मृत शिशुओं के पैदा होने के मामले में भारत का दुनिया में पहला स्थान, 2020 में 3.4 लाख नवजात दुनिया में आने से पहले ही कह गये अलविदा
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महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Neonatal deaths and stillbirths are global emergency, but is being neglected in low- and middle-income countries. प्रतिष्ठित स्वास्थ्यविज्ञान जर्नल, लांसेट, में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार बहुत सरल से कुछ उपायों को यदि दुनिया के हरेक कोने तक पहुंचाया जाए तो निश्चित तौर पर गरीब और मध्यम आय वाले देशों में सम्मिलित तौर पर कम से कम दस लाख शिशुओं की प्रतिवर्ष असामयिक मौत को रोका जा सकता है। इस काम के लिए दुनिया के 81 गरीब और मध्यम आय वाले देशों में सम्मिलित तौर पर 1.1 अरब डॉलर प्रतिवर्ष निवेश की जरूरत है – इस राशि से अधिक राशि स्वास्थ्य से सम्बंधित दूसरी परियोजनाओं पर खर्च की जाती है, पर उसका इतना व्यापक असर नहीं होता।
इस अध्ययन के अनुसार दुनियाभर में गर्भवती माताओं को विटामिन, मलेरियारोधी टीके और एस्पिरिन जैसी दवाएं उपलब्ध कराने की जरूरत है और साथ ही विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बताये गए गर्भवती माताओं से सम्बंधित 8 मौलिक परीक्षण भी आवश्यक हैं। ये सभी चीजें आसानी से उपलब्ध हैं, सस्ती भी हैं, पर गरीब देशों में इसे हमेशा नजरअंदाज किया जाता है। यदि इनका पालन पूरी दुनिया में किया जाए तब मृत पैदा होने वाले शिशुओं की संख्या में 566000 और नवजात शिशुओं की मृत्यु में 476000 तक कमी लाई जा सकती है। नवजात शिशुओं की मौत जनस्वास्थ्य अभियान के लिए एक बड़ी हार है, पर इसकी चर्चा व्यापक तौर पर नहीं की जाती। पिछले 2 दशकों के दौरान दुनिया ने 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर को कम कर लिया है, पर विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वर्ष 2015 के बाद से नवजात शिशुओं की मृत्युदर लगभग एक जैसी रही है।
वर्ष 1990 से 2020 के बीच नवजात शिशुओं, पैदा होने से लेकर अगले 28 दिनों के बीच, की मृत्युदर, 50 लाख से घटकर 24 लाख रह गयी है, पर इसे आसानी से और कम किया जा सकता है। यह मृत्युदर अफ्रीका और दक्षिण एशिया में सर्वाधिक है। हमारे देश में भले ही प्रधानमंत्री की तस्वीर के साथ समाचारपत्रों में पूरे पृष्ठ के विज्ञापन लगातार प्रकाशित होते हों, पर सच तो यह है कि मृत शिशुओं के पैदा होने के मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है। दुनिया में प्रति एक हजार ऐसे मामलों में से अकेले भारत का योगदान 173 मौतों का रहता है। वर्ष 2020 में दुनिया में 19.7 लाख ऐसे मामले दर्ज किये गए, जिसमें से अकेले भारत में ऐसे 3.4 लाख मामले थे।
हमारे देश में पैदा होने से 7 दिनों के भीतर शिशु मृत्युदर प्रति हजार में 15 है, 6 महीने के भीतर 20 है, एक वर्ष के भीतर 28 और पांच वर्ष से कम उम्र की मृत्युदर 32 है। पांच वर्ष से कम उम्र के शिशुओं की वैश्विक मृत्युदर प्रति हजार में 29 है। भारत में यह मृत्युदर 32 है – बालिकाओं के लिए 33 और बालकों के लिए 31 है। बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में भारत अकेला ऐसा देश है जहां स्वास्थ्य का बजट कुल सकल घरेलु उत्पाद की तुलना में 2 प्रतिशत से भी कम है, जबकि अन्य सभी बड़े अर्थव्यवस्था वाले देशों में यह बजट 10 प्रतिशत या इससे भी अधिक है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वर्ष 2020 में दुनियाभर में 13.5 करोड़ बच्चे पैदा हुए, जिसमें से एक-चठाई से अधिक शिशुओं का वजन सामान्य से कम था, या फिर वे समय से पहले ही पैदा हो गए। यह समस्या हमारी सोच से भी अधिक घातक है क्योंकि ऐसे बच्चे यदि बाख भी जाएँ तब भी इसके खतरे उनके साथ पूरी जिन्दगी चलते हैं। इस समस्या को हम जानते हैं, इसका निदान भी जानते हैं, पर हम कुछ कर नहीं रहे हैं। यही इस मामले का सबसे दुखद पहलू है।