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बड़ी बहस : भगत सिंह को क्रांतिकारी से संत बनाने की साजिश में शामिल क्यों दिखते हैं प्रो. चमन लाल
बड़ी बहस : भगत सिंह को क्रांतिकारी से संत बनाने की साजिश में शामिल क्यों दिखते हैं प्रो. चमन लाल
प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम की टिप्पणी
नीचे जो अंश दिया गया है, वह लेनिन की महान रचना 'द स्टेट एंड रेवोल्यूशन : द मार्क्सिस्ट थ्योरी ऑफ़ द स्टेट एंड द टास्क ऑफ़ द प्रोलितेरियत इन द रेवोल्यूशन' (1917) का पहला ही पैरा है। इससे पता चलता है कि सत्ताधारी शासक और उनके पिट्ठू लोग किस तरह उन सिद्धान्तों और लोगों को दबाने का प्रयास करते हैं जो आम जन को शोषक शासकों के ख़िलाफ़ खड़े होने के लिए प्रेरित करते हैं, कैसे ये गिरगिट जैसे लोग इसके लिए अपने तरकश के हर तीर का इस्तेमाल करते हैं।
"मार्क्स की शिक्षा के साथ आज वही हो रहा है, जो उत्पीड़ित वर्गों के मुक्ति-संघर्ष में उनके नेताओं और क्रांतिकारी विचारकों की शिक्षाओं के साथ इतिहास में अक्सर हुआ है। उत्पीड़क वर्गों ने महान क्रांतिकारियों को उनके पूरे जीवन-काल में लागतार यातनाएं दीं, उनकी शिक्षा का अधिक बर्बर द्वेष, अधिक से अधिक करोधोंमत घृणा तथा झूट बोलने और बदनाम करने के अधिक से अधिक अंधाधुंद मुहिम द्वारा स्वागत किया। लेकिन उनकी मौत के बाद उनकी क्रांतिकारी शिक्षा को सारहीन करके, उसकी क्रांतिकारी धार को कुंद करके, उसे भ्रष्ट करके उत्पीड़ित वर्गों को 'बहलाने' तथा धोखा देने के लिए उन्हें अहानिकर देव-प्रतिमाओं का रूप देने, या कहें, उन्हें देवत्व प्रदान करने और उनके नामों को निश्चित गौरव प्रदान करने के प्रयत्न किये जाते हैं। मार्क्सवाद को इस तरह संसाधित करने में बुरजुवा वर्ग और मजदूर आंदोलन के अवसरवादियों के बीच आज सहमति है। उस शिक्षा के क्रांतिकारी पहलू को, उस की क्रांतिकारी आत्मा को भुला दिया जाता है, मिटा दिया जाता है, विकृत कर दिया जाता है। उस चीज़ को सामने लाया जाता है, गोरवान्वित किया जाता है जो बुर्जुआ वर्ग को मान्य है या मान्य प्रतीत होती है।"
शहीदे-आज़म भगत सिंह के साथ आज भारत में जो किया जा रहा है वह इस बात का जीता-जागता सबूत है कि लेनिन इस प्रक्रिया को कितने अच्छे ढंग से समझते थे और क्योंकि अब भारत को विश्व-गुरु भी बनना है तो हमने इस प्रक्रिया को कुछ और भयावह बना दिया है। ब्रिटिश शासकों ने भगत सिंह (और उनके साथियों) का पीछा किया और अंततः राजगुरु और सुखदेव के साथ उन्हें फांसी पर लटकाकर ही छोड़ा। आज़ादी के बाद उनके तथाकथित प्रशंसक आए और उन्होंने भगत सिंह को उनकी क्रांतिकारी विरासत से रहित करके एक अहानिकर देव-प्रतिमा में बदल दिया। उन्हें जाटों और सिखों के नायक के रूप में पेश करने लगे।
भगत सिंह के ऊपर बनी दर्जन-भर फ़िल्मों में भी यह चीज़ देखी जा सकती है। यहाँ तक कि वह हिंदुत्व-गैंग जो स्वतंत्रता आन्दोलन के समय निर्लज्जतापूर्वक अंग्रेज़ों के साथ रहा, वह भी शहादत की पूरी परम्परा को धता बताते हुए उनके चित्रों के सार्वजनिक इस्तेमाल की ढीठता दिखा रहा है।
अब इसमें एक नयी चीज़ और जुड़ी है, और यह पूरे तौर पर आपराधिक है। एक ऐसी चीज़ जिसके बारे में वे लोग, जिन्होंने भगत सिंह को पढ़ा है और जो उनकी प्रतिबद्धताओं को जानते हैं, कल्पना तक नहीं कर सकते।
इस बार भगत सिंह को एक सजावटी कॉफ़ी-टेबल बुक के रूप में बतौर एक पैकेज भारतीय सशस्त्र सेनाओं के सामने प्रस्तुत किया गया है और वह भी भारत के सैन्यीकरण के एक प्रतीक के रूप में। और यह किसी ऐसे व्यक्ति ने नहीं किया जो विचारधारा से कम्युनिस्ट क्रांतिकारी भगत सिंह को नहीं जानता या उनके प्रति शत्रु-भाव रखता है, यह उन्होंने किया है जिन्हें भगत सिंह के जीवन और विचारों का आधिकारिक जानकार माना जाता है। प्रोफ़ेसर चमन लाल जिन्हें मैं आज तक एक ऐसे व्यक्ति के रूप मैं इज़्ज़त देता रहा जो उस महान क्रांतिकारी के विचारों में भरोसा रखता है।
प्रोफ़ेसर चमन लाल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं, भगत सिंह अभिलेखागार एवं संसाधन केन्द्र (दिल्ली सरकार), नई दिल्ली के मानद सलाहकार हैं, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के भाषा विभाग में डीन हैं और जेएनयू अध्यापक संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं। उन्होंने भागात सिंह के दस्तावेज़ों को जितनी बड़ी तादाद में विभिन्न प्रकाशकों से बेचने के लिये छपवाया है, उसे जानकर तो यह ही लगता है कि वे इस धरती पर भगत सिंह के सब से बड़े चाहने वाले हैं।
वे लिखते हैं ('स्प्रेडिंग भगत सिंह'स आइडियाज़', द ट्रिब्यून, 3 दिसम्बर, 2022) : "मुझे नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली की ओर से प्रकाशित पुस्तक के ग्यारहवें पुनर्मुद्रण की लेखकीय संपादकीय प्रतियाँ मिलीं। इसके कुछ समय बाद मुझे एक और किताब 'जेल नोटबुक ऐंड अदर राइटिंग्स' की एक प्रति एक दूसरे प्रकाशक लेफ़्टवर्ड से मिली, जिसमें बताया गया था कि वह पुस्तक का बारहवाँ पुनर्मुद्रण है...मेरे द्वारा संपादित भगत सिंह के संपूर्ण लेखन के मराठी अनुवाद का लोकार्पण न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश पीबी सावंत ने भगत सिंह की जन्मशती के मौक़े पर किया था।
"इसी तरह प्रकाशन विभाग, भारत सरकार ने 2007 में भगत सिंह के दो भतीजों और स्व. कुलदीप नैयर की मौजूदगी में भगत सिंह की सम्पूर्ण रचनाओं की सम्पादित पुस्तक का लोकार्पण किया। आजादी के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर इसी को चार खण्डों में कुछ सामग्री जोड़कर प्रकाशित किया गया। मुझे एक जीवनी--'लाइफ एंड लीजेंड ऑफ भगत सिंह : ए पिक्टोरियल वोल्यूम' लिखने के लिए आमंत्रित किया गया! मैं भगत सिंह की और रचनाओं की तलाश में लगा हुआ था, मैंने यह भी सोचा कि पहले से ही उनकी इतनी जीवनियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं तो अब इसकी योजना कैसे बनाऊँ! तभी मेरे मन में ख़याल आया कि भगत सिंह की रचनाओं की प्रामाणिकता पर रोशनी डालने के लिए मैं दशकों से दस्तावेजों, लिखित रचनाओं, चित्रों आदि की तलाश करता रहा हूँ, और मैंने वह आमन्त्रण स्वीकार कर लिया; और अभी यह किताब प्रकाशित हुई है। 'द भगत सिंह रीडर' का प्रकाशन जल्द ही हार्पर कॉलिन्स से होगा। 2019 में इसके प्रथम प्रकाशन के बाद मुझे कुछ और दस्तावेज मिले हैं। 2019 में मैंने भगत सिंह की 130 रचनाओं और जेल नोटबुक को उसमें शामिल किया था। अब आने वाले संस्करण में तीन रचनाएँ और जोड़ी जाएँगी।"
उपरोक्त सभी किताबों का कॉपीराइट (मालिकाना हक़) प्रोफ़ेसर चमन लाल साहब के पास ही है। भगत सिंह की रचनाओं के कुछ हिन्दी संस्करणों का नाम लेना वे भूल गए। इनका कॉपीराइट भी उन्हीं के नाम है। भगत सिंह द्वारा या उनके ऊपर लिखित रचनाओं का प्रोफ़ेसर चमन लाल का यह भंडार काफ़ी प्रभावशाली है। इसके अध्ययन के बाद यह मान लेना ग़लत नहीं होगा कि प्रोफ़ेसर साहब भगत सिंह के आदर्शो में पूरा यक़ीन रखते होंगे। वे यह भी जानते होंगे कि भगत सिंह का लेखन उनके व्यापक अकादमिक अध्ययन का परिणाम था। भगत सिंह ऐसे पढ़ाकू थे कि उन्होंने उच्च स्तर की सेंसरशिप और जेल-जीवन की अकथनीय कठिनाइयों के बावजूद ज्ञान की अपनी भूख को कभी शांत नहीं होने दिया।
हक़ीक़त तो यह है कि 1929 में उन्होंने अपने साथियों के साथ मियाँवाली (अब पाकिस्तान में) जेल में 116 दिनों की भूख हड़ताल इसीलिए की थी कि उन्हें पढ़ने के लिए किताबें मुहैया कराई जाएँ और उन्हें तथा उनके साथियों को राजनीतिक क़ैदियों का दर्जा दिया जाए। इसी भूख हड़ताल के दौरान जतींद्र नाथ दास शहीद हो गए थे। भगत सिंह कुल 716 दिन जेल में रहे। इनमें से 167 दिन उन्होंने मौत की सज़ा पाए क़ैदी के रूप में बिताए। इस अवधि में उन्होंने अंग्रेज़ी की विदेशों में प्रकाशित 143 पुस्तकें पढ़ीं और 159 भारत में प्रकाशित पुस्तकें जिनमें 54 अंग्रेज़ी की, 63 हिन्दी की, 7 पंजाबी की, 28 उर्दू की, 17 बंगाली की और 3 मराठी की थीं।
प्रोफ़ेसर साहब ने दो आश्चर्यबोधक चिह्नों के साथ यह जानकारी तो दी ही है : "मुझे एक जीवनी-- 'लाइफ़ एंड लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह : ए पिक्टोरियल वोल्यूम' लिखने के लिए आमंत्रित किया गया! मैं भगत सिंह की और रचनाओं की तलाश में लगा हुआ था, मैंने यह भी सोचा कि पहले से ही उनकी इतनी जीवनियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं तो अब इसकी योजना कैसे बनाऊँ! तभी मेरे मन में ख़याल आया कि भगत सिंह की रचनाओं की प्रामाणिकता पर रोशनी डालने के लिए मैं दशकों से दस्तावेजों, लिखित रचनाओं, चित्रों आदि की तलाश करता रहा हूँ, और मैंने वह आमन्त्रण स्वीकार कर लिया; और अभी यह किताब प्रकाशित हुई है।।"
इस काम को पूरा करने के लिए उन्हें आमन्त्रित किसने किया और यह किताब जारी कब हुई, इस बारे में उन्होंने कुछ नहीं बताया है। लेकिन प्रकाशन विभाग (भारत सरकार) की आधिकारिक वेबसाइट से वास्तविस्ता का पता चल जाता है। इसकी योजना जनवरी, 2022 में बनी, 4 अगस्त, 2022 को एक ई-टेंडर जारी हुआ और 17 अगस्त को छपाई का काम दे दिया गया। प्रकाशन इसका नवम्बर में हुआ होगा। इसकी क़ीमत 895 भारतीय रुपए है और कवर पर लेखक का नाम चमन लाल लिखा है और अंदर छपे ब्यौरे के अनुसार इसका कॉपीराइट भी प्रोफ़ेसर साहब के पास ही है। फ़िलहाल इसका सजिल्द संस्करण ही उपलब्ध है।
पुस्तक के लोकार्पण का कोई रिकॉर्ड नहीं है लेकिन लेखक बताता है कि पहली चर्चा इस पर कब हुई। उनके अनुसार : "स्पोर्टर्स यूनिवर्सिटी, पटियाला के वाइस चांसलर लेफ्टिनेंट जनरल जे।एस। चीमा (सेवानिवृत्त) की ओर से मुझे एक कॉल आई। वे मुझे मिलिट्री लिटरेरी फ़ेस्टिवल में भगत सिंह पर केंद्रित एक परिचर्चा में शामिल होने के लिए बुला रहे थे। मेरे लिए यह कुछ हैरान करने वाली बात थी, क्योंकि वह फ़ेस्टिवल मुख्यतः सुरक्षा संबंधी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुस्तकों और अन्य सामग्री को लेकर था। परिचर्चा के अन्य भागीदारों में उन्होंने महावीर चक्र (वीर चक्र होना चाहिये) विजेता मेजर जनरल श्यौनान सिंह (सेवानिवृत्त) का नाम भी लिया जो भगत सिंह के भतीजे हैं... भगतसिह के नज़दीकी रिश्तेदारों में वे ही हैं जिन्होने भगत सिंह और उनके विचारों के बारे में काफ़ी अध्ययन किया है। [श्यौनान सिंह] के पिता और भगत सिंह के छोटे भाई, रणबीर सिंह ने इस महान क्रांतिकारी की उर्दू में एक जीवनी भी लिखी है!"
अख़बारों से पता चला कि मिलिट्री लिटरेचर फ़ेस्टिवल के अंतिम दिन प्रोफ़ेसर साहब ने दुनिया की चौथी सबसे ताक़तवर सेना के उच्च अधिकारियों को बताया कि "भगत सिंह एक समाजवादी क्रांतिकारी थे... उन्हें सिर्फ़ देशभक्त और निडर कहकर उनके क़द को काम करने की कोशिशें की जाती हैं... सरकारों की दिलचस्पी सिर्फ़ उनकी कहानियों और तस्वीरों में ही है।" (टाइम्स ऑफ़ इंडिया, चंडीगढ़, 5 दिसम्बर)।
भारतीय सेना भगत सिंह को लेकर चर्चा करे या उनकी वीरता पर पुस्तकों का लोकार्पण करे, इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है! लेकिन यह सचमुच 'हैरान करने वाली' (जो शब्दावली प्रोफ़ेसर साहब ने स्वयं इस्तेमाल की है) बात है कि सेना के अधिकारियों के सामने उन्हें वह कहने कैसे दिया गया जो उन्होंने कहा। यह तभी संभव है, जबकि भारतीय सेना राज्य/सरकार के एक सशस्त्र अंग की बजाय जनता की सेना के रूप में ख़ुद को बदल रही हो।
वास्तविकता यह है कि वह सम्पन्न अभिजात वर्ग के हितों के पोषण के लिए प्रतिबद्ध है जिनका मानना है कि इंक़लाब ज़िंदाबाद का नारा हिंसा सिखाता है। यह वही शासक वर्ग हैं जो भगत सिंह और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जान देने वाले बाक़ी लोगों को शहीद का दर्जा तक नहीं देना चाहते। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि भगत सिंह की रचनाओं को संग्रहालयों और अभिलेखागारों में तालों में रखा गया है लेकिन उन्हें स्कूल या यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रमों में पढ़ाई के लिये शामिल नहीं किया गया है।
यह दुखद है कि मिलिट्री लिटरेचर फ़ेस्टिवल में भगत सिंह के जीवनीकार की हैसियत से प्रोफ़ेसर साहब ने उस पुस्तक को भुला दिया जिसे भगत सिंह ने जेल में रहते हुए पढ़ा था। वह किताब है जर्मन क्रांतिकारी विद्वान कार्ल लीब्नेख्त (1871-1919) द्वारा लिखित 'मिलितरिज़्म मिलिट्रीज़्म एंड एंटी-मिलिट्रीज़्म' (1907)। जर्मनी के प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग ने 15 जनवरी, 1919 को रोज़ा लक्जमबर्ग के साथ कार्ल की भी हत्या करा दी थी।
इस किताब में उन्होंने जर्मनी ही नहीं, बल्कि पूरे यूरोप के अपने क्रांतिकारी आंदोलनों से जुड़े अनुभवों के साथ अकादमिक शोध के आधार पर पूँजीवाद के परदे में छुपे सैन्यवाद की जड़ों की खोज की थी और प्रथम विश्वयुद्ध के ख़तरों के प्रति लोगों को आगाह किया था। कार्ल के अनुसार सैन्यवाद का मक़सद सिर्फ़ विदेशी ताक़तों से अपनी भूमि की सुरक्षा नहीं होता, वह उपनिवेशों को नियंत्रित भी करता है और श्रमिक वर्ग, किसानों और युवा आंदोलनों को आंतरिक शत्रु मानकर उनका दमन भी करता है।
'सैन्यवाद के पाप' शीर्षक एक अध्याय में कार्ल बताते हैं कि सैन्यवाद के दौरान किस तरह सैनिकों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है; किस तरह उसका आर्थिक भार जनसाधारण को वहन करना पड़ता है, हड़तालों के विरुद्ध कैसे वह 'तलवार और राइफ़ल' का उपयोग करता है और 'राजनीतिक संघर्ष में उसे एक हथियार के रूप में सर्वहारा के ख़िलाफ़' कैसे इस्तेमाल किया जाता है। वे इसे 'शांति के लिए' और 'सर्वहारा क्रांति के लिए ख़तरा' बताते हैं। पुस्तक का अंत सैन्यवाद से लड़ने के तरीक़ों की एक सूची के साथ होता है।
हमें यह मानने की बेवकूफ़ी नहीं करनी चाहिए कि भारतीय सैन्य तंत्र समाजवादी क्रांतिकारी भगत सिंह को गले लगाने जा रहा है जिनके लिए 'साम्राज्यवाद का पतन' और 'इंक़लाब ज़िंदाबाद', दोनों की बराबर अहमियत थी। प्रोफ़ेसर साहब को पंजाब में आयोजित एक सैनिक-साहित्यिक आयोजन में भगत सिंह पर बोलने के लिए दावत इसलिए दी गई, क्योंकि साल-भर चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन (2020-21) के दौरान भगत सिंह के चित्रों और उनके लेखन को मोदी सरकार की तमाम दमनकारी नीतियों के विरुद्ध एक प्रमुख औज़ार के रूप में प्रयोग किया गया था। इसलिए अब ज़रूरी था कि भगत सिंह के विचारों की क्रांतिकारी धार को कुंद कर दिया जाए और उन्हें एक ऐसे नायक में बदल दिया जाए जिसने बिना यह सवाल किए देश के लिए जान न्यौछावर कर दी कि देश आख़िर है किसका!
मेरे लिए यह मानना मुश्किल है कि प्रोफ़ेसर चमन लाल को ऐसा कोई भ्रम रहा होगा कि वे परिचर्चा के भागीदारों या अपने मेज़बानों (जो आमतौर पर भारतीय सेना के बड़े अधिकारी थे) का ह्रदय-परिवर्तन करने वाले हैं। इसी साहित्योत्सव के आसपास आई भगत सिंह पर आधारित उनकी चित्रमय पुस्तक से उनकी ख्याति और गरिमा निश्चय ही और बढ़ेगी, भागात सिंह के लेखन और तस्वीरों को बेचने के लिये बतौर रॉयल्टी मोटी रक़्म मिलेगी, हो सकता है भगत सिंह के अधिकारी विशेषज्ञ के रूप में उनका नाम गिनीज़ बुक में भी आ जाए!
यहाँ मुझे एक गंभीर नैतिक मसला भी दिखाई देता है जिसका ताल्लुक़ भगत सिंह के लेखन, उनके उस दौर के चित्रों और अन्य दस्तावेजों के अलावा उनके साथियों और परिवार से भी है। प्रोफ़ेसर साहब भगत सिंह के लेखन और तत्कालीन सामग्री का संकलन/प्रस्तुतीकरण पुस्तकों के रूप में करके उनका कॉपीराइट अपने नाम करते रहे हैं। यह भी कोई नहीं जानता कि भारत सरकार के प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित किताबों में, जिनका संपादन प्रोफ़ेसर साहब ने किया है, किसने किस अधिकार के तहत कॉपीराइट सरकार को दे दिया गया है।
क्रांतिकारी नैतिकता ही नहीं, बुर्जुआ नैतिकता भी इतना तो कहती ही है कि अगर भगत सिंह के लेखन पर उनके वंशज अपना कोई दावा नहीं कर रहे (और यह उनका बड़प्पन है) तो फिर उनके लेखन पर एकाधिकार प्रोफ़ेसर साहब का कैसे हो गया! भगत सिंह के दस्तावेज़ों और उनसे जुड़ी सामग्री पर उन सबका हक़ बनता है जो उन्हें प्यार करते हैं, उनके रास्ते पर चलते हैं। प्रोफ़ेसर साहब ज़्यादा से ज़्यादा उन किताबों की भूमिकाओं पर कॉपीराइट का दावा कर सकते हैं जो उन्होंने लिखी हैं। यहाँ मुझे 'भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़' शीर्षक हिन्दी पुस्तक का हवाला देना उचित लगता है जिसे भगत सिंह के भांजे डा। जगमोहन सिंह और प्रोफ़ेसर चमन लाल ने संयुक्त रूप से सम्पादित किया था। उसका कॉपीराइट उस समिति को गया था जिसका गठन भगत सिंह से सम्बन्धित सामग्री की खोजबीन के लिए किया गया था।
अपने इस आलेख को समाप्त करते हुए मैं प्रोफ़ेसर चमन लाल को याद कराना चाहूँगा कि भगत सिंह को बेचने के अपने जोश के चलते वे उसी श्रेणी में आ पहुँचे हैं जिसका ज़िक्र इस आलेख के शुरू में उद्धृत अंश में लेनिन ने किया है। चंडीगढ़ के सैनिक साहित्य-उत्सव के साथ आई उनकी ताज़ा किताब भगत सिंह को एक 'लीजेंड' के रूप में प्रस्तुत करती है। यह देखकर एक झटका लगता है।
चमन लाल जी ख़ुद भाषा के ज्ञाता हैं, और निश्चय ही जानते होंगे कि 'लीजेंड' का सही-सही अर्थ क्या होता है। हिन्दी में इसे इस तरह परिभाषित किया गया है—'एक प्राचीन कथा जिसका सत्य या असत्य होना प्रासंगिक नहीं है।' शासक वर्ग को ऐसा ही भगत सिंह चाहिए जो कभी अतीत में हुआ था, जिसे एक संत के रूप में पूजा जा सकता है लेकिन वर्तमान के लिए उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। अपनी क्रांतिकारी धार से रहित एक नख-दन्तविहीन मूर्ति, जिसका वर्णन लेनिन ने किया था। सत्ताधारियों को इसी तरह का भगत सिंह चाहिए, और प्रोफ़ेसर चमन लाल उन्हें ऐसा भगत सिंह उपलब्ध करा रहे हैं।
('द ट्रिब्यून' में प्रोफ़ेसर चमन लाल द्वारा लिखित उपरोक्त आलेख मुझे 19 दिसम्बर को मिला। इसके प्रति अपना विरोध जताते हुए मैंने फ़ौरन एक टिप्पणी उन्हें लिखी जिस में कहा गया था: "यक़ीन नहीं होता कि आप भी इसमें शामिल हैं!" इसका कोई जवाब मुझे उनकी तरफ़ से नहीं मिला तो मैंने यह लेख लिखने का फ़ैसला किया।)