Begin typing your search above and press return to search.
जनज्वार विशेष

पश्चिम बंगाल चुनाव: किसान आंदोलन से उपजे जनाक्रोश का लाभ बिखरा विपक्ष उठा पाएगा ?

Janjwar Desk
20 Feb 2021 7:45 PM IST
पश्चिम बंगाल चुनाव: किसान आंदोलन से उपजे जनाक्रोश का लाभ बिखरा विपक्ष उठा पाएगा ?
x
पश्चिम बंगाल में अभी तक किसान आंदोलन चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया है। पश्चिम बंगाल सुभाष चंद्र बोस और रवींद्रनाथ टैगोर की विरासत पर बहस करने में व्यस्त है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य के लोगों को यह नहीं बताया है कि भाजपा किसानों के लिए कैसे हानिकारक है।

वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार का विश्लेषण

पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव को जीतने के लिए भाजपा ने पूरी सरकारी मशीनरी को झोंक दिया है और संघ गिरोह के अनगिनत स्वयंसेवक जमीनी स्तर पर भाजपा के लिए छल-बल-कौशल से वोट बैंक तैयार करने में पिछले कई महीने से जुटे हुए हैं। राज्य की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी भले ही दृढ़ता के साथ मुक़ाबला करती हुई दिखाई दे रही हैं, लेकिन उनकी पार्टी के विधायक और सांसद जिस तरह भाजपा के हाथों एक-एक कर बिकते जा रहे हैं, उसे देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि चुनाव में उनके किले पर फतह करने की भाजपा ने पूरी तैयारी कर ली है। कायदे से कांग्रेस और वामपंथी दलों को इस जंग में ममता के साथ मिलकर लड़ने का निर्णय लेना चाहिए था, लेकिन उन्होंने ऐसा न करते हुए भाजपा की जीत के मार्ग को आसान बना दिया है।

देश में किसान आंदोलन के साथ ही मोदी सरकार के निरंकुश रवैये के खिलाफ जो जनाक्रोश का भाव पैदा हो रहा है, पश्चिम बंगाल में विपक्ष को उसका लाभ मिलता हुआ दिखाई नहीं देता। लुंज-पुंज विपक्षी पार्टियां ट्वीट करते हुए या प्रेस रिलीज जारी करते हुए भाजपा का मुक़ाबला नहीं कर सकती। जिस समय इन पार्टियों को जमीन पर उतरकर आम लोगों के मुद्दों पर संघर्ष करना चाहिए था, उस समय उनके नेता सोशल मीडिया के सहारे मैदान जीतने का ख्वाब देखते रहे हैं।

अमित शाह ने देश में चुनावी प्रक्रिया की शक्ल बदलकर रख दी है। शाह ने चुनाव को बड़े सामाजिक और आर्थिक मुद्दों से दूर करते हुए इसे शतरंज के खेल में रूपांतरित कर दिया है। अब सरकार के खिलाफ जनाक्रोश होने के बावजूद भी भाजपा चुनाव जीत सकती है या हारने पर विपक्ष के विधायकों को खरीदकर अपनी सरकार बना सकती है। हाल के वर्षों में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं।

इसलिए हम पाते हैं कि प्रवासी मजदूरों के मुद्दे ने बिहार में चुनावी नतीजों पर कोई प्रभाव नहीं डाला। कांग्रेस नेता राहुल गांधी देश की बिखरी अर्थव्यवस्था को मुद्दा बनाने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन इसको लेकर चुनावी नतीजों पर कोई असर नजर नहीं आ रहा है। पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतों के मुद्दे पर भी मोदी सरकार चिंतित नजर नहीं आती। जबकि पहले ऐसे मुद्दे पर सरकार गिर जाती थी।

मोदी-शाह ने चुनाव जीतने के लिए एक स्वतंत्र तंत्र का विकास किया है। वे बड़े डेटा पर आधारित होते हैं, जैसे कि घरों और परिवारों के बारे में सूक्ष्म जानकारी। धन-शक्ति का एक अभूतपूर्व उपयोग किया जाता है, जिसमें सत्तारूढ़ दल के विधायकों के कम होने की स्थिति में विधायकों को खरीदने की क्षमता शामिल है।विपक्षी दलों के डमी उम्मीदवारों को वित्त पोषण और प्रायोजित करके भाजपा चुनावी नतीजे को अपने अनुकूल बना लेती है।

इसलिए जो लोग सोचते हैं कि किसानों के आंदोलन से भाजपा के खिलाफ बंगाल में माहौल बनेगा और भाजपा पर चुनावी तौर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, उनको गलतफहमी दूर कर लेनी चाहिए। विपक्ष के पास निश्चित रूप से भाजपा की तरह संसाधनों और संगठनात्मक कौशल का अभाव है।

पश्चिम बंगाल में अभी तक किसान आंदोलन चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया है। पश्चिम बंगाल सुभाष चंद्र बोस और रवींद्रनाथ टैगोर की विरासत पर बहस करने में व्यस्त है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य के लोगों को यह नहीं बताया है कि भाजपा किसानों के लिए कैसे हानिकारक है।

यह दिलचस्प है कि पश्चिम बंगाल में एक अनिवार्य रूप से कृषि प्रधान राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस मोदी की किसान विरोधी छवि पर प्रहार नहीं कर रही है। इससे यह प्रतीत होता है कि जब से मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तब से कोई भी राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बचा है। जिस तरह से मोदी-शाह की जोड़ी ने गोदी मीडिया की मदद से दुष्प्रचार करते हुए देश के हर अंचल के लिए स्थानीय मुद्दों का मायाजाल तैयार किया है उसे देखते हुए राष्ट्रीय मुद्दे के प्रति आम लोगों का ध्यान कम होता चला गया है।

सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुक़ाबला होने वाला है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को वास्तविक चुनौती देने वाली भारतीय जनता पार्टी पिछले डेढ़ साल से आक्रामक चुनावी अभियान चलाती रही है। जब से भाजपा ने अपने गठबंधन सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) के साथ मिलकर बिहार में चुनावी जीत हासिल की, तब से उसने पश्चिम बंगाल की लड़ाई में पूरी तरह से अपने संसाधनों को झोंक दिया। निश्चित रूप से भाजपा अपने अवसरों को उसी तरीके से अनुकूल बना रही है जिस तरह से टीएमसी के नेता उसका दामन थाम रहे हैं। टीएमसी छोड़ने वाले सबसे बड़े नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री दिनेश त्रिवेदी हैं, जिन्होंने संसद में पार्टी छोडने की घोषणा की।

अन्य दलों के नेताओं को भाजपा में शामिल करने के लिए मोदी सरकार ऑपरेशन कमल चलाती रही है। कर्नाटक और मध्य प्रदेश में भाजपा को इसका लाभ मिल चुका है जहां उसने चुनाव हारने के बाद कांग्रेस से सरकारें छीन लीं।

भाजपा के कमल अभियान ने पहले से ही टीएमसी को बैकफुट पर आने के लिए मजबूर कर दिया है। भाजपा ने जय श्री राम के अभिवादन को एक युद्ध का हथियार बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है, जिससे टीएमसी की तीखी प्रतिक्रिया सामने आई है। अब ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल भगवान राम और देवी माँ दुर्गा के बीच एक युद्ध का दृश्य उपस्थित करेगा।

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और वरिष्ठ मंत्रियों और पार्टी नेताओं ने अनगिनत बार बंगाल का दौरा कर टीएमसी पर दवाब बढ़ा दिया है।

पश्चिम बंगाल में जमीनी रिपोर्टों ने सत्तारूढ़ टीएमसी और एक पुनरुत्थानवादी और प्रचंड भाजपा के बीच बहुत कठिन लड़ाई का संकेत दिया है, जिसमें कांग्रेस-वाम गठबंधन तीसरे स्थान पर चल रहा है। कांग्रेस-लेफ्ट की मौजूदगी सत्तारूढ़ टीएमसी के लिए मुकाबले को कठिन बना देगी और विडंबना यह है कि भाजपा को धर्मनिरपेक्ष वोट का विभाजन करने में मदद मिलेगी।

Next Story

विविध