत्रियों द्वारा वायु प्रदूषण के सन्दर्भ में दिए गए बयानों में कहीं कोई तारतम्य नजर नहीं आता।
कनाडा वायु प्रदूषण के सन्दर्भ में दुनिया के सबसे साफ़ देशों में शुमार है, फिर भी वहां वायु प्रदूषण के कारण प्रतिवर्ष 8000 से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु दर्ज की जाती है। कनाडा में 70 लाख निवासियों के आंकड़े जनगणना से लिए गए और इनके रहने के स्थानों को वर्ष 1981 से 2016 के बीच वायु प्रदूषण के आंकड़ों से जोड़ा गया। इस अध्ययन को अमेरिका के हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टिट्यूट (US Health Effect Institute) के लिये किया गया। अध्ययन के प्रमुख वैज्ञानिक, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ब्रिटिश कोलम्बिया के प्रोफ़ेसर माइकल ब्रौएर (Prof Michael Brauar), के अनुसार जिन स्थानों पर प्रदूषण का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों से भी आधा था, वहां भी लोगों का स्वास्थ्य वायु प्रदूषण से प्रभावित हो रहा है।
अमेरिका के हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टिट्यूट ने इसी तरह का अध्ययन अमेरिका की 6 करोड़ आबादी और यूरोप की 3 करोड़ आबादी के बीच भी किया है। हरेक अध्ययन का परिणाम एक ही है, वायु प्रदूषण का कोई भी स्तर मानव स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित नहीं है। प्रोफ़ेसर माइकल ब्रौएर के अनुसार वायु प्रदूषण का कोई भी स्तर स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित नहीं है, और विभिन्न देशों द्वारा लागू किये गए वायु प्रदूषण के सुरक्षित स्तर महज एक छलावा है। वायु प्रदूषण के प्रभावों पर लगातार अनुसंधान किये जा रहे हैं। जुलाई 2022 में यूनाइटेड किंगडम के वैज्ञानिकों द्वारा एक शोधपत्र के अनुसार वायु प्रदूषण से मनुष्य उन्मादी हो जाता है और पागलों जैसा व्यवहार करता है। अमेरिका के वैज्ञानिकों के अनुसार सड़क परिवहन द्वारा उत्पन्न प्रदूषण के कारण दमा के दौरे बढ़ जाते हैं और स्वस्थ्य व्यक्ति भी दमा से ग्रस्त हो सकता है।
अमेरिका के हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टिट्यूट द्वारा किये गए अध्ययन से स्पष्ट है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देश भी स्वास्थ्य के सुरक्षा की गारंटी नहीं हैं, क्योंकि इन दिशानिर्देशों से आधे प्रदूषण स्तर पर भी स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। इस सन्दर्भ में देखें तो हम भारत के लोग किसी दूसरे ग्रह से आये प्रतीत होते हैं, क्योंकि यहाँ वायु प्रदूषण गुणवत्ता मानकों के अनुसार जिस सुरक्षित स्तर की बात की जाती है, वह विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों की तुलना में सात-गुना अधिक है। फिर भी हमारे देश में वर्ष 2014 के बाद से, पेशे से चिकित्सक डॉ हर्षवर्धन समेत हरेक केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री ने सार्वजनिक तौर पर यही बयान दिया है कि वायु प्रदूषण से कोई बीमार नहीं होता, किसी की आयु कम नहीं होती और जाहिर है किसी की मृत्यु नहीं होती।
27 जुलाई को पर्यावरण राज्य मंत्री अश्विनी चौबे ने राज्य सभा को बताया कि वर्ष 2016 की तुलना में वर्ष 2021 तक दिल्ली की हवा में पीएम10 की सांद्रता में 27 प्रतिशत और पीएम2.5 की सांद्रता में 22 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी है। दरअसल यह सरकार के आंकड़ों की बाजीगरी का एक नमूना है। पर्यावरण राज्य मंत्री जी शायद भूल गए कि मार्च 2022 में उन्होंने संसद में बयान दिया था कि नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम के तहत आने वाले शहरों में से दिल्ली समेत 31 शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर वर्ष 2019-2020 की तुलना में 2020-2021 में अधिक हो गया है। पर्यावरण राज्य मंत्री ने संसद को यह भी बताया कि वर्ष 2022 के शुरू के 6 महीनों में कोई ऐसा दिन नहीं था जब दिल्ली का वायु प्रदूषण स्तर सुरक्षित सीमा में रहा हो, यानि एयर क्वालिटी इंडेक्स 50 या इससे कम का आंकड़ा दर्शाता हो।
हमारे देश में पर्यावरण पर कोई चर्चा नहीं की जाती और यदि चर्चा होती भी है तो वह एक तमाशा से कम नहीं होती। अभी 8 वर्षों की उपलब्धियों पर तथाकथित अमृत काल से सम्बंधित खूब विज्ञापन केंद्र सरकार की तरफ से भी और तमाम राज्यों की तरफ से भी प्रकाशित किये जा रहे हैं, पर किसी में भी पर्यावरण के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। मोदी सरकार ने वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और कचरा प्रदूषण से जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि को अलग कर दिया है। वास्तविकता यह है कि भारत दुनिया में अमेरिका और चीन के बाद जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि वायु प्रदूषण के सन्दर्भ में बंगलादेश के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे प्रदूषित देश है। वायु प्रदूषण के ही कारण जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि की समस्या है, जाहिर है वायु प्रदूषण में कमी लाते ही जलवायु परिवर्तन नियंत्रण में भी मदद मिलेगी।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो के एनर्जी पालिसी इंस्टिट्यूट (Energy Policy Institute of University of Chicago) ने एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स (Air Quality Life Index) यानि वायु गुणवत्ता से प्रभावित जीवन इंडेक्स, प्रकाशित किया है। इस इंडेक्स के अनुसार दुनिया में वायु में पीएम2.5 प्रदूषण के कारण वर्ष 2020 में दुनिया में लोगों की औसत आयु में 2.2 वर्ष की कमी आती है, पर भारत समेत दक्षिण एशिया में यह कमी 5 वर्ष है। इस इंडेक्स के अनुसार दिल्ली में पीएम2.5 प्रदूषण के कारण औसत आयु में 10 वर्ष जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार में यह 8 वर्ष है। हमारी सरकार ने इस रिपोर्ट को नकार दिया है, आखिर हमारे देश में अमृत काल है, फिर भला कोई कैसे मर सकता है?
इस रिपोर्ट के अनुसार भले ही दुनियाभर में चर्चा की गयी हो कि वर्ष 2020 में कोविड 19 के कारण दुनिया में वायु प्रदूषण लगभग ख़त्म हो गया था, पर वास्तविकता अलग है। नीला आसमान और साफ़ हवा की बहुत चर्चा की गयी, पर यह सब चन्द दिनों में ही ख़त्म हो गया। वास्तविकता यह है कि वर्ष 2020 में पीएम2.5 प्रदूषण का विश्वव्यापी स्तर वर्ष 2019 के जितना ही था, और दक्षिण एशिया समेत बहुत सारे क्षेत्रों में इसका स्तर वर्ष 2019 की तुलना से अधिक था। विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों के अनुसार हवा में पीएम2.5 की सांद्रता 5 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए, पर वर्ष 2020 में दुनिया में इसकी औसत सांद्रता 27.5 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर थी। भारत, बंगला देश, नाइजीरिया, पाकिस्तान, अमेरिका, कम्बोडिया और थाईलैंड – कुछ ऐसे देश है जिसमें वर्ष 2020 में पीएम2.5 की औसत सांद्रता वर्ष 2019 की तुलना में प्रभावी तौर पर बढी थी। भारत में यह बृद्धि 2.9 प्रतिशत थी। चीन में पीएम2.5 की सांद्रता में पिछले सात वर्षों में 40 प्रतिशत की कमी आई है। चीन में पीएम2.5 की सांद्रता में कमी के कारण लोगों की औसत आयु में 2 वर्ष की बृद्धि हो गयी है।
हमारे देश में सरकारों द्वारा बयानों में दिए जाने वाले आंकड़ों का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं होता, बल्कि पर्यावरण मंत्री जो आंकड़े बताते हैं वे समय, परिस्थितियों और सुनने वाली जनता के बौद्धिक स्तर के आधार पर तत्काल गढ़े जाते हैं इसीलिए हरेक जगह आंकड़े बदल जाते हैं। वायु प्रदूषण के सन्दर्भ में ऐसा ही होता है, गंगा प्रदूषण के सन्दर्भ में ऐसा ही होता है और वनों के क्षेत्र के सन्दर्भ में भी ऐसा ही होता है। जितनी देर पर्यावरण मंत्री संसद में वक्तव्य देते हैं, उसी बीच में कुछ जंगल कट जाते हैं, कुछ लोग पर्यावरण के विनाश और प्रदूषण से मर जाते हैं, कुछ जनजातियाँ अपने आवास से बेदखल कर दी जाती हैं, कुछ प्रदूषण बढ़ जाता है और नदियाँ पहले से भी अधिक प्रदूषित हो जाती हैं – और इन सबके बीच पर्यावरण मंत्री बड़ी बेशर्मी से पर्यावरण सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्धता दुहराते हैं।