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जनज्वार विशेष : आज के हर एक पत्रकार को भगत सिंह से पत्रकारिता की सीख लेने की जरूरत है
मनीष दुबे की रिपोर्ट
जनज्वार। सोलह सत्रह बरस के भगत सिंह का परिवार उम्र के इस पड़ाव पर परंपरा के मुताबिक उनका ब्याह रचाना चाहता था। इसी दौरान भगत सिंह ने पिता को चिट्ठी लिखकर घर छोड़ दिया।
सोलह साल के भगत सिंह ने लिखा....
पूज्य पिताजी,
नमस्ते
मेरी जिंदगी भारत की आजादी के महान संकल्प के लिए दान कर दी गई है। इसलिए मेरी जिंदगी में आराम और सांसारिक सुखों का कोई आकर्षण नहीं है। आपको याद होगा कि जब मैं बहुत छोटा था, तो बापू जी (दादाजी) ने मेरे जनेऊ संस्कार के समय एलान किया था कि मुझे वतन की सेवा के लिए वक्फ़ (दान) कर दिया गया है। लिहाजा मैं उस समय की उनकी प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ। उम्मीद है आप मुझे माफ़ कर देंगे।
आपका ताबेदार
भगतसिंह
घर छोड़कर भगत सिंह कानपुर जा पहुंचे। देशभक्त पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी उन दिनों कानपुर से प्रताप का प्रकाशन कर रहे थे। वहां भगत सिंह बलवंत सिंह के नाम से लिखते थे। उनके विचारोतेजक लेख प्रताप में छपते और उन्हें पढ़कर लोगों के दिमाग में क्रांति की चिंगारी फड़कने लगती। उन्हीं दिनों कलकत्ता से साप्ताहिक अखबार मतवाला निकलता था। मतवाला में लिखे उनके दो लेख बेहद चर्चित हुए। एक का शीर्षक था- विश्वप्रेम। पंद्रह और बाइस नवंबर 1924 को यह लेख दो किस्तों में प्रकाशित हुआ।
मतवाला में ही भगत सिंह का दूसरा लेख 16 मई 1925 को बलवंत सिंह के छद्म नाम से छपा। यह बताने की बिल्कुल जरूरत नहीं की उन दिनों अनेक क्रांतिकारी छद्म नामों से लिखा करते थे।
प्रताप में भगत सिंह की पत्रकारिता को पर लगे। बलवंत सिंह के नाम से छपे उनके लेखों ने धूम मचा दी। शुरू-शुरू में खुद गणेश शंकर विद्यार्थी को भी पता नहीं चला कि असल मे बलवंत सिंह कौन है? और जब एक दिन पता चला तो गणेश शंकर ने भगत सिंह को गले लगा लिया। इस वाकये के बाद भगत सिंह प्रताप के संपादकीय विभाग से जुड़ गए। इन्हीं दिनों दिल्ली में तनाव बढ़ा। दंगे भड़के तो गणेश शंकर ने भगत सिंह को रिपोर्टिंग के लिए दिल्ली भेजा। विद्यार्थी जी दंगों की बेलाग रिपोर्टिंग चाहते थे। भगत सिंह उनकी उम्मीदों पर खरे उतरे। प्रताप में काम करते हुए उन्होंने महान क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल की आत्मकथा बंदी जीवन का पंजाबी में अनुवाद किया। उनके इस अनुवाद ने पंजाब में देशभक्ति की एक नई लहर पैदा की। इसके बाद आयरिश क्रांतिकारी डेन ब्रीन की आत्मकथा का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया। प्रताप में यह अनुवाद आयरिश स्वतंत्रता संग्राम शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस लेख ने भी देश मे चल रहे आजादी के आंदोलन को वैचारिक मोड़ दिया।
भगत सिंह गणेश शंकर विद्यार्थी के लाडले थे। उनका लिखा एक-एक शब्द विद्यार्थी को गर्व से भर देता था। इसी किसी भावुक पल में विद्यार्थी ने भगत सिंह को क्रांतिकारियों के सिरमौर चंद्रशेखर आजाद से मिलवाया। दो आजादी के दीवाने क्रांतिकारियों का यह आतिशी और अद्भुत मिलन था। भगत सिंह इस समय क्रांतिकारी और पत्रकारीय गतिविधियों में शानदार काम कर रहे थे। गतिविधियां बढ़ीं तो पुलिस को भी शंका हुई। खुफिया चौकसी कड़ी कर दी गई। विद्यार्थी जी ने पुलिस से बचने के लिए भगत सिंह को अलीगढ़ जिले के शादीपुर गांव में एक स्कूल का हेड मास्टर बनाकर भेज दिया।
भगत सिंह शादीपुर में थे तभी विद्यार्थी को उनकी परिवारिक कहानी पता चली। विद्यार्थी जी खुद शादीपुर गए और भगत को घर लौट जाने के लिए कहा। दरअसल भगत सिंह के घर छोड़ने के बाद उनकी दादी की हालत बिगड़ गई थी। दादी को लगता था शादी की उनकी जिद के बाद भगत ने घर छोड़ा है। जिसके लिए वो अपने को कसूरवार मानती थीं। भगत सिंह का पता लगाने को उनके पिताजी ने अखबारों में इश्तेहार दिए। यही इश्तेहार विद्यार्थी जी ने देखे थे। लेकिन तब उन्हें पता नहीं था कि उनके यहां काम करने वाला बलवंत सिंह ही भगत सिंह है। इसी के बाद विद्यार्थी जी शादीपुर जा पहुंचे थे। भगत सिंह विद्यार्थी जी का अनुरोध कैसे टालते। फौरन घर रवाना हो गए। दादी की सेवा करने के बाद पत्रकारिता करने दिल्ली पहुंच गए। यहां दैनिक वीर अर्जुन में नौकरी शुरू कर दी। जल्दी ही एक तेजतर्रार रिपोर्टर और विचारोन्मुखी लेखक के तौर पर उनकी ख्याति फैल गई।
वीर अर्जुन के साथ-साथ भगत सिंह पंजाबी पत्रिका किरती के लिए भी लेखन और रिपोर्टिंग कर रहे थे। किरती में वह विद्रोही के नाम से लिख रहे थे। दिल्ली से ही प्रकाशित महारथी में भी वो लगातार लिख रहे थे। विद्यार्थी जी से भी नियमित संपर्क बना हुआ था। जिसके चलते प्रताप में भी उनके लेख जा रहे थे। 15 मार्च 1926 को प्रताप में एक झन्नाटेदार लेख भगत सिंह ने लिखा। एक पंजाबी युवक के रूप में छपे इस लेख का शीर्षक था- होली के दिन रक्त के छींटे। इस लेख की भाषा और भाव देखिये, 'असहयोग आंदोलन पूरे यौवन पर था। पंजाब किसी से पीछे नहीं रहा। पंजाब में सिख भी उठे। खूब जोरों के साथ। अकाली आंदोलन शुरू हुआ। बलिदानों की झड़ी लग गई।'
काकोरी केस के सेनानियों को भगत सिंह ने सलामी देते हुए एक लेख लिखा। विद्रोही के नाम से। इसमें वो लिखते हैं ' हम लोग आह भरकर समझ लेते हैं कि हमारा फर्ज पूरा हो गया। हमें आग नहीं लगती। हम तड़प नहीं उठते। हम इतने मुर्दा हो गए हैं। आज वे भूख हड़ताल कर रहे हैं। तड़प रहे हैं। हम चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। ईश्वर उन्हें बल और शक्ति दे कि वे वीरता से अपने दिन पूरे करें और उन वीरों का बलिदान रंग लाये।'
जनवरी 1928 में यह लेख किरती में छपा था। इधर के दो तीन सालों भगत सिंह ने लिखा और खूब लिखा। अपनी पत्रकारिता के जरिये वह लोगों के दिलोदिमाग पर छा गए। फरवरी 1928 में उन्होंने कूका विद्रोहियों पर एक लेख लिखा जो दो किस्तों में था। यह लेख उन्होंने बीएस संधू के नाम से लिखा था। इस लेख में भगत सिंह ने ब्यौरा दिया था कि किस तरह छियासठ कूका विद्रोहियों को तोप के मुंह से बांधकर उड़ा दिया था। इसका शीर्षक था - युग पलटने वाला अग्निकुंड।
मार्च से अक्टूबर 1928 तक किरती में ही उन्होंने एक धारावाहिक श्रंखला लिखी। शीर्षक था - 'आजादी की भेंट शहादतें।' इसमें भगत सिंह ने बलिदानी क्रांतिकारियों की गाथाएं लिखी थीं। इसमें एक लेख मदनलाल धींगरा पर भी था। भगत सिंह ने जो लिखा शब्दों का अनोखा कमाल था। उन्होंने लिखा 'फांसी के तख्ते पर खड़े मदनलाल से पूछा जाता है, कुछ कहना चाहते हो? उत्तर मिलता है, वंदे मातरम माँ। भारत माँ तुम्हें नमस्कार, और यह वीर फांसी पर लटक गया। उनकी लाश जेल में ही दफना दी गई। हम हिंदुस्तानियों को दाह क्रिया तक नहीं करने दी गई। धन्य था वो वीर। धन्य है उसकी याद। मुर्दा देश के इस अनमोल हीरे को बार-बार प्रणाम।'
भगत सिंह की पत्रकारिता का यह स्वर्णकाल था। उनके लेख और रिपोर्ताज हिंदुस्तान में उनकी कलम का डंका बजा रहे थे। भगत सिंह जब जेल गए तो वहां लेखों की झड़ी लगा दी। लाहौर के साप्ताहिक 'वंदेमातरम' में उनका एक लेख 'पंजाब का पहला उभार' प्रकाशित हुआ। यह लेख जेल से ही लिखा गया था। इसी तरह 'किरती' में तीन लेखों की लेखमाला 'अराजकतावाद' प्रकाशित हुई। इस लेखमाला ने देश के व्यवस्था चिंतकों और उनकी सोंच पर हमला बोला। 1928 में भगत सिंह की कलम का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोला।
इन दिनों दलितों की समस्याएं और धर्मांतरण के मुद्दे गरमाये हुए हैं। भगत सिंह ने 87 साल पहले इस मसले पर लिखा था 'जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया बीता समझोगे तो वो जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे। उन धर्मों में उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे। उनसे इंसानों जैसा व्यवहार किया जाएगा। फिर यह कहना कि देखो जी ईसाई और मुसलमान हिन्दू कौम को नुकसान पहुंचा रहा है, व्यर्थ होगा।' भगत सिंह की यह सटीक टिप्पड़ी तिलमिला देती है।
इसी तरह की एक टिप्पड़ी और है ' जब अछूतों ने देखा की उनकी वजह से इनमें फसाद हो रहे हैं। हर कोई उन्हें अपनी खुराक समझ रहा है। तो वे अलग और संगठित ही क्यों ना हो जाएं। हम मानते हैं कि उनके अपने जन प्रतिनिधि हों। वे अपने लिए अधिक अधिकार मांगे। उठो। अछूत भाइयों उठो। अपना इतिहास देखो। गुरु गोविंद सिंह की असली ताकत तुम्हीं थे। शिवाजी तुम्हारे भरोसे ही कुछ कर सके। तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्ण अक्षरों में लिखी हुई हैं। संगठित हो जाओ। स्वयं कोशिश किये बिना कुछ भी ना मिलेगा। तुम दूसरों की खुराक ना बनो। सोए हुए शेरों। उठो और बगावत खड़ी कर दो।'
इस तरह लिखने का साहस भगत सिंह ही कर सकते थे। बर्तानवी शाशकों ने 'चांद' के जिस एतिहासिक अंक पर पाबंदी लगाई थी, उसमे भी भगत सिंह ने अनेक आलेख लिखे थे। इस अंक को भारतीय पत्रकारिता की गीता माना जाता है।
अंत मे उस पर्चे का जिक्र जिसने गोरों की चूलें हिला दी थीं। 8 अप्रैल 1929 को असेम्बली में बम के साथ जो पर्चे फेंके गए थे, वो भगत सिंह ने ही लिखे थे। पर्चे में लिखा था 'बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज की आवश्यकता होती है। जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेंट का पाखंड छोड़कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के खिलाफ क्रांति के लिए तैयार करें। हम अपने विश्वास को दोहराना चाहते हैं कि 'व्यक्तियों की हत्या करना सरल है, लेकिन विचारों की हत्या नहीं की जा सकती।'
इंकलाब! जिंदाबाद!