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उत्तराखंड का रैणी गांव जो रहा है प्रसिद्ध चिपको आंदोलन का घर, आज जूझ रहा अपना अस्तित्व बचाने को
(इतिहास में दर्ज गौरा देवी का गांव रैणी अब बन जायेगा इतिहास का ही दस्तावेज)
सीमा जावेद की रिपोर्ट
जनज्वार। उत्तराखण्ड के चमोली जिले का रैणी गांव, जहाँ भारत के सबसे प्रसिद्ध वन संरक्षण आंदोलन 'चिपको आंदोलन' की शुरुआत हुई थी, अब अपने निवासियों के रहने के लिए बहुत खतरनाक जगह बन गया है। उत्तराखंड के चमोली ज़िले का रैणी गांव संकट की चपेट में है, जिसमें बीसियों लैंडस्लाइड (भूस्खलन) और फ़्लैश फ्लड (अचानक आई बाढ़) जब तब होते जा रहे हैं।
हाल ही में 1973 में चिपको आंदोलन का नेतृत्व करने वाली गौरा देवी की प्रतिमा को रैणी गांव से हटाकर एक सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया था। शोक व्यक्त करते हुए, ग्रामीणों को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कभी पारिस्थितिक चेतना के लिए वैश्विक मान्यता प्राप्त करने वाले रैणी गांव को अब अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
अलकनंदा नदी पर अवालांच (हिमस्खलन) और एक ग्लेशियर के अलग होने के बाद, 7 फरवरी, 2021 को रैणी गांव में आई भयंकर फ़्लैश फ्लड्स से ग्रामीणों का उबरना अभी बाक़ी है। बर्फ, पानी, बोल्डरों और सिल्ट (गाद) का विशाल द्रव्यमान ऋषिगंगा में नीचे बह गया, और इससे पहले 13 MW (मेगावाट) की निजी जलविद्युत परियोजना को नुकसान पहुँचाया और फिर और नीचे धौलीगंगा नदी में बह कर एनटीपीसी (NTPC) के स्वामित्व वाली 520 मेगावाट की तपोवन- विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना को डूबाया और दलदल में फँसा दिया।
14 जून को क्षेत्र में लगातार बारिश ग्रामीणों के लिए दुःस्वप्न वापस ले आयी। लगातार तीन दिनों से हो रही मूसलाधार बारिश से ऋषिगंगा नदी सूज गयी थी, जिससे गांव के नीचे से सॉयल इरोजन (मृदा अपरदन) हुआ। इससे कई घरों में बड़ी दरारें आ गई, जिससे ग्रामीणों में दहशत फैल गई।
बताया जा रहा है कि रैणी गांव के नीचे जोशीमठ-मलारी मार्ग का एक बड़ा हिस्सा धंस गया, जिससे चमोली ज़िले के एक दर्जन से अधिक बॉर्डर गांवों से संपर्क टूट गया। रैणी के प्राकृतिक आपदाओं की चपेट में आने के साथ, वहां के रहने वाले लोग इवेक्युएशन की मांग कर रहे हैं और सुरक्षित स्थान पर पुनर्वास के लिए दबाव डाल रहे हैं। इसे संबोधित करने के लिए, उत्तराखंड राज्य सरकार ने गाँव के सर्वेक्षण के लिए जियोलॉजिस्टों (भूवैज्ञानिकों) की एक टीम नियुक्त की थी, केवल यह घोषित करने के लिए कि यह क्षेत्र प्राकृतिक आपदाओं से काफ़ी प्रभावित था। हर घटना के साथ अलकनंदा नदी द्वारा नदी तट का इरोजन (क्षरण) होता है और नदी गांव के और क़रीब खिसकती है।
आपदा प्रबंधन अधिकारी नंद किशोर जोशी के अनुसार, रैणी गांव के निचले इलाक़े, जिनमें करीब 55 परिवार रहते हैं, इंसानो बसने के लायक़ नहीं हैं। इन परिवारों के सुभाई गांव में पुनर्वास की संभावना है।
हालांकि अभी यह पता नहीं चल पाया है कि इसकी वजह जलवायु परिवर्तन है या मानव निर्मित विनाश। हालांकि विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि रैणी का दुर्भाग्य इन सभी कारकों का संयोजन हैं। सिर्फ मौसम ही नहीं, रैणी का रणनीतिक स्थान भी इसे एक निहायत ही महत्वपूर्ण क्षेत्र बनाता है। रैणी भारत-तिब्बत बॉर्डर के चमोली ज़िले में ख़ूब गहराई में स्थित है, जो इसे बॉर्डर क्षेत्रों के लिए एक आदर्श कनेक्शन बनाता है।
बदलते जलवायु से किस प्रकार क्षेत्र में स्थानीय मौसम प्रणालियों प्रभावित हो रही हैं
मौसम विज्ञानियों और जियोलॉजिकल (भूवैज्ञानिक) विशेषज्ञों के बीच आम सहमति है कि हिमालयी राज्य जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की फायरिंग रेंज में है। स्काईमेट वेदर के मौसम विज्ञानी महेश पलावत के अनुसार, "लगातार बारिश, क्लाउड बर्स्ट, फ़्लैश फ्लड, लैंडस्लाइड और लैंडस्लाइड की आवृत्ति में तेज़ वृद्धि और तीव्रता में वृद्धि के साथ-साथ राज्य भर में चरम मौसम की घटनाओं में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। वनों की कटाई भी इन आपदाओं का प्रमुख कारण रही है।"
चमोली और बागेश्वर जिलों में 1 जून से, ख़ासकर 9-22 जून से, मूसलाधार बारिश हुई है। फिलहाल दोनों जिलों में भारी अधिकतम बारिश की सूचना है। बागेश्वर में 1 जून से 27 जुलाई तक आश्चर्यजनक कुल 901.3 mm बारिश के साथ 175% अधिक बारिश दर्ज की गई, जबकि सामान्य 327.9 mm है। इसी तरह, चमोली में 109% अतिरिक्त बारिश हुई है, जिसमें अब तक मौसम में 561.8 mm बारिश हुई है, जबकि सामान्य बारिश 268.9 mm है।
चमोली जिले में 9-15 जून के सप्ताह में 423% अधिक बारिश हुई, और 23-30 जून के बाद के सप्ताह में भी बहुत ही भारी मात्रा में बारिश, 863% आधिक, देखी गई।
इस तथ्य के साथ तालमेल बिठाते हुए, केंद्रीय जल आयोग के निदेशक-बाढ़ पूर्वानुमान और मॉनिटरिंग, शरत चंद्र ने कहा, "हिमालयी प्रणालियाँ बहुत युवा और नाज़ुक हैं जो उन्हें अस्थिर बनता हैं। पिछले दिनों के दौरान जो बारिश दर्ज की जाती थी, अब कुछ ही दिनों में उससे बहुत बढ़ जाती है। इससे फ़्लैश फ्लडिंग और लैंडस्लाइड की घटनाओं में वृद्धि हुई है, जिससे यह क्षेत्र प्राकृतिक आपदाओं के प्रति बहुत भेद्य हो गया है। यदि लैंडस्लाइड नदी की धारा में नीचे तक आता है, तो इससे बाढ़ की संभावना बढ़ जाती है। इसके अलावा, व्यावसायीकरण और शहरीकरण से मिट्टी की इंफिल्ट्रेशन (घुसपैठ) क्षमता में कमी आई है, जिसके परिणामस्वरूप बाढ़ आती है।
इसी तरह के विचारों का हवाला देते हुए, AVM जी.पी. शर्मा, अध्यक्ष - मौसम विज्ञान और जलवायु परिवर्तन, स्काईमेट वेदर ने कहा, "उत्तराखंड के पहाड़ पारिस्थितिक रूप से बहुत नाज़ुक हैं। उसके ऊपर, वनों की कटाई, तेज़ी से होने वाला शहरीकरण और लगातार बढ़ते निर्माण कार्य ने स्थिति को और भी बदतर बना दिया है। राज्य पहले से ही प्राकृतिक आपदाओं की चपेट में है और जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग का ज़रा सा प्रभाव बड़े पैमाने पर विनाश का कारण बन सकता है। हमने क्लाउड बर्स्ट, फ़्लैश फ्लड्स, लैंडस्लाइड या ग्लेशियल आउटबर्स्ट (हिमनदों विस्फोट) जैसी चरम मौसम की घटनाओं के ज़रिये से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को देखना शुरू ही कर दिया है।
यदि वैश्विक तापमान में वृद्धि अनियंत्रित रहती है, तो हम मानसून की वर्षा में वृद्धि देखेंगे। और सटीक तरीक़े से यही बात कही जाए तो, हम चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि देखेंगे, जो पहाड़ी राज्यों के लिए बहुत ख़तरनाक हो सकती हैं।"
"पिछले कुछ वर्षों में पर्यटकों की आमद में कई गुना वृद्धि हुई है। मोटे तौर पर, राज्य में प्रति वर्ष लगभग 6 लाख पर्यटक आते थे जो अब बढ़कर 15 लाख से अधिक हो गए हैं। इसके साथ, वाहनों के प्रदूषण, नदी प्रदूषण, निर्माण गतिविधियों और व्यावसायीकरण में वृद्धि हुई है। जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण और सड़क चौड़ीकरण गतिविधियों का इस क्षेत्र पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। इन सभी कारकों ने वर्षा के पैटर्न में बदलाव के साथ-साथ तापमान में वृद्धि में योगदान दिया है। अब हम देखते हैं कि लगातार बारिश होती है जो 2-3 दिनों तक चलती है, जबकि कई दिनों ये बिलकुल भी नहीं होती है।
इसके अलावा, 1980 और 90 के दशक के दौरान, जोशीमठ क्षेत्र में 20-25 दिसंबर के बीच बर्फबारी एक प्रमुख विशेषता थी। लेकिन यह पिछले वर्षों में बदल गया है, यहां तक कि इस क्षेत्र में कई बार बर्फबारी होती ही नहीं है," स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ता अतुल सत्ती ने कहा।
IPCC के पांचवें असेसमेंट (आकलन) रिपोर्ट चक्र ने निष्कर्ष निकाला कि जलवायु प्रणाली पर मानव प्रभाव "स्पष्ट" है। तब से, एट्रिब्यूशन - जलवायु विज्ञान का उप-क्षेत्र जो देखता है कि कैसे (और कितना) मानव गतिविधियों से जलवायु परिवर्तन होता है - पर साहित्य का काफ़ी विस्तार हुआ है। आज, वैज्ञानिक पहले से कहीं अधिक निश्चित हैं कि जलवायु परिवर्तन हमारे कारण हो रहा है। हाल के एक अध्ययन में पाया गया है कि पूर्व-औद्योगिक काल से सभी वार्मिंग का कारण इंसान हैं, इस बहस के लिए कोई जगह नहीं न छोड़ते हुए कि जलवायु क्यों बदल रहा है। AR5 के बाद से, क्षेत्रीय प्रभावों पर भी अधिक ध्यान दिया गया है, वैज्ञानिकों ने अपने मॉडलों और वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव क्षेत्रीय स्तर पर कैसे दिखेंगे की समझ में सुधार किया है।
क्षेत्र पर पीछे हटने वाले ग्लेशियरों का जियोलाजिकल (भूवैज्ञानिक) प्रभाव
उच्च हिमालय कभी बहुत सारे ग्लेशियरों का घर था, जो अब ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण पीछे हट गए हैं। ग्लेशियर बर्फ, मिट्टी और चट्टानों का एक गतिशील द्रव्यमान है और इस लिए इसमें बहुत सारे ढीले सेडीमेंट्स (तलछट) होते हैं। जियोलॉजिस्टों (भूवैज्ञानिकों) के अनुसार, पीछे हटने वाले ग्लेशियरों ने अपने पीछे असीमित सेडीमेंट्स छोड़ दीये हैं, जिसमें हिमालय की ऊंची पहुंच में पृथ्वी और चट्टानों का अस्थिर मिश्रण होता है। ऐसे मामलों में, कम वर्षा भी बोल्डर और मलबे को नीचे की ओर ले जाने के लिए पर्याप्त है। इसलिए उच्च हिमालयी क्षेत्र सेडीमेंट्स की उच्च सांद्रता के कारण डैम और टनल (बांधों और सुरंगों) के लिए बहुत अनुपयुक्त है।
रैणी गाँव समुद्र तल से 3,700 मीटर की ऊँचाई पर ऋषि गंगा नदी के ऊपरी ढलान पर स्थित है। इस तरह की उच्च ढाल के साथ, सॉयल इरोजन और लैंडस्लाइड्स की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। इस ऊंचाई पर ग्रेविटेशनल (गुरुत्वाकर्षण) प्रभाव भी बढ़ जाता है, जिससे अधिक नुकसान होता है और नदी के किनारे इरोड हो जाते हैं। पिछले कुछ महीनों में रैणी गाँव के पास देखि गई घटनाएँ इन तथ्यों का सबूत हैं।
वर्ष 2013 की उत्तराखंड आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एक विशेषज्ञ समिति ने इस क्षेत्र को हाइली सेंसिटिव ज़ोन (अत्यधिक भेद्य क्षेत्र) बताते हुए 2,000 मीटर की ऊंचाई से ऊपर डैम (बांध) के निर्माण के ख़िलाफ़ ज़ोरदार सिफारिश की थी। पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के निदेशक और सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति के अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने कहा, "जलविद्युत संयंत्रों का रिवर ईकोसिस्टम (नदी पारिस्थितिकी तंत्र), जियोलॉजिकल एनवायरनमेंट (भूवैज्ञानिक पर्यावरण), वन और टेरेस्ट्रियल बायोडाइवर्सिटी (स्थलीय जैव विविधता) और सामाजिक बुनियादी ढांचे पर गंभीर प्रभाव पड़ा है।
वास्तव में, 2,000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले पैराग्लेशियल ज़ोन में परियोजनाएं नदी के प्रवाह में बाधा डालती हैं और खतरनाक होती हैं। पर्यावरण मानकों के उल्लंघन को देखते हुए और मलबे, संचित गंदगी के निपटान की चुनौतियों को देखते हुए ऐसी परियोजनाओं को विकसित करने का कोई सस्टेनेबल तरीक़ा नहीं है। हाल के अवालांच (हिमस्खलन) और 2013 के अनुभव से पता चलता है कि पैराग्लेशियल ज़ोन में डैम (बांध) नीचे के लोगों के लिए खतरा हैं। "
अनियोजित विकास की लागत
हिमालय युवा और नाज़ुक प्रकृति के हैं। चट्टान में जो दरारें और फ्रैक्चर बनाने से वो भविष्य में चौड़े हो सकते हैं और रॉकफॉल / स्लोप फेलियर (ढलान विफलता) ज़ोन बना सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि अन्थ्रोपोलॉजिकल (मानवशास्त्रीय) हस्तक्षेप ने इसे और बदतर कर दिया है। चाहे वह जल विद्युत संयंत्रों का विकास हो, सुरंगों का विकास हो या सड़कों की बनाई गई योजना का विकास हो। तोता घाटी का उदाहरण हमें चेतावनी देता है कि अगर स्थिर, कठोर चट्टानों के प्रभुत्व वाली घाटी की ढलानों की जियोलॉजिकल (भूवैज्ञानिक) नाज़ुकता की गंभीर रूप से जांच नहीं की जाती है, तो अभूतपूर्व स्लोप इंस्टेबिलिटी (ढलान अस्थिरता) से इलाक़े पर कैस्केडिंग (प्रपात की तरह गिरता हुआ) प्रभाव पड़ता है। स्लोप फेलियर (ढलान विफलता) एक ऐसी घटना है जिसमें वर्षा या भूकंप के प्रभाव में पृथ्वी की कमज़ोर हुई सेल्फ़-रीटेनेबिलिटी (आत्म-धारणीयता) के कारण एक स्लोप (ढलान) अचानक से ढह जाता है।
पहाड़ों में विस्फोट न केवल सड़क के साथ की ढलान को कमज़ोर करता है, बल्कि भारी उत्खनन द्वारा उत्पन्न विस्फोट का इम्पल्स (आवेग) और वाइब्रेशन (कंपन) संभवतः अपस्लोप (ऊपर की ओर) फैलता है। इस लिए पहाड़ों में बड़े पैमाने पर मकैनिकल (यांत्रिक) उत्खनन और ब्लास्टिंग करने से पहले जियोलॉजिस्ट (भूवैज्ञानिक) जियोलॉजिकल (भूवैज्ञानिक) और स्ट्रक्चरल स्टेबिलिटी (संरचनात्मक स्थिरता) के एक महत्वपूर्ण मूल्यांकन की सलाह देते हैं।
HNB गढ़वाल विश्वविद्यालय के जियोलॉजी विभाग के प्रमुख प्रोफेसर वाई. पी. सुंदरियाल ने कहा, "उच्च हिमालय, दोनों जलवायु और टेक्टोनिक (विवर्तनिक) रूप से, अत्यधिक संवेदनशील हैं, इतने ज़्यादा कि पहले रुख़ में मेगा हाइड्रो-प्रोजेक्ट्स के निर्माण से बचना चाहिए। या फिर वे छोटी क्षमता के होने चाहिए। दूसरे, सड़कों का निर्माण सभी वैज्ञानिक तकनीकों से किया जाना चाहिए। वर्तमान में, हम देखते हैं कि बिना स्लोप स्टेबिलिटी (ढलान की स्थिरता), अच्छी गुणवत्ता वाली रिटेनिंग वॉल और रॉक बोल्टिंग जैसे उचित उपाय किए बिना सड़कों को बनाया या चौड़ा किया जा रहा है। ये सभी उपाय लैंडस्लाइड से होने वाले नुकसान को कुछ हद तक सीमित कर सकते हैं।"
प्रोफेसर सुंदरियाल ने यह भी कहा, "योजना और कार्यान्वयन के बीच एक बड़ा अंतर है। उदाहरण के लिए, वर्षा के पैटर्न बदल रहे हैं, चरम मौसम की घटनाओं के साथ तापमान बढ़ रहा है। नीति निर्माताओं को क्षेत्र की जियोलॉजी से अच्छी तरह वाक़िफ़ होना चाहिए। विकास के तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन जलविद्युत संयंत्र, विशेष रूप से उच्च हिमालय में, कम क्षमता वाले होने चाहिए। नीति और परियोजना कार्यान्वयन में स्थानीय जियोलॉजिस्ट शामिल होने चाहिए जो इलाक़े को और यह कैसे प्रतिक्रिया करता है, इसको अच्छी तरह से समझते हैं।"
एनटीपीसी (NTPC) के स्वामित्व वाली 520 MW की तपोवन-विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना 7 फरवरी को भारी बाढ़ में बह गई थी और इसको लगभग 1500 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था। इसके अलावा, राज्य सरकार द्वारा संचालित टीएचडीसी (THDC) इंडिया लिमिटेड की 444 MW की पीपल कोटि जलविद्युत परियोजना, जेपी ग्रुप के स्वामित्व वाली 400 MW की विष्णुप्रयाग परियोजना और कुंदन ग्रुप की 130 MW की ऋषि गंगा परियोजना को भी चमोली आपदा में नुकसान हुआ।
बहुत लंबे समय से, उत्तराखंड राज्य, जहाँ प्रचुर मात्रा में जल उपलब्ध है, अपनी नदियों को संपत्ति में बदलने की कोशिश कर रहा है। दरअसल, उत्तराखंड के एक प्रतिनिधि ने 7 फरवरी को चमोली आपदा के बाद बनी संसदीय समिति को बताया कि 'सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा या अरिन्यूएबल ऊर्जा का कोई अन्य रूप हमेशा छोटा होता जा रहा है। हमारे लिए, हिमालय में एक राज्य के रूप में, हाइड्रो हमारी मुख्य हिस्सेदारी है।' इस सिद्धांत ने हिमालय में जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पर्यावरण मंज़ूरी प्रक्रियाओं और जोखिम मूल्यांकन मानदंडों को कमज़ोर कर दिया है।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की सीनियर फेलो मंजू मेनन ने कहा, "रिन्यूएबल ऊर्जा (RE/आरई) टैग वित्तीय अभिजात वर्ग और ऊर्जा पूंजी के लिए हाइड्रो क्षेत्र में नए निवेश के अवसर पैदा करने का एक साधन है। निजी क्षेत्र से निवेश आकर्षित करने के प्रयास में, जो "रिमोट (दूरस्थ)" हिमालयी स्थानों में आगे कदम बढ़ाने के लिए अनिच्छुक हैं, सरकारी एजेंसियां सार्वजनिक लागत पर "इनेबलिंग इंफ्रास्ट्रक्चर (सक्षम बुनियादी ढांचे)" का निर्माण करने के लिए तैयार हैं।
RE के अवसरवादी उपयोग और कैसे निजी हाइड्रो-वित्त का विकास डैम (बांधों) के सामाजिक और पर्यावरणीय जोखिमों के असेसमेंट को ओवरटेक कर लेता है, संसदीय समिति की रिपोर्ट इनका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। हालांकि समिति की रिपोर्ट दर्ज करती है कि कमज़ोर हिमालयी जियोलॉजी के परिणामस्वरूप "जियोलॉजिकल सरप्राइज़ेज़ (भूवैज्ञानिक अचम्भे)", "प्रौद्योगिकी या विशेषज्ञता की कमी, लैंडस्लाइड, बाढ़ और क्लाउड बर्स्ट जैसी प्राकृतिक आपदाएं निर्माण कार्यक्रम में गंभीर सेटबैक का कारण बनती हैं", समिति ने इन्हें ऐसे समस्याओं के रूप में नहीं देखा जिन की गहन जांच की आवश्यकता हो। इसके बजाय, रिपोर्ट मौजूदा और संभावित डैम-बिल्डरों के वित्तीय जोखिम को कम करने पर अपना ध्यान समर्पित करती है।
मंजू मेनन ने यह भी कहा, "बड़े बांधों के सामाजिक और पर्यावरणीय जोखिम अच्छी तरह से प्रलेखित हैं। हिमालयी नदियों के विशेषज्ञ दशकों से इन जोखिमों के बारे में चेतावनी देते रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से इन परियोजनाओं के लिए एनवीरोंमेन्टल इम्पैक्ट असेसमेंट (पर्यावरणीय प्रभाव आकलन) (EIA) इस जानकारी को या तो दबा देते हैं या कम कर देते हैं, ताकि परियोजनाओं को मंजूरी मिल सके। इन सभी अनुमानित जोखिमों को देखते हुए, विकास और पर्यावरण नीतियों को वास्तव में इन लोगों को घोर ख़तरे में डालने वाले विकल्पों का चयन नहीं करना चाहिए। यह राज्य सरकारों, अदालतों और संसद में हमारे सभी निर्णय निर्माताओं के लिए अपने हिमालयी बांधों के लिए समर्थन की समीक्षा करने का क्षण है।"
इसके अलावा, क्षेत्र के लिए जोखिमों की सूची में जंगल की आग और क्लाउड बर्स्ट नवीनतम जुड़े गए हैं। हेमवती नंदन बहुगुणा (HNB) गढ़वाल विश्वविद्यालय और IIT कानपुर द्वारा एक संयुक्त अध्ययन किया गया, जिसमें पाया गया कि- "गढ़वाल, उत्तराखंड के उत्तम हिमालयी क्षेत्र पर क्लाउड कंडेनसेशन न्यूक्लिाई (CCN) सांद्रता की भिन्नता का पहला सतह माप।"
अध्ययन में छोटे कणों के बनने, बादल की एक बूंद के आकार जिस पर जल वाष्प संघनित होकर बादलों का निर्माण होता है और जंगल की आग के बीच एक संबंध पाया गया। CCN नामक ऐसे कणों की मात्रा में जंगल की आग की घटनाओं से जुड़ी पीक (शिखर) पाई गईं। पूरे अवलोकन अवधि के उच्चतम CCN सांद्रता (3842.9 ± 2513 cm-3) मान मई 2019 में देखे गए थे। यह उत्तराखंड और पास के सिंधु-गंगा के मैदानी क्षेत्रों में भारी आग की गतिविधियों से काफ़ी प्रभावित था।
पर्याप्त भूमि की कमी की वजह से कम कार्बन फुटप्रिंट वाले लोग सबसे अधिक प्रभावित हुए
इन प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि ने रैणी गांव के स्थानीय निवासियों को भयभीत कर दिया है। फरवरी में फ़्लैश फ्लडों ने न केवल मानव और संपत्ति के नुकसान के मामले में कहर बरपाया, बल्कि अंतरराष्ट्रीय सीमा की ओर जाने वाले एरियल हाईवे (हवाई राजमार्ग) को भी बाधित कर दिया था। इसके बाद, बॉर्डर रोड आर्गेनाइज़ेशन (सीमा सड़क संगठन) (BRO) ने गांव के ठीक ऊपर एक सड़क का निर्माण किया, जिसे आगे राष्ट्रीय राजमार्ग में बदलने की उनकी योजना है। रिपोर्ट किया गया है कि 40 मीटर लंबाई और 10 मीटर चौड़ाई की सड़क रैणी गांव की कृषि भूमि पर बनाई गई है।
जियोलॉजिस्टों ने इस क्षेत्र को इंसानों के बसने के लिए अनुचित घोषित किया है। इन सभी घटनाक्रमों के कारण, गांव वाले पुनर्वास की मांग किसी अन्य स्थान पर कर रहे हैं, जहां वे सुरक्षित महसूस कर सकें। रिपोर्ट किया गया है कि राज्य के अधिकारियों ने सुभाई गांव को उनके स्थानांतरण के लिए चिह्नित किया है, जो रैणी से लगभग 5 किमी नीचे दक्षिण में है। पर यह काम आसान नहीं होगा।
जिला अधिकारियों के अनुसार, भूमि एक सीमित संसाधन है और इस लिए गांवों का स्थानांतरण आसान काम नहीं है। नंद किशोर जोशी, आपदा प्रबंधन अधिकारी, रैणी गांव ने कहा, "लोगों के एक झुंड को दूसरी जगह स्थानांतरित करने से सिंचाई, चराई और खेती की भूमि के साधनों पर भी प्रभाव पड़ता है जो फिर बड़ी संख्या में लोगों के बीच विभाजित हो जाती थी। इसलिए, हम प्रभावित परिवारों को 300-500 मीटर के दायरे में स्थानांतरित करने का प्रयास करेंगे, ताकि उन्हें कठिनाइयों का सामना न करना पड़े।"
उत्तराखंड राज्य की पुनर्वास नीति के अनुसार, ग्रामीणों को 360,000 रुपये का मुआवजा और 100 वर्ग फुट भूमि का आवंटन मिलने की संभावना है, लेकिन स्थानीय निवासियों का दावा है कि प्रशासन लोगों के लिए पर्याप्त काम नहीं करता रहा है। कई गांव वालों ने प्रशासनिक की समयोचित कार्रवाई की कमी के बारे में शिकायत करते हैं और कहा कि प्रदान की गई भूमि और मौद्रिक मुआवजा एक नए स्थान पर नए सिरे से शुरुआत के लिए पर्याप्त नहीं है।
रैणी गाँव के एक स्थानीय निवासी संजू कापरवान ने कहा, "ग्रामीण निवासी को पुनर्वास के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है। शुरुआत में स्थानीय प्रशासन चाहता था कि हम प्राथमिक विद्यालय में एक अस्थायी स्थान पर शिफ्ट हो जाएं, लेकिन यह हमारे मवेशियों के बग़ैर था। अगर हमारे मवेशियों को कुछ हो गया तो क्या होगा, तो नुकसान कौन उठाएगा। अब, उन्होंने हमें सुभाई गाँव के पास एक स्थान पर स्थानांतरित करने का फैसला किया है, लेकिन फिर से, जैसा कि हमने अन्य मामलों में देखा है, हमें आवंटित किया गया स्थान काफ़ी कम है। इसके अलावा हमें डर है कि यह फैसला सिर्फ कागजों पर ही न रह जाए। मानसून आ चूका है और हम हर रात इस इस डर में बिता रहे हैं कि क्या हम कल तक जीवित रहेंगे।"
राज्यभर में सैकड़ों लोग अभी भी उस ज़मीन के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसे उन्होंने खो दिया या जो नदी के झोंक, लगातार लैंडस्लाइड और निरंतर बारिश में बह गया। वास्तव में, सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि अधिकारियों द्वारा त्वरित प्रतिक्रिया के मामले में रैणी काफ़ी भाग्यशाली रहा है।
अतुल सती ने कहा, "रैणी पहला गाँव नहीं है जो राज्य में स्थानांतरण के लिए चर्चा में है। पिछले कुछ वर्षों में बीसियों गांवों का पुनर्वास किया गया है। दरअसल टिहरी डैम (बांध) के निर्माण के समय कम से कम 27 गांवों को स्थानांतरित करने के लिए मजबूर किया गया था, उन गांवों के लोग अभी भी संघर्ष कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, रैणी के ठीक ऊपर स्थित पेंग नाम का एक गाँव लगभग 13-14 साल पहले लम्बरी में स्थानांतरित कर दिया गया था। हालांकि, मुआवजे और प्रदान किए गए क्षेत्र से असंतुष्ट, ग्रामीण मौसम के अनुसार दो गांवों के बीच चक्कर लगाते रहते हैं। वे मानसून के दौरान लम्बरी गाँव में आते हैं जब लैंडस्लाइड का खतरा ज़्यादा होता है, लेकिन बरसात के मौसम के बाद वापस पेंग चले जाते हैं। ऐसी ही कहानी चाय गांव की है जिसे 2007 में मारवाड़ी चक पख गांव में फिर से बसाया गया था।"
उत्तराखंड राज्यभर के हजारों ग्रामीण पुनर्वास के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। रिपोर्ट किया गया है कि उत्तराखंड के 12 जिलों के आपदा संभावित क्षेत्रों में 395 गांवों की पहचान की गई है जो सुरक्षित क्षेत्रों में स्थानांतरित होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। पूरी प्रक्रिया में 10,000 करोड़ रुपये खर्च होने की संभावना है। पिथौरागढ़ ज़िले में सबसे अधिक 129 गांव, उसके बाद उत्तरकाशी में 62, चमोली में 61, बागेश्वर में 42, टिहरी में 33, पौड़ी में 26, रुद्रप्रयाग में 14, चंपावत में 10, अल्मोड़ा में 9, नैनीताल में 6, देहरादून में 2 गांव हैं और उधम सिंह नगर में 1।
सुरक्षा मुद्दे बनाम आपदाओं से बचना
उत्तराखंड चीन और नेपाल के पड़ोसी देशों के साथ एक लंबा बॉर्डर साझा करता है, जो इसे भू-राजनीतिक रूप से संवेदनशील स्थान बनाता है। चीन की उत्तराखंड के साथ 350 किलोमीटर की मिली हुई सीमा है, जबकि नेपाल की राज्य के साथ 275 किलोमीटर लंबी मिली हुई सीमा है। राज्य के 13 ज़िलों में से पांच बॉर्डर के ज़िले हैं। चीन चमोली और उत्तरकाशी के साथ सीमा साझा करता है, जबकि नेपाल उधम सिंह नगर और चंपावत के साथ सीमा साझा करता है। इस बीच पिथौरागढ़ चीन और नेपाल दोनों के साथ सीमा साझा करता है। पड़ोसी देशों के साथ चल रहे तनाव और क्षेत्रीय विवाद केवल हिमालयी राज्य की भेद्यता और इसके गांवों को स्थानांतरित करने की जटिलता को बढ़ाते हैं, जिससे राज्य के बुनियादी ढांचे और रहने की क्षमता को मज़बूत करना और भी ज़रूरी हो जाता है।
चीन के साथ बॉर्डर से रैणी की निकटता ने इसके महत्व और इसकी भेद्यता को भी बढ़ा दिया है। गांव के पास या अंदर सड़कों के चौड़ीकरण और नियमित मरम्मत या निर्माण पर किसी भी कीमत पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है। अधिकारियों के अनुसार रैणी गांव की सड़कें चमोली ज़िले के एक दर्जन बॉर्डर के गांवों से जुड़ती हैं। हाल ही में, 14 जून को, मूसलाधार बारिश से सड़क का एक बड़ा हिस्सा ढहना गया, जिससे सीमा पर सैनिकों के साथ संपर्क बाधित हो गया था।
प्रो सुंदरियाल बताते हैं, "यह मामला प्रमुख चिंता का विषय है और इस पर हमेशा तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हमें राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अपने बुनियादी ढांचे को मज़बूत करने की जरूरत है। पर हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि इतनी ऊंचाई पर सड़कों को चौड़ा करते समय स्लोप स्टेबिलिटी (ढलान की स्थिरता) और अच्छी गुणवत्ता वाली टिकाऊ दीवारों का ध्यान रखा जाना चाहिए, ताकि लैंडस्लाइडों से बचा जा सके।