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जनज्वार विशेष

कभी हिम्मत करके विद्रोही बनने वाले आम आदमी को मोदी सरकार ने बना दिया है बेहद लाचार और निरीह

Janjwar Desk
24 Oct 2021 12:00 PM GMT
कभी हिम्मत करके विद्रोही बनने वाले आम आदमी को मोदी सरकार ने बना दिया है बेहद लाचार और निरीह
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मोदीराज में दिन ब दिन लाचार होता आम आदमी (file photo)

आम आदमी केवल चुनावी मोहरा रह गया है और चुनाव ख़त्म होती ही सत्ता की नजर में उसका अस्तित्व ख़त्म हो जाता है, पहले कभी-कभी हिम्मत कर आम आदमी विद्रोही होता भी था, पर मोदी सरकार ने उसे बेहद लाचार बना दिया है

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। पिछले 100 वर्षों से भी अधिक समय से दुनिया आम आदमी का जीवन स्तर सुधारने का दावा कर रही है, पर पूंजीवादी व्यवस्था (Capitalist society) में आम आदमी लगातार पहले से अधिक बोझ उठाये और लाचार हो जा रहा है। हमारे देश में भी आजादी के बाद से सरकारें यही दावा करती जा रही हैं, पर आम आदमी अपने रोजी-रोटी के जुगाड़ में कहीं गुम हो गया है। आम आदमी केवल चुनावी मोहरा (Vote Bank) रह गया है और चुनाव ख़त्म होती ही सत्ता की नजर में उसका अस्तित्व ख़त्म हो जाता है। पहले कभी-कभी हिम्मत कर आम आदमी विद्रोही होता भी था, पर मोदी सरकार ने उसे बेहद लाचार बना दिया है। आम आदमी के सवाल तो अब मीडिया ने भी उठाने बंद कर दिए हैं और न्यायालय तो कभी आम आदमी के रहे ही नहीं।

आम आदमी साहित्य और कला का हमेशा से प्रिय विषय रहा है। आम आदमी का किरदार निभाते-निभाते अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan) एंग्री यंग मैन से सदी के महानायक बन गए, पर आम आदमी की असली झलक बिमल रॉय, श्याम बेनेगल, और गोविन्द निहलानी की फिल्मों में झलकता था। फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस में शाहरुख खान का एक प्रसिद्ध डायलाग था, डू नॉट अंडरएस्टीमेट द पॉवर ऑफ़ कॉमन मैन। आम आदमी का साहित्य में दर्द उकेरने वाले साहित्यकारों में मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand) अग्रणी थे और व्यंग्यात्मक लहजे में हरिशंकर परसाई ने आम आदमी को खूब परिभाषित किया। आम आदमी के दुःख-दर्द को समेटे हुए कवितायें भी खूब लिखी गईं।

कवि अश्वघोष (Ashvghosh) की एक कविता का शीर्षक ही है, 'आम आदमी' इसमें उन्होंने लिखा है, उखड़ी उखड़ी सांस ले रहा आम आदमी, संसद को आवाज दे रहा आम आदमी।

आम आदमी

व्यर्थ जा रही सारी अटकल

कितना बेबस, कितना बेकल

आम आदमी।

मन में लेकर सपनों का घर

खड़ा हुआ है चौराहे पर

चारों ओर बिछी है दलदल

कैसे खोजे राहत के पल

आम आदमी।

तन में थकन नसों में पारा

कंधों पर परिवार है सारा

कहाँ जा रहा मेहनत का फल?

सोच-सोच कर होता दुर्बल

आम आदमी।

उखड़ी-उखड़ी साँस ले रहा

संसद को आवाज़ दे रहा

मीलों तक पसरा है छल-बल

बार-बार होता है निष्फल

आम आदमी।

कवि त्रिभुवन कौल (Tribhuvan Kaul) की एक कविता है, बेचारा आम आदमी। इस कविता में उन्होंने गांधी जी के तीन बंदरों के आधार पर और महाभारत के उदाहरण के सहारे आम आदमी को परिभाषित किया है।

बेचारा आम आदमी

गाँधी जी के तीन बंदर

तीनो मेरे अन्दर

कुलबुलाते हैं

बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो

पर देखता हूँ, सुनता हूँ, कहता हूँI क्यों?

क्यूंकि मैं एक आम आदमी हूँ

स्वतंत्र होते हुए भी मैं पराधीन हूँ

एक दुस्वप्न सा जीवन जीने को मजबूर हूँ

हर रोज, नयी भोर के संग नयी आस का घूँट पीता हूँ

कल अच्छा नहीं था, आज अच्छा होना चाहिए

यह सोच कर ही तो जीता हूँ।

मंहगाई की मार, घोटालों की धमक

गिरते मूल्यों के बीच नोटों की चमक

रोष भरपूर है पर दोष किसे दूँ

आम आदमी हूँ, मन की किसे कहूँ

महाभारत सी बन गयी है मेरी जिंदगी

एक चक्रव्यूह में फँस कर रह गयी है मेरी जिंदगी।

दुर्योधन, दुशासन, शकुनि सरीखे

मोंकों की तलाश में हमेशा रहते हैं

धृतराष्ट्र और भीष्म जैसों के मुँह पर

हमेशा की तरह ताले पड़े रहते हैं।

आज भी अभिमन्यु जैसे नौजवान

चक्रव्यूह न भेदने का बोझ ढ़ो रहें हैं

रोज कहीं न कहीं द्रोपदिओं के चीर हरण हो रहे हैं

तब एक द्रोपदी के पीछे मचा था महाभारत

आज आंखे खोले ही सब के सब महारथी सो रहे हैं।

आज के इस भारत में

महाभारत के पात्र सब उपस्थित हैं

पर कृष्ण नदारद हैं

हजारों अर्जुनों के हाथ गांडीव तो है

पर उन्हें एक नयी गीता की अपेक्षा है

इसी आस में आम आदमी

जीता है बस जीता है.

गाँधी जी के तीन बंदरों की तरह।

कवि मनोज चौहान (Manoj Chauhaan) ने अपनी कविता, आम आदमी की व्यथा, में शीर्षक के अनुरूप उस व्यथा को प्रस्तुत किया है जिसे हम हरेक दिन भुगतते हैं।

आम आदमी की व्यथा

मैं पिरो देना चाहता हूं,

कविता की इन,

चंद पंक्तियों में,

शोषण के शिकार,

उस आम आदमी की,

व्यथा को।

दिन भर काम करने के,

उपरान्त भी,

नहीं होता सही आंकलन,

जिसकी दिन भर की,

मेहनत का।

बंद है जिसकी किस्मत,

चंद ठेकेदारों की मुठ्ठी में,

साक्षात प्रारूप है वह,

इस गले- सडे. समाज की,

हैवानियत का।

अपनी जागती हुई आंखों में,

वह संजोये हुए है सपने,

कि कब बदलेगी व्यवस्था,

ताकि मिल सके उसे,

अपने काम की पूरी मजदूरी।

कवि संजीव सारथी (Sanjiv Sarathi) ने अपनी कविता, वोट बैंक – आम आदमी, में आम आदमी को वोट बैंक बताया है, जिसे केवल चुनावों के ठीक पहले याद किया जाता है और फिर पांच साल के लिए भुला दिया जाता है।

वोट बैंक – आम आदमी

लफ्ज़ रूखे, स्वर अधूरे उसके,

सहमी-सी है आवाज़ भी,

सिक्कों की झनकारें सुनता है

सूना है दिल का साज़ भी,

तन्हाईयों की भीड़ में गुम

दुनिया के मेलों में,

ज़िन्दगी का बोझ लादे

कभी बसों में, कभी रेलों में,

पिसता है वो हालात की चक्कियों में,

रहता है वो शहरों की बस्तियों में,

घुटे तंग कमरों में आँखें खोलता,

महँगाई के बाज़ारों में खुद को तोलता,

थोड़ा सा जीता, थोड़ा सा मरता

थोड़ा सा रोता, थोड़ा सा हँसता,

रोज़ यूँ ही चलता- आम आदमी।

मौन-दर्शी हर बात का,

धूप का, बरसात का,

आ जाता बहकाओं में,

खो जाता अफ़वाहों में,

मिलावटी हवाओं में,

सड़कों में, फुटपाथों में,

मिल जाता है अक्सर कतारों में,

राशन की दुकानों में,

दिख जाता है अक्सर बाज़ारों में

रास्तों में, चौराहों में,

अपनी बारी का इंतज़ार करता

दफ़्तरों-अस्पतालों के बरामदों में,

क्यों है आख़िर

अपनी ही सत्ता से कटा छटा,

क्यों है यूं

अपने ही वतन में अजनबी-

आम आदमी।

कवि कुंवर दिनेश (Kanvar Dinesh) ने अपनी कविता, आम आदमी, में स्वयं को आम आदमी की तरह प्रस्तुत किया है, जो सरकारों के लिए किसी राहू की छाया से कम नहीं है।

आम आदमी

मैं आम आदमी हूँ,

मैं आम आदमी हूँ।

मैं उपवन में अपतृण -सा उग आया हूँ,

मैं जनपथ पर कुहरा सा घिर आया हूँ,

मैं पावस ऋतु में छाई नमी हूँ;

मैं आम आदमी हूँ,

मैं आम आदमी हूँ।

मैं सरकार के सिर पर राहु सा छाया हूँ,

मैं विभ्रान्त आत्मा की अवाञ्छित काया हूँ,

स्पर्शातीत हूँ, किन्तु लाज़मी हूँ;

मैं आम आदमी हूँ,

मैं आम आदमी हूँ

इस लेख के लेखक की एक कविता है, आम आदमी की कविता। इसमें बताया गया है कि आम आदमी तरह-तरह से कवितायें गढ़ता है, और असली कवि आम आदमी ही है जिसे कविता के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती।

आम आदमी की कविता

मैं कलम से लिखता हूँ,

स्याही से शब्द गढ़ता हूँ।

क्रांतिकारी नहीं हूँ,

खून से कवितायें नहीं लिखता।

आन्दोलनकारी नहीं हूँ,

सड़क पर ईंट से नहीं लिखता।

स्वप्नदर्शी नहीं हूँ,

फूलों के रंग से नहीं लिखता।

किसान भी नहीं हूँ,

खेतों में हल से कविता नहीं करता।

मजदूर नहीं हूँ,

चमचमाते पसीने से नहीं लिखता।

मैं आम आदमी हूँ,

देर तक एक अदद कलम खोजता हूँ,

फिर कागज़ खोजता हूँ,

और कविता लिखता हूँ।

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