पहले दलित अधिकारी का दावा, सरकारी सेवाओं में दलितों का होना बड़ी सजा-हर स्तर पर होता है भेदभाव
file photo
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। हालांकि संघ लोक सेवा आयोग द्वारा संचालित भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के लिए आयोजित परीक्षा में दलितों के लिए 15 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है, फिर भी उच्च प्रशासनिक सेवाओं में दलितों की भागीदारी नगण्य है।
वर्ष 2019 के दौरान संसद में दिए गए जवाब में बताया गया था कि दिल्ली के केंद्रीय मंत्रालयों में सेक्रेटरी स्तर के कुल 89 प्रशासनिक अधिकारी तैनात हैं, जिसमें महज 1 अधिकारी एससी, 3 एसटी थे, अन्य पिछड़े वर्ग का कोई अधिकारी नहीं था। कुल 93 एडिशनल सेक्रेटरी में से 6 एससी और 5 एसटी थे। इसी तरह कुल 275 जॉइंट सेक्रेटरी में से 13 एससी, 9 एसटी और महज 19 अन्य पिछड़ा वर्ग के थे।
भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय बड़े पदों पर दलितों की भागीदारी बढाने के लिए दलित इंडियन चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के रिसर्च विंग से सुझाव मांगे थे। इसमें सबसे अहम् सुझाव दिया गया था – संघ लोक सेवा आयोग के भारतीय प्रशासनिक सेवा की परिक्षा के हरेक स्तर पर उम्मीदवार का नाम और जाति गोपनीय रखी जाए।
हैदराबाद के पीएसएन मूर्ति ने इस विषय पर लम्बे समय से अध्ययन किया है, उनके अनुसार इन परीक्षाओं में लिखित परीक्षा के समय तो नाम और जाति को गोपनीय रखा जाता है, पर फाइनल इंटरव्यू के दौरान इंटरव्यू लेने वालों को नाम पता होता है।
मूर्ति के अनुसार हमारे देश में 90 प्रतिशत नाम ऐसे होते हैं जो जाति स्वयं उजागर करते हैं। भारत का समाज ऐसा नहीं है जो केवल योग्यता और दक्षता के आधार पर नौकरी देता है, पर यहाँ नौकरी का आधार जाति और लिंग भी होता है। जब एक सवर्ण व्यक्ति किसी दलित का साक्षात्कार लेता है तब उसकी भाव-भंगिमा और व्यवहार बदल जाता है। इस सुझाव को अब तक सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने स्वीकार नहीं किया है।
मूर्ति के अनुसार देश में दलित आबादी 20 करोड़ से अधिक है, यानी कुल आबादी का 16 प्रतिशत, पर भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में इनकी संख्या एक प्रतिशत भी नहीं है, जिसकी वजह से सामाजिक समस्याएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। प्रशासनिक सेवा के अधिकारी, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी 'बाबू' कहते हैं, ही समाज के हरेक क्षेत्र में विकास का खाका तैयार करते हैं। ऐसे में जाहिर है कि जिन्हें समाज की समझ ही नहीं है, वे आधे अधूरे विकास की पृष्ठभूमि तैयार कर सकते हैं और देश में यही हो रहा है।
देश के प्रशासनिक सेवा के पहले बैच के अधिकारियों को दिल्ली के मेटकाफ हाउस में संबोधित करते हुए सरदार पटेल ने 21 अप्रैल 1947 को कहा था कि उनसे पहले के अधिकारी ब्रिटेन की सरकार के प्रतिनिधि थे और जनता की आकांक्षाओं और सरोकारों से दूर थे, पर अब समय आ गया है जब सामान्य नागरिक को भी अपना समझने की जरूरत है।
इसके बाद सरदार पटेल ने जवाहरलाल नेहरु को एक पत्र 27 अप्रैल 1948 को लिखा था, इसके अनुसार प्रशासनिक सेवा किसी भी राजनीतिक पार्टी से प्रभावित नहीं होनी चाहिए और प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के चयन से लेकर नियुक्ति तक कभी भी राजनीतिक दखल नहीं होना चाहिए। अफ़सोस यह है कि सरदार पटेल ने जो कहा, उसका ठीक उल्टा हो रहा है।
कांग्रेस नेता उदित राज पहले भारतीय राजस्व सेवा में बड़े अधिकारी थे। उदित राज के अनुसार किसी दलित व्यक्ति का सरकारी सेवाओं में होना एक बड़ी सजा से कम नहीं है, यहाँ हरेक स्तर पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है और सुनिश्चित किया जाता है कि कोई दलित किसी भी हालत में सर्वोच्च पद तक नहीं पहुँच पाए। वर्ष 2015 में प्रशासनिक सेवाओं में टॉप आकर टीना डाबी ने इतिहास रचा था, क्योंकि वे ऐसा कर पाने वाली पहली दलित थीं। उन्होंने भी अनेक मौकों पर प्रशासनिक सेवाओं में भेदभाव पर विस्तार से चर्चा की है।
उत्तर प्रदेश में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रह चुके एसआर दारापुरी के अनुसार प्रशासनिक सेवाओं में दलितों से होने वाले भेदभाव का कहीं अंत नहीं होता। साक्षात्कार तक पहुँचाने वाले दलित वर्ग से आने वाले उम्मीदवार ग्रामीण पृष्ठभूमि से और अपने समाज से ऐसा करने वाले पहले होते हैं, न तो उनके घर में अंग्रेजी बोली जाती है और न ही उनके दोस्त अंग्रेजी वाले होते हैं, इसलिए ऐसे उम्मीदवार अंग्रेजी बोलते समय सहज नहीं रहते।
लगातार भेदभाव की मार झेलते रहने के कारण इनमें सामाजिक तौर पर पैदा होने वाला आत्मविश्वास नहीं होता। दारापुरी के अनुसार दलितों को सरकारी सेवाओं के दौरान हरेक मौके पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है, और इसे नजदीक से लगातार महसूस किया है।
हमारे समाज में जाति से या फिर लैंगिक भेदभाव इस हद तक प्रबल है कि हम अनजाने में भी इस भेदभाव से उबर नहीं पाते, ऐसे में सरकार को दलित इंडियन चैमबर्स ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के रिसर्च विंग का सुझाव मानकर एक नई पहल करने की जरूरत है।