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'गीली है लकड़ी कि गीला धुआं है?' संस्कृति के चौरस आकाश में अटका गिरदा का सवाल
गिरीश तिवारी 'गिरदा' : कबीर, नानक, बुल्लेशाह, त्रिलोचन, नागार्जुन की परंपरा के कवि
वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का साप्ताहिक कॉलम 'कातते-बीनते'
पुण्यतिथि विशेष
ध्वनियों से अक्षर ले आना क्या कहने हैं
अक्षर से फिर ध्वनियों तक जाना क्या कहने हैं
कोलाहल को गीत बनाना क्या कहने हैं
गीतों से कोहराम मचाना क्या कहने हैं
प्यार, पीर, संघर्षों से भाषा बनती है
ये मेरा तुमको समझाना क्या कहने हैं
ये शब्द गिरदा के हैं। उन्हें गुज़रे आज 22 अगस्त को दस साल पूरे हो गये हैं। अल्मोड़ा, नैनीताल, पिथौरागढ़ में आज भले ही लोग उन्हें याद कर रहे होंगे, लेकिन बाकी देश में वे अब भी अनाम हैं। जैसे जीते जी हुआ करते थे। ये समय कृतघ्न है या हमारा समाज ही कृतघ्न है, दोनों में चुन पाना थोड़ा कठिन काम है। लोक के साथ यह छल हमेशा ही हुआ है। फिर हम लोक की शिकायत करते फिरते हैं कि वो तो भ्रष्ट हो गया। ये शिकायत करने का हक़ किसे है यहां?
गिरीश तिवारी 'गिरदा' कबीर, नानक, बुल्लेशाह, त्रिलोचन, नागार्जुन की परंपरा से आते थे। कम पढ़े, ज्यादा लड़े। वे शब्दों से लड़ते थे। ध्वनियों से लड़ते थे। धुनों से लड़ते थे। उन्हें लपेट कर, समेट कर, अपने पास ले आते। फिर उसके खोल में लोक का अर्थ भर कर लोक में उछाल देते। उत्तराखण्ड का आंदोलन ऐसे ही खड़ा हुआ था। गैरसैंण को राजधानी बनाने का अधूरा आंदोलन अधूरा ही रह गया क्योंकि गिरदा नहीं रहे। आज गिरदा को याद करने का कोई खास मतलब हो सकता है क्या? थोड़ा पीछे चलते हैं।
जिस राजनीतिक मुहावरे का आज बोलबाला है देश में, उसके पीछे लंबे समय से एक संस्कृति काम कर रही है। यह संस्कृति बहुत सोच-समझ कर गढ़ी गयी है। इस संस्कृति की राजनीति बीते सौ साल से हो रही है। आज हम उस मुकाम पर पहुंचे हुए हैं जहां वर्तमान सत्ता ने इस राष्ट्र और इसके राष्ट्रवाद के आरंभिक बिंदु को कम से कम एक सहस्राब्दि पीछे धकेल दिया है। इसका आरंभिक श्रेय उन लोगों को जाता है जिन्होंने उन्नीसवीं सदी के अंत में संस्कृति पर काम किया और एक बनते हुए राष्ट्र के लिए राष्ट्रवाद की बुनियादी परिकल्पना की।
बंकिम चंद्र चटर्जी का आनंदमठ एक बार फिर से देखिए। उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में, जो वास्तविक इतिहास का एक काल्पनिक विस्तार थे, भारत की अधीनता को और पीछे ले जाकर उसमें प्राक्-आधुनिक इस्लामिक साम्राज्यों के शासन को भी शामिल किया गया। यह इस्लामिक शासन को विदेशी आक्रमण के रूप में देखने की एक पुनर्व्याख्या थी।
इरफ़ान हबीब राष्ट्रवाद पर अपनी पुस्तक में सुदीप्त कविराज को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि 'बंकिम ने 'स्व' और 'पर' यानी बंगालियों और भारतीयों के बीच की परिकल्पित सीमा को दोबारा खींचा तथा 'भारतीय राष्ट्रवाद' के स्रोतों को निरूपित करने में मूलभूत भूमिका निभायी।'
यह व्याख्या बाद में उन लोगों के काम आयी जिन्होंने अपने राष्ट्रवाद को 'स्व' और 'पर' की दुई में बांटते हुए गढ़ा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने राष्ट्रवाद को इसीलिए 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' कहा और खुद को राजनीतिक नहीं, हमेशा सांस्कृतिक संगठन कहता रहा। इसके दो लाभ हुए। अव्वल तो वह संस्कृति के नाम पर दरअसल संस्कृति की राजनीति करता रहा। दूसरे, राजनीति करने का जब-जब आरोप उस पर लगा, उसने खुद को इससे अलग करते हुए राजनीति को पांचसाला चुनाव तक लाकर पटक दिया।
आज भी संघ के प्रचारक बहुत आत्मविश्वास से यह बात कहते हैं कि उन्हें संघ में किसी राजनीतिक दल विशेष का साथ देने को नहीं कहा जाता। राजनीतिक दल को चुनने, वोट देने के मामले में वे स्वतंत्र होते हैं। यह बात सतह पर भले भ्रामक दिखती हो चूंकि संघ और भारतीय जनता पार्टी बीते वर्षों में एक-दूसरे का पर्याय बन चुके हैं लेकिन यह गलत नहीं है।
आप यहां एक बात पर ध्यान दीजिए। प्रत्येक संगठन की तरह संघ में भी कुछ नेगोशियेबल्स हैं और कुछ नॉन-नेगोशियेबल्स। नेगोशियेबल मने वह पक्ष जिसमें लचीलापन हो, जहां चुनने का विकल्प हो और जिससे अल्पकालिक रणनीति के बतौर समझौता किया जा सकता हो। नॉन-नेगोशियेबल मने वह पक्ष जहां समझौते की गुंजाइश न हो। संघ में ये दोनों पक्ष कौन-कौन से हैं? राजनीति और संस्कृति। राजनीति मतलब राजनीतिक दल और उससे जुड़े उपक्रम, जो संघ के लिए नेगोशियेबल होता है।
संस्कृति के पक्ष पर संघ नेगोशियेट नहीं करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि सिद्धांतत: आरएसएस के लिए राजनीतिक दल, चुनाव, सत्ता आदि गौण चीज़ें हैं। उसके लिए संस्कृति का पक्ष प्राथमिक है। इसीलिए संघ की 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की विचारधारा तब भी सक्रिय रहती है जब वह सत्ता में नहीं होता। सत्ता में आ जाए, तो संस्कृति की इस राजनीति को राज्याश्रय की गारंटी हो जाती है। फिर वह चौगुना गति से फैलती है और अपना राजनीतिक आधार विस्तारित करती है।
संघ की सत्ता, विचारधारा और राजनीति पर जब हम सवाल करते हैं, तो हमारे पास लोक को देने के लिए क्या होता है? ज़ाहिर है, इसका जवाब केवल एक ही होगा- सत्ता परिवर्तन। सत्ता परिवर्तन का सीधा सा मतलब है चुनाव। चुनाव का मतलब है चुनावी राजनीति। चुनावी राजनीति का मतलब है राजनीतिक दलों के इर्द-गिर्द होने वाले राजनीतिक उपक्रम। बहुत दिनों से 'आइडिया ऑफ इंडिया' के खतरे में होने का हल्ला मच रहा है- क्या विपक्ष में किसी के पास इस 'आइडिया' का सांस्कृतिक खाका है?
'आइडिया ऑफ इंडिया' का मतलब चाहे जो हो, लेकिन उसकी बहाली क्या केवल राजनीतिक सत्ता परिवर्तन की बंधक होनी चाहिए? आपको संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से समस्या है, आप उसको देश के ताने-बाने के लिए ज़हर मानते हैं, ये सब ठीक है लेकिन आपका सांस्कृतिक एजेंडा क्या है?
आज की तारीख में भाजपा से इतर क्या कोई भी राजनीतिक दल अपना सांस्कृतिक प्रोग्राम बताने की स्थिति में है? बिना संस्कृति पर काम किये राजनीतिक गुणा-गणित से सत्ता परिवर्तन यदि हो भी गया तो वह कितने दिन टिकेगा? और क्या गारंटी है कि सत्ता में आया दल सत्ता में लोकप्रिय बने रहने के लिए आरएसएस की लगायी सांस्कृतिक फसल को ही काटने न लगे?
ठीक दो दिन पहले राजीव गांधी के जन्मदिन पर मध्यप्रदेश के दैनिक भास्कर में कांग्रेस नेता कमलनाथ द्वारा छपवाया गया विज्ञापन देखिए जिसमें राम मंदिर की नींव रखने और रामराज्य के सपने का क्रेडिट राजीव गांधी को दिया गया है। अखिलेश यादव और मायावती का प्रतिस्पर्धी परशुराम एजेंडा देख लीजिए। समाजवादी पार्टी द्वारा सत्ता में आने पर सवर्ण आयोग के गठन का एलान देख लीजिए।
यह सब तब है, जब कथित 'आइडिया ऑफ इंडिया' के वाहक ये दल खुद सत्ता में नहीं हैं। ये सारे दावे, वादे, अपने मूल में क्या हैं? संघ की तैयार की हुई सांस्कृतिक ज़मीन पर अपना छप्पर डालने की कोशिशें। ये ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्योंकि इनके पास कोई सांस्कृतिक एजेंडा नहीं है और राजनीतिक एजेंडे का मतलब केवल सत्ता हासिल करना है। जनता इसे समझती है।
लोगों को अगर लगता है कि सारे विपक्षी मिलकर मोदी सरकार को गिराना चाहते हैं तो गलत नहीं लगता। विपक्ष के पास सरकार बदलने के संघर्ष (अगर कह सकें, तो) के अलावा और कुछ नहीं है लोगों को देने के लिए। न दिमागी स्तर पर, न रूहानी। इसे ऐसे कह सकते हैं कि संघ अगर समाज में अफ़ीम बांटता है, तो बाकी के पास अफ़ीम भी नहीं है। वे संघ की ही बांटी हुई अफ़़ीम खायी जनता से उसकी पीनक में लगे हाथ सादे काग़ज़ पर अंगूठा मरवा लेने की फि़राक में हैं।
इसी मोड़ पर गिरदा बड़ी शिद्दत से याद आते हैं। 10 साल पहले जब वे जिंदा थे, 'संस्कृति की राजनीति' का सवाल तब भी तवज्जो की आस में टकटकी लगाये देख रहा था, लेकिन गैर-भाजपा सरकारों के दौर में यहां के लेखक, बौद्धिक और संस्कृतिकर्मी संस्कृति के मोर्चे पर जाने क्यों चैन की भांग खाकर सोये रहते हैं।
आज जब लोक संस्कृति पर प्रयोग करने वाले गिरदा जैसी शख्सियतों से सीखने और उसे प्रैक्टिस करने की ज़रूरत है, तो संस्कृतिकर्मी हताश हैं या फिर वहीं ज़ंग खाया पुराना लोहा पीटे पड़े हैं। मरहूम गिरदा हों, चाहे देश भर में बिखरे सैकड़ों देसी गायक, रचनाकार, संगीतकार, वे मिलकर हमारे सामने एक कच्चा-पक्का सांस्कृतिक मॉडल रखते हैं। वो मॉडल क्या है? लोगों के बीच जाना। उनकी देशज संस्कृति को सीखना, समझना। फिर अपने राजनीतिक-सामाजिक संदेश को उस संस्कृति के हिसाब से ढालना और उन्हीं को वापस दे आना जहां से सीखा था। हम क्या करते हैं? 'हम देखेंगे' गाते हैं। गिटार पर गाते हैं। जंतर-मंतर पर गाते हैं। अब बाहर गाना संभव नहीं रहा, तो कोरोना के बाद बदली हुई दुनिया में पोस्टरों-प्लेकार्डों पर लिखकर देख रहे हैं। सवाल है, और कितना देखेंगे? और कब तक?
गिरदा इस बात को बखूबी समझते थे कि वे कुमाऊं की जनता में फ़ैज़ की नज़्म गाएंगे तो कुछ नहीं होगा। एक संस्मरण में वे बताते हैं कि एक जनसभा में उन्होंने 'हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे' गीत गाया तो देखा कि कोने में बैठा एक मजदूर निर्विकार भाव से बैठा ही रहा। उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ा, गोया समझ ही न आया हो। तब उन्हें लगा कि नहीं, फ़ैज़ को स्थानीय बनाना होगा। आज ये पंक्तियां गिरदा की ही तरह उत्तराखंड में अमर हो चुकी हैं:
हम ओढ़, बारुड़ी, ल्वार, कुल्ली-कभाड़ी, जै दिन यो दुनी धैं हिसाब ल्यूंलो,
एक हांग नि मांगूं, एक भांग नि मांगू, सब खसरा खतौनी किताब ल्यूंलो।
हमें यह समझना होगा कि संस्कृति का सवाल राजनीति से ज्यादा अहम है। राजनीति उसके पीछे आती है। प्रेमचंद सौ साल पहले कह गये कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है, लेकिन उसे हमने रट लिया बिना अर्थ समझे। गिरदा भी तो यही बता गये कि कोलाहल के बीच से गीत निकालने हैं और फिर उनसे कोहराम मचाना है। जिनको न प्रेमचंद समझ आते हैं न गिरदा, वे संघ से ही सीख लें।
आज से तीस साल पहले एक ध्वनि हुआ करती थी जय श्रीराम। आज वह ध्वनि लोकतंत्र का नाद बन चुकी है। छह साल पहले महज एक ध्वनि हुआ करता था 'मितरों'। आज इस शब्द में एक चेहरा स्थायी रूप से बस गया है। ऐसे ही ध्वनियों और शब्दों में समय के साथ अर्थ भरे जाते हैं, छवियां घुसायी जाती हैं, लेकिन उस विज्ञान की समझ होना और उसे बरतना आना चाहिए। इसकी सीख किताब में नहीं, लोक में मिलेगी। पूर्वांचल के एक भुला दिये गये जनकवि थे विनय राय बबुरंग। वे दस शब्दों में वर्ग-संघर्ष की ज़रूरत को समझाते थे।
धन्य हईं हे रघुबीर
हम खाईं सतुवा तू खइबs खीर!
हमें न नये शब्दों की ज़रूरत है, न ध्वनियों की और न धुनों की। समाज के पास सदियों से इनका विपुल भंडार है। बस, वहां जाकर और चुराकर लाने की ज़रूरत है ताकि इनमें वे अर्थ भरे जा सकें जिनकी आज हम ज़रूरत महसूस कर रहे हैं। संस्कृति का मोर्चा एकरंगी हुआ पड़ा है। सबकी जुबां केसरी हो चुकी है और भीतर अदृश्य कैंसर व्याप रहा है। इसलिए आज गिरदा की दसवीं पुण्यतिथि पर इस कब्ज़ायी जा चुकी ज़मीन की ओर रुख करना न सिर्फ उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी, बल्कि इस समाज की बची-खुची संवेदना को भी उभारने का काम करेगा। अन्यथा, गिरदा के ही शब्दों में:
देश में
लोकतंत्र बरकरार है,
आपको
अपना तानाशाह चुनने का
झक मार कर
अधिकार है।