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जनवाद को बेचते-बेचते अब कवि-लेखक खुद को बेचने लगे हैं : गिर्दा
गिरीश तिवारी 'गिरदा' : कबीर, नानक, बुल्लेशाह, त्रिलोचन, नागार्जुन की परंपरा के कवि
उत्तराखण्ड के जनकवि गिरीश तिवाड़ी 'गिरदा' से वरिष्ठ पत्रकार पीयूष पंत ने उनके निधन से ठीक पहले 2010 में ही एक खास बातचीत की थी. 22 तारीख को जनकवि 'गिरदा' का देहावसान हो गया। गिरदा यानी हिंदी के 'गिरीश तिवाड़ी' और कुमांऊनी के 'गिरदा'. अपनी बीमारी का इलाज कराने 'गिरदा' जब नैनीताल से दिल्ली आए थे तब पीयूष पंत से उनकी बातचीत हुई थी. पेश हैं उस महत्वपूर्ण साक्षात्कार के मुख्य अंश :
आज चारों तरफ खुद को भुनाने की होड़ लगी है. ऐसे में जन सरोकारों को ही अपने लेखन के केंद्र में बनाए रखना क्या मुश्किल नहीं लगता?
देखो भाई, ये होड़ कब नहीं थी. सामाजिक कर्म में ये होड़ हमेशा ही थी. हां, अंतर इतना था कि साहित्य में पहले यह होड़ गलाकाट न होकर लेखक की उत्कृष्टता पर आधारित थी. भई, ये क्यों भूलते हो कि जनवाद को बेचने की होड़ तो तब भी थी. हां, आज फर्क यह आ गया है कि अब साहित्यिक कर्म से जनता का मर्म गायब होता जा रहा है. भइया! ये कह लो कि जनवाद को बेचते-बेचते अब कवि-लेखक खुद को बेचने लगे हैं.
आप तो आज भी जनता से जुड़े मुद्दों, आम आदमी के जीवन संघर्षों, दुख-दर्दों और राजनेताओं के गिरते मूल्यों को अपने रचना कर्म का आधार बनाए हुए हैं? खासकर उत्तराखंड के संदर्भ में?
नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है. देख यार पीयूष! मैं ठैरा पहाड़ का एक आम आदमी, मैं उत्तराखंड में रहता हूं, मैंने अपनी भूमि को धन-धान्यपूर्ण देखा है, मैंने उस कोसी को देखा है जो पहाड़ के लोगों की जीवन रेखा रही है, जो न केवल यहां के लोगों की प्यास बुझाती रही है, खेतों को पानी देती रही है बल्कि पंचभूत में विलीन काया की राख को अपने आगोश में समाती रही है. आज वही कोसी सूख चुकी है, लोग अपने मृतकों की राख तक बहाने के लिए तरस जाते हैं. उन्हें शवदाह के लिए कोसों दूर जाना पड़ता है. उधर विकास के नाम पर नदियों पर बड़े बांध बनाने के चलते लोगों के लिए जल संकट अधिक गहरा गया है. रही-सही कसर उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पूरी हो गयी. कहां तो हमने सोचा था कि अलग राज्य का बनना हमारे लिए खुशहाली लेकर आएगा लेकिन हुआ इसका उल्टा. अब तो उत्तराखंड, नेताओं और ठेकेदारों की मिली-जुली लूट का चारागाह बन गया है.
सच कहता हूं यार! ये सब मुझे इतना कचोटता है कि मेरा दर्द मेरी कविताओं के रूप में उभर आता है.
शायद इसीलिए आपको उत्तराखंड का 'जनकवि' कहा जाता है?
अरे, नहीं, नहीं. ये तो लोगों का प्रेम है शायद. उन्हें लगता है कि मैं उनकी भाषा में उनके ही सरोकारों को अभिव्यक्ति दे रहा हूं.
क्या यही वजह है कि आपकी ज़्यादातर कविताएं कुमाऊंनी भाषा में हैं और लोक गीतों पर आधारित हैं?
यार, आखिर मैं भी तो उन्हीं लोगों में से ही हूं, उनकी भाषा ही मेरी भाषा है. और फिर अपनी भाषा में अभिव्यक्त किए गए उद्गार ज़्यादा सशक्त होते हैं.
वैसे तुझे बता दूं कि मैं वाचिक परंपरा का कवि हूं. मेरी कविताएं पढ़ने से ज्यादा सुनने के लिए हैं. हो सकता है कि मेरी कविताओं को पढ़ने से वो प्रभाव पैदा न हो सके, जो मेरे द्वारा उनका पाठ करने से या गाकर सुनाने से.
अच्छा, गिरदा, यह जो उत्तराखंड में नदियों को बचाने का आंदोलन चल रहा है, उसे आप किस तरह से देखते हैं?
यह एक सकारात्मक पहल है. पूरे उत्तराखंड में इसको लेकर 13 यात्राएं निकाली गयीं. आम मानस में चेतना तो विकसित हुई है. कुछ इसे आंदोलन कहते हैं, तो कुछ इसे एक अभियान कहते हैं. कई तरह की धाराएं हैं इसमें- सर्वोदयी धारा, गांधीवादी धारा, एनजीओवाली धारा. फिर रवि चोपड़ा है, राधा भट्ट हैं और सुरेश भाई हैं. तो कहीं न कहीं इन सबके अंतर्विरोध से मुझे डर लगता है. फिर भी मुझे लगता है कि आंदोलन आगे बढ़ता रहेगा.
कुछ समूह हैं जो समझदार हैं और आंदोलन को बचा ले जायेंगे. इन समूहों को समर्थन देना होगा लेकिन जो दलाली का काम कर रहे हैं या सरकार से संवाद की बात कर रहे हैं, उनसे बचना होगा. सबसे ज़रूरी यह है कि आपको इस आंदोलन में जनता को जोड़ना होगा क्योंकि सवाल तो जनता की रोजी-रोटी और जीवनयापन का है. साथ ही आंदोलन की सफलता के लिए यह भी ज़रूरी है कि जनसंघर्षों से जुड़े लोग आंदोलन से बराबर जुड़े रहें. गैर-आंदोलनकारी लोग या फंड के आधार पर प्राथमिकताएं तय करनेवाले लोग अगर एक बार हावी हो गए तो सच, आगे यह आंदोलन बिखर जायेगा. मैं तो कहता हूं कि अगर उत्तराखंड में नदी बचाओ आंदोलन को सफल बनाना है तो इसका नेतृत्व विचारवान महिलाओं के हाथ में होना चाहिए. इन महिलाओं का शिक्षित होना भी ज़रूरी है.
लेकिन किसी भी जनांदोलन की सफलता के लिए यह भी तो ज़रूरी है कि उसे व्यापक जन समर्थन मिले?
बिल्कुल ठीक, यह तो बहुत ज़रूरी है. जन समर्थन तो आंदोलन की ऊर्जा होता है. अच्छी बात यह है कि नदी आंदोलन के साथ जनता जुड़ती चली जा रही है. आंदोलन को लेकर पूरे उत्तराखंड में जो यात्राएं निकाली गयी, उनमें गांव के लोग खुद-ब-खुद शामिल होते चले गये. जहां कहीं भी सभाएं की गयीं, उनमें लोगों की भारी भीड़ देखी गयी.
अच्छा गिरदा, आंदोलन से हटकर आपकी कविताओं की बात की जाए तो आपकी ज़्यादातर कविताओं में उत्तराखंड की ही गूंज सुनाई देती है. जैसे कुली बेगार प्रथा पर आपकी कविता- 'मुल्क कुमाऊँ का सुणि लिया यारों, जन दिया कुली बेगार' या कोसी पर लिखी कविता- 'कोशी हरैगे' या फिर 'चलो नदी तटवार चलो रे'. इसी तरह नदियों के निजीकरण पर आपकी कविता- 'इस व्योपारी को प्यास बहुत है' आदि?
यार पीयूष, तू कैसी बात कर रहा है! अब मेरी जमीन तो उत्तराखंड ही ठैरी ना. आखिर मैं भी तो इन्हीं लोगों में से हूं, इनकी समस्याएं मेरी भी तो हैं. बस, इनके दुख-दर्द को मैं कविताओं में अभिव्यक्त कर देता हूं. कविताएं जन को प्रेरणा भी देती हैं और अभिव्यक्ति भी.
आपको अपनी कौन सी कविता सबसे अच्छी लगती है?
यार तूने तो बहुत कठिन सवाल पूछ डाला. अपने बच्चों में कोई फ़र्क करता है क्या? वैसे मुझे अपनी कविता 'इस व्योपारी को प्यास बहुत है' अच्छी लगती है. 'चलो नदी तटवार चलो रे...' लोक संस्कृति पर आधारित है, इसमें लोगों को अपनी गूंज मिलती है.
अच्छा गिरदा, जन कविता की बात हो ही रही है तो यह भी बता दीजिए कि आज जनवादी साहित्य का अकाल क्यों पड़ गया है, जबकि परिस्थितियां काफी माफ़िक हैं?
कई कारण हैं. आज शिल्पगत विशेषताओं पर ज़्यादा ध्यान दिया जा रहा है. जन चेतना वाले लोग राजधानियों में काबिज़ हो गए हैं. भूमंडलीकरण के कारण पारिवारिक आवश्यकताएं बढ़ रही हैं, आर्थिक दबाव बढ़ रहे हैं, इसलिए जन अकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कम होती जा रही है. सबसे बड़ी बात तो ये है कि आज फ़कीरी करने के लिए कोई तैयार नहीं है, रचना कार्य के लिए फ़कीरी ज़रूरी है. दूसरा, संवेदनाएं भी कम हुई हैं. जब बंदरिया नचानेवाला ही नहीं है तो फिर बंदरिया कौन देगा.
आइये पढ़ते हैं गिरदा की तीन कवितायें
एक
कैसे कह दूं, इन सालों में,
कुछ भी नहीं घटा कुछ नहीं हुआ,
दो बार नाम बदला-अदला,
दो-दो सरकारें बदल गई
और चार मुख्यमंत्री झेले।
"राजधानी" अब तक लटकी है,
कुछ पता नहीं "दीक्षित" का पर,
मानसिक सुई थी जहां रुकी,
गढ़-कुमूं-पहाड़ी-मैदानी, इत्यादि-आदि,
वो सुई वहीं पर अटकी है।
वो बाहर से जो हैं सो पर,
भीतरी घाव गहराते हैं,
आंखों से लहू रुलाते हैं।
वह गन्ने के खेतों वाली,
आंखें जब उठाती हैं,
भीतर तक दहला जातीं हैं।
सच पूछो- उन भोली-भाली,
आंखों का सपना बिखर गया।
यह राज्य बेचारा "दिल्ली-देहरा एक्सप्रेस"
बनकर ठहर गया है।
जिसमें बैठे अधिकांश माफिया,
हैं या उनके प्यादे हैं,
बाहर से सब चिकने-चुपड़े,
भीतर नापाक इरादे हैं,
जो कल तक आंखें चुराते थे,
वो बने फिरे शहजादे हैं।
थोड़ी भी गैरत होती तो,
शर्म से उनको गढ़ जाना था,
बेशर्म वही इतराते हैं।
सच पूछो तो उत्तराखण्ड का,
सपना चकनाचूर हुआ,
यह लेन-देन, बिक्री-खरीद का,
गहराता नासूर हुआ।
दिल-धमनी, मन-मस्तिष्क बिके,
जंगल-जल कत्लेआम हुआ,
जो पहले छिट-पुट होता था,
वो सब अब खुलेआम हुआ।
पर बेशर्मों से कहना क्या?
लेकिन "चुप्पी" भी ठीक नहीं,
कोई तो तोड़ेगा यह 'चुप्पी'
इसलिये तुम्हारे माध्यम से,
धर दिये सामने सही हाल,
उत्तराखण्ड के आठ साल.....!
दो
चुनावी रंगे की रंगतै न्यारी,
मेरि बारी! मेरी बारी!! मेरि बारी!!!
दिल्ली बै छुटि गे पिचकारी,
अब पधान गिरी की छू हमरी बारी,
चुनावी रंगे की रंगतै न्यारी।
मथुरा की लठमार होलि के देखन्छा,
घर-घर मची रै लठमारी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!
आफी बण नैग, आफी बड़ा पैग,
आफी बड़ा ख्वार में छापरि धरी,
आब पधानगिरी छू हमरि बारि।
बिन बाज बाजियै नाचि गै नौताड़,
खई पड़ी छोड़नी किलक्यारी,
आब पधानगिरी की छू हमरि बारी।
रैली थैली, नोट-भोटनैकि,
मची रै छो मारामारी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!
पांच साल तक कान-आंगुल खित,
करनै रै हूं हु,हुमणै चारी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!
काटि में उताणा का लै काम नि ऎ जो,
भोट मांगण हुणी भै ठाड़ी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!
पाणि है पताल, ऎल नौणि है चुपाड़,
मसिणी कताई बोल-बोल प्यारी,
चुनाव रंगे की रंगतै न्यारी।
जो पुजौं दिल्ली, जो फुकौं चुल्ली,
जैंकि चलैंछ किटकन दारी,
चुनाव रंगे की रंगते न्यारी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!
चुनाव रंगे की रंगते न्यारी।
तीन
हालात-ए-सरकार ऎसी हो पड़ी तो क्या करें?
हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें?
हादसा बस यों कि बच्चों ने उछाली कंकरी,
वो पलट के गोलाबारी हो गई तो क्या करें?
गोलियां कोई निशाना बांध कर दागी थी क्या?
खुद निशाने पै पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें?
खाम-खां ही ताड़ तिल का कर दिया करते हैं लोग,
वो पुलिस है, उससे हत्या हो पड़ी तो क्या करें?
कांड पर संसद तलक ने शोक प्रकट कर दिया,
जनता अपनी लाश बाबत रो पड़ी तो क्या करें?
आप इतनी बात लेकर बेवजह नाशाद हैं,
रेजगारी जेब की थी, खो पड़ी तो क्या करें?
आप जैसी दूरदृष्टि, आप जैसे हौसले,
देश की आत्मा गर सो पड़ी तो क्या करें?