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खुद नेपाली प्रधानमंत्री ओली ने बढ़ाया भारत के नेपाली मज़दूरों के लिए संकट
काठमांडू से सुरेंद्र फ़ुयाल की रिपोर्ट
भारत और नेपाल के रिश्तों में बढ़ती खटास को प्रधानमंत्री केपी ओली के अयोध्या पर दिए गए बयान ने अधिक तीखा कर दिया है। इसके चलते यह आशंका पैदा हो गयी है कि भारत में रह रहे लाखों नेपाली कामगारों के साथ ना जाने अब कैसा बर्ताव होगा।
भारत में रह रहे नेपालियों का कहना है कि नेपाली नेता का ताज़ा बयान प्रवासी नेपाली कामगारों के भारतीय मालिकों को गुस्सा दिला सकता है। वैसे भी बहुत से कामगारों को मई महीने में पैदा हुए लिपुलेख विवाद के चलते अनेक तरह के तानों का शिकार होना पड़ रहा है।
नेपाली कांग्रेस से जुडी नेपाली जनसम्पर्क समिति और मैती इण्डिया के अध्यक्ष बालकृष्ण पांडे कहते हैं, 'काठमांडू के नेताओं का कुछ नहीं बिगड़ेगा, वो चाहे कुछ भी कह दें। लेकिन हमारे जैसे नेपाली कामगारों को यहां आने वाले दिनों में ज़्यादा उत्पीड़न और गाली-गलौज सहनी पड़ेगी'।
नेपाल में चलने वाले मुख्यधारा के विमर्श में प्रवासी कामगारों का सन्दर्भ आमतौर पर विदेश में रहने वाले उन कामगारों के बारे में दिया जाता है जो खाड़ी देशों, मलेशिया या कोरिया में हैं और भारत में काम कर रहे लगभग तीस लाख नेपालियों की अनदेखी कर देता है।
अब नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कारण बताओ नोटिस जारी करते हुए पूछा है कि भारत में रह रहे नेपाली प्रवासी कामगारों को वे सुविधाएँ और सुरक्षा क्यों नहीं मिलनी चाहिए जो दूसरे देशों में रहने वाले नेपाली कामगारों को मुहैय्या कराई जाती हैं। इनमें वे नेपाली कामगार भी शामिल हैं जिन्हें कोविड-१९ के चलते विदेशों से वापिस नेपाल लाया जा रहा है।
नेपाल की सरकार ने अपने नागरिकों को १७० देशों में रहने और काम करने की इजाज़त दी है और इनमें से कुछ देशों के साथ उसके द्विपक्षीय श्रम समझौते भी हैं। विदेश में घायल हो गए या मारे गए नेपालियों के लिए इसने Foreign Employment Welfare Fund की भी स्थापना की है। नेपाली सरकार अपने कामगारों को Foreign Employment Permit भी जारी करती है जिसके आधार पर वे साढ़े दस लाख तक का बीमा भी करा सकते हैं। महामारी के चलते जब दूसरे देशों में कार्यरत बहुत सारे नेपालियों की नौकरी चली गयी तब घर वापिस लाने वाली हवाई उड़ानों का इंतज़ाम कर सरकार ने घर वापसी में उनकी मदद करी थी।
लेकिन, भारत में रह रहे कामगारों को ऐसी कोई सुविधा नहीं दी गयी। बहुतों को तो गुजरते वाहनों से लिफ्ट मांग कर घर वापसी करनी पड़ी। अप्रैल-मई में हफ़्तों तक उन्हें नेपाल में प्रवेश करने से रोका गया और जब अनुमति दी गयी तो उन्हें बदइंतज़ामी वाली जगहों पर क्वारंटीन होने के लिए मजबूर किया गया।
सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका डालने वाले वकीलों में से एक निर्मल उप्रेती को डर है कि प्रधानमंत्री ओली के बयान के बाद भारत में रह रहे प्रवासी नेपाली कामगारों को ज़्यादा प्रताड़ना और भेदभाव का सामना करना होगा। वो कहते हैं, 'इस तरह की राजनीतिक बयानबाजी भारत के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकती है और इसके परिणाम नेपाली कामगारों के लिए भयंकर हो सकते हैं'।
उप्रेती कहते हैं कि पर्याप्त सामाजिक सुरक्षा के बिना भारत में कड़ी मेहनत कर रहे नेपाली प्रवासी कामगारों के प्रति नेपाल की सरकार का रवैय्या देश के Foreign Employment क़ानून का सीधा उल्लंघन है और सुरक्षित प्रवास सम्बन्धी कामगारों के अधिकार के ख़िलाफ़ है।
वो आगे कहते हैं कि नेपाली प्रवासी कामगारों के लिए भारत भी दूसरे देशों की ही तरह एक विदेशी स्थान है लेकिन किसी भी तरह के क़ानूनी दस्तावेज़ या विदेशी रोज़गार के सबूत के अभाव में भारत में काम कर रहे नेपाली आज भी मुआवज़ा, बीमा और अन्य उन सुविधाओं से वंचित रहते हैं जो दूसरे देशों में जाने वाले नेपालियों को मिलती है।
भारत में नेपाली कामगारों की अनुमानित संख्या २५ से ५० लाख है। ज़्यादातर पश्चिमी नेपाल या तराई क्षेत्र से आते हैं। वे मुख्य रूप से अनौपचारिक चैनलों के माध्यम से परिवार के लोगों की जरूरत के लिए पैसा घर भेजते हैं।
पिछले साल विदेश में बसे नेपालियों ने सरकारी चैनलों के माध्यम से तक़रीबन ८.८ बिलियन डॉलर्स घर भेजे थे। यहां ये साफ़ नहीं है कि इसमें से कितना पैसा ग़ैर सरकारी हुंडी के रास्ते नेपाल आया या इस राशि में कितना हिस्सा भारत से था।
तीन साल पहले विश्व बैंक ने अनुमान लगाया था कि भारत में काम कर रहे नेपालियों ने अपने घर यानी नेपाल १.३ बिलियन डॉलर्स भेजे, जबकि नेपाल में काम कर रहे भारतीयों ने १.५ बिलियन डॉलर्स अपने घर यानी भारत भेजे। इस तरह नेपाल भारत में सबसे ज़्यादा पैसा भेजने वाले देशों की सूची में सातवें पायदान पर पहुँच गया।
International Organization of Migration की २०१९ की रिपोर्ट का यह अनुमान है कि हर एक समय भारत में ३० से ४० लाख नेपाली रह रहे हैं और काम कर रहे हैं। वहीं नेपाल में ७ लाख भारतीयों के काम करने का अनुमान है।
प्रवास विषय पर शोध करने वाले गणेश गुरंग बताते हैं कि भारत-नेपाल सीमा अवरोध मुक्त है और दोनों देशों में कामगारों के आने-जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है जिसके चलते सही आंकड़ा हासिल करना मुश्किल है।
वो समझाते हुए बताते हैं, 'हमारे बहुत सारे मौसमी प्रवासी कामगार भारत-नेपाल सीमा पार करते हैं। फसल कटाई के मौसम के दौरान तराई के इलाके से बहुत सारे नेपाली हरियाणा और पंजाब जाते हैं और बिहार व उत्तर प्रदेश से बहुत सारे भारतीय कामगार नेपाल आते हैं'।
संख्या चाहे कुछ भी हो, सच तो ये है कि भारत में ज़्यादातर नेपाली कामगार और नेपाल में ज़्यादातर भारतीय कामगार न तो पंजीकृत हैं और न ही सुरक्षित हैं। असंगठित क्षेत्र में काम करते हुए वे अक्सर असुरक्षित माहौल में काम करते हैं जिसके चलते उनके चोटिल होने और शोषण का शिकार बनने का खतरा बना रहता है।
नेपाली जनसंपर्क समिति और मैती इंडिया जैसी संस्थाएं भारत में कहीं भी रह रहे गरीबी और शोषण के शिकार नेपाली पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की मदद करती हैं। इनके अध्यक्ष बालकृष्ण पांडे १७ साल की उम्र में भारत आ गए थे और उन्हें होने वाली कठिनाइयों का सीधा अनुभव है।
उन्होंने हमें फोन पर बताया, 'पिछले तीस सालों से हम इस मुद्दे को उठाते आ रहे हैं कि नेपाल के ग़रीब प्रवासी मज़दूरों को भारत में एक तरह की नामांकन, संरक्षण और सुरक्षा सम्बन्धी व्यवस्था की जरूरत है। काठमांडू में कई प्रधानमंत्री गद्दी पर विराजमान हुए और अपदस्थ हो गए। नेपाली नेता जब कभी भी भारत आते हैं तब प्रवासी मज़दूरों को आश्वासन ज़रूर देते हैं, लेकिन काठमांडू में सत्ता में आने के बाद वे यहां के नेपालियों को भूल जाते हैं'।
पांडे का अनुमान है कि लॉकडाउन के पिछले चार महीनों में लगभग ६ लाख प्रवासी नेपाली तमाम दिक्क्तें झेलते हुए भारत से नेपाल लौटे हैं।
नेपाल के Labour Employment and Social Security मंत्रालय के सुमन घीमरि बताते हैं कि भारत में नेपाली प्रवासी कामगारों की घर वापसी सरकार की चिंताओं में शामिल है और लॉकडाउन के बाद स्थानीय सरकारों ने पिछले कुछ महीनों में भारत से आने वालों का पंजीकरण शुरू कर दिया है।
वो आगे कहते हैं, 'इस तरह के आंकड़ों को इकट्ठा करना भारत में नेपाली प्रवासी कामगारों के हितों को सुरक्षित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। हमें और भी ज़्यादा करने की ज़रूरत है और हम इस बारे में गंभीर हैं'।
२०१४ में भारत में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद दोनों देशों की सरकारों ने दोनों दिशाओं में श्रमिकों की आवाजाही को सुगम एवं कारगर बनाने के प्रयास किये हैं। प्रख्यात व्यक्तियों के समूह में भी इस पर चर्चा की गयी थी। समूह का गठन २०१६ में किया गया था। इसका उद्देश्य पुराने द्विपक्षीय समझौतों की समीक्षा करना था। १९५० की India-Nepal Peace and Friendship Treaty भी इसमें शामिल है।
अनेक बैठकों के बाद प्रख्यात व्यक्तियों के समूह ने अपनी अंतिम रिपोर्ट २ साल पहले पूरी की। लेकिन दोनों सरकारों द्वारा इसे स्वीकार किया जाना अभी बाकी है। जानकारों का कहना है कि प्रख्यात व्यक्तियों के समूह की रिपोर्ट वो ज़रूरी आधार मुहैय्या करा सकती है जिसके माध्यम से दोनों देशों के बीच कामगारों के प्रवास को नियंत्रित और सुरक्षित किया जा सकता है।
गणेश गुरंग सुप्रीम कोर्ट के आदेश का स्वागत करते हैं और आगे जोड़ते हैं, 'जो बहुत ज़्यादा गरीब हैं वे ही बुवाई-कटाई के मौसम में काम के लिए या फिर रोज़गार के लिए भारत-नेपाल सीमा को पार करते रहे हैं। अक्सर वे जोखिम उठाते हैं। उन्हें बेहतर सुरक्षा दी जानी चाहिए'।
हालाँकि नई दिल्ली स्थित नेपाल दूतावास के एक राजनयिक कहते हैं कि सीमा नियंत्रण को लेकर दोनों सरकारों को सतर्क रहना होगा। नाम न बताये जाने की शर्त पर इस राजनयिक ने कहा, अगर हम सदियों से बेरोक-टोक सीमा पार कर रहे अपने कामगारों को विदेश रोज़गार परमिट जारी करने लग जाएँ तो भारत-नेपाल रिश्तों पर इसका असर पड़ने लगेगा।
(नेपाली टाइम्स से साभार)