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Ashfaqullah Khan Birth Anniversary: 7वीं कक्षा में ही क्रांति की राह पर निकल पड़े थे अशफाक उल्ला खां, 27 की उम्र में चूमा फांसी का फंदा
Ashfaqullah Khan Birth Anniversary। 'कस ली है कमर अब तो कुछ करके दिखाएंगे, आजाद ही हो लेंगे या सर ही कटा देंगे' जैसी नज्म लिखने वाले क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खां (Ashfaqulla Khan) का आज जन्मदिवस है। आजादी केक्रांतिकारी रत्नों में से एक अशफाक उल्ला खां भी थे। हमारे समाज में आज जिस तेजी से सम्प्रदायिक विचारधारा पनप रही है उसे रामप्रसाद बिस्मिल (Ram Prasad Bismil), अशफाक उल्ला खां की विचारधारा के जरिए रोका सकता है। जहां रामप्रसाद बिस्मिल आर्यसमाजी थे वहीं अशफाक पांच वक्त के नमाजी थे। लेकिन उन्होंने आजादी की लड़ाई में धर्म आड़े नहीं आने दिया। अशफाक उल्ला खां का मानना था कि आप चाहे किसी भी धर्म सम्प्र्दाय को मानने वाले हों, देश के काम में साथ दो ! व्यर्थ आपस में न लड़ो। अशफाक एक क्रांतिकारी आंदोलनकारी होने के साथ-साथ कवि और लेखक भी थे। हम सब बस अशफाक उल्ला खां की काकोरी कांड में हुई फांसी की सजा के बारे में चर्चा करते हैं। लेकिन अशफाक उल्ला खां को उस तरीके से याद नहीं किया जाता है जिसके वो हकदार हैं।
अशफाक उल्ला खां का शुरुआती जीवन
अशफाक उल्ला खां शाहजहांपुर (Shahjahanpur) के शहीदगढ़ के रहने वाले थे। उनका जन्म 22 अक्टूबर सन् 1900 में हुआ था। अगर आज अशफाक उल्ला खां हम सबके के बीच होते तो आज पूरे 121 साल के होते। उनके पिता का नाम मोहम्मद शफीफ उल्ला खां और उनकी माता का नाम मजरुनिस्सा बेगम था। वे पठान परिवार से ताल्लुक रखते थे। उनके परिवार में लगभग सभी लोग अंग्रेजों की सरकार में नौकरी करते थे। पिता पुलिस विभाग में थे। इस माहौल में अशफाक उल्ला खां क्रांतिकारी विचारधारा से जुड़े। जहां एक तरफ परिवार अंग्रेजों का मुलाजिम था वहीं अशफाक साहब ने तो भारत से अंग्रेजी हुकूमत उखाड़ फेंकने की कसम खा रखी थीं।
पढाई से दूर दूर तक कोई नाता नहीं
अशफाक उल्ला खां बचपन से हरफन मौला टाइप के थे। स्कूल और किताबी ज्ञान से कोई दूर-दूर तक लगाव नहीं था। हालांकि सारा परिवार सरकारी नौकरी में था तो घर में माहौल पढ़ाई जैसा था। लेकिन उनकी रूचि तो किसी और चीज में थी। उन्हें पढाई करके कौन सा सरकारी मुलाजिम बनना था। उन्हें तो अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की धुन सवार थी। पढ़ाई- लिखाई की जगह उनकी रूचि तैराकी, घुड़सवारी और निशानेबाजी में अधिक थी। वे पूरे समय यही सब करते रहते थे। इन सबके अलावा उन्हें कविता और शायरी लिखने का खूब शौक था। अक्सर वो कविता लिखने के बाद अपने उपनाम में 'हसरत' लिखा करते थे। जब खाली समय मिलता तो पिस्तौल से निशाना लगाना सीखते थे।
उस वक्त देश में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत चरम पर थी और नौजवान अशफाक इन क्रांतिकारी घटनाओं से बहुत प्रभावित हुए। उस वक्त के मशहूर क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्लिम, जो मैनपुरी षड्यंत्र कांड में शामिल थे, से अशफाक उल्ला खां की मुलाकात हुई। फिर अशफाक क्रांति की राह पर इतने आगे चले गए की फांसी का फंदा तक चूम लिया।
अशफाक की क्रांतिकारी विचारधारा और सफर
अशफाक उल्ला खां लेनिन से काफी ज्यादा प्रभावित थे। उन्होंने जब क्रांति के रास्तों पर चलने का फैसला लिया तो संभवत: 1921-22 के आसपास अपने मित्र बनारसीलाल को अपना पहला राजनीतिक पत्र लिखा था। जिसमें उन्होंने व्लादिमीर लेनिन को एक पत्र लिखने की इच्छा व्यक्त की जो उस वक्त बोल्शेविक क्रांति के दौरान भारतीय क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा बन गया था। बनारसीलाल को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा कि "मुझे आपके अंतिम पत्र से लेनिन के बारे में पता चला। मैं उन्हें भी एक पत्र लिखने की सोच रहा हूँ।"
मैनपुरी षडयंत्र कांड में शामिल होने पर एक सहपाठी की गिरफ्तारी होने पर उन्हें उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के बारे में जानकारी हुई थी। अशफाक की क्रांतिकारी राजनीति में रूचि तब और गहरी हो गई जब उन्होंने आठवीं कक्षा में वाल्टर स्कॉट की कविता 'लव ऑफ कंट्री ' पढ़ी।
क्रांतिकारी एक दिन में नहीं बनते इसके लिए बचपन और जवानी दोनों खपाना पड़ता है। ईसा पूर्व रोमन साम्राज्य की सेना में एक अधिकारी पब्लियस होराटियस कोकल की कहानी जिसने एट्रस्केन से सेना रक्षा की थी, इसने भी अशफाक उल्ला के जीवन में गहरा प्रभाव छोड़ा। अपने लेखन में उन्होंने थॉमस बबिंगटन मैकाले की कविता होराटियस का दो बार उल्लेख किया है-
To every man upon this earth
Death cometh soon or late,
And how can man die better
Than facing fearful odds,
For the ashes of his fathers,
And the temples of his Gods.
उन्होंने मैनपुरी षड्यंत्र कांड के दौरान एक छोटा टेक्स्ट लिखा था कि 'यह कविता मेरे क्रांतिकारी प्यार की नींव बन गई।' उनके शिक्षक ने उन्हें 'पैट्रियटस ऑफ द वर्ल्ड' नाम की एक पुस्तक भेंट की थी, जिसे अशफाक ने पढ़ने के बाद यही निष्कर्ष निकाला कि 'केवल वे ही अमर होते हैं जो अपने देश के लिए मरते हैं। अशफाक उल्ला खां जीवन के अंतिम हिस्से में देश की आजादी के लिए फांसी के तख्त पर हंसते-हंसते झूल गए।
क्रांतिकारी सफर
क्रन्तिकारी आंदोलन में अशफाक की क्रांति का सफर क्लास 7वीं से शुरु हुआ था जब मैनपुरी षडयंत्र कांड में शामिल उनके सहपाठी राजाराम भारतीय को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस ने स्कूल में छापा मारा। अशफाक उल्ला बंगाल के कनईलाल दत्ता और खुदीराम बोस जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान से भी प्रेरित थे। अशफाक बाद में महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के असहयोग आंदोलन से जुड़े तो गांधी से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने स्वराज पार्टी के लिए प्रचार भी किया। हालांकि चौरी -चौरा कांड के बाद उनका गांधी के आंदोलन के तरीकों मोहभंग हो गया और फिर अशफाक हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के बैनर तले क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय हो गए। 9 अगस्त 1925 को एचआरए के साथियों के साथ मिलकर काकोरी ट्रेन डकैती करते हैं और इसके बाद फासी फंदे को चूम लेते है। भारत का एक शानदार वैचारिक क्रांतिकारी का सफर सदियों के लिए अमर हो जाता है।
काकोरी कांड
शाहजहांपुर और लखनऊ के बीच रामप्रसाद बिस्मिल अक्सर यात्रा करते थे। एक रोज उन्होंने देखा कि स्टेशन मास्टर, गार्ड को पैसे का थैला देता है वो लखनऊ स्टेशन सुपरिटेंडेंट को ले जाकर देता है। यहीं ट्रेन लुटाने का आइडिया बिस्मिल के दिमाग में आया। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए ) को गोला, बारूद, हथियार और संगठन को चलाने के लिए पैसों की सख्त जरूरत थी। राम प्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में 8 अगस्त 1925 को एक अहम बैठक हुई जिसमें 9 अगस्त को सहारनपुर - लखनऊ यात्री ट्रेन को काकोरी में लूटने का प्लान हुआ था। जिस सरकारी धन को क्रांतिकारी लूटना चाहते थे असल में भारतीयों का ही पैसा था। जिसे अंग्रेजों ने शोषण करके लूटा था। इस काण्ड में अशफाक उल्ला खां भी थे।
इस घटना के बाद सभी एचआरए के साथी अलग-अलग जगहों पर भाग गए। बाद में 40 से ज्यादा क्रांतिकारी पकड़े गए थे। अशफाक ने अपना नाम बदलकर कुमारजी रख लिया था। वे बनारस चले गए फिर यहां से बिहार जाकर एक इंजीनियरिंग कम्पनी में 10 महीनों तक काम किया। वे गदर क्रांति के लाला ह्रदय लाल से मिलने विदेश जाना चाहते थे। अपने क्रांतिकारी संघर्ष के लिए मदद चाहते थे। इसके लिए वे दिल्ली गए और उनके एक अफगान दोस्त ने मदद के नाम पर धोखा दिया और उसने पुलिस से मुखबरी कर दी और अशफाक गिरफ्तार हो गए। उन्हें 19 दिसबर 1927 मुजफ्फरनगर जेल में फांसी की सजा हुई।
देश के नौजवानों को जेल से अंतिम सन्देश
"हिंदुस्तानी भाइयो ! आप चाहे किसी धर्म या संप्रदाय को मानने वाले हों ,देश के काम में साथ दो ! वयर्थ आपस में न लड़ो। रास्ता चाहे अलग हो , लेकिन उद्देश्य सबका एक है। सभी कार्य एक ही उद्देश्य की पूर्ति के साधन हैं, फिर यह व्यर्थ के लड़ाई - झगड़े क्यों ? एक होकर देश की नौकरशाही का मुक़ाबला करो अपने देश को आज़ाद कराओ। देश के साथ 7 करोड़ मुसलामानों में मैं पहला मुसलमान हूँ जो देश की आज़ादी के लिए फांसी पर चढ़ रहा हूँ। यह सोचकर मुझे गर्व महसूस होता है।"
आपका भाई
अशफाक