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जनज्वार विशेष

महिलाओं के नेतृत्व में आंदोलन बन रहे आक्रोश से अधिक समस्याओं को बताने का माध्यम, औरतें गढ़तीं नारों और बैनरों की नई भाषा

Janjwar Desk
8 Oct 2022 11:44 AM GMT
महिलाओं के नेतृत्व में आंदोलन बन रहे आक्रोश से अधिक समस्याओं को बताने का माध्यम, औरतें गढ़तीं नारों और बैनरों की नई भाषा
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70 प्रतिशत से अधिक अहिंसक आन्दोलनों की अगुवाई महिलाओं ने की है, इनके अनुसार महिलाओं की अगुवाई वाले आन्दोलन अपेक्षाकृत अधिक बड़े और अधिकतर मामलों में सफल रहे हैं...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

किसी भी जन-आन्दोलन के केंद्र में भाषा और शब्द होते हैं, पर शायद ही कभी आन्दोलनों के साथ इन शब्दों की चर्चा की जाती है। दरअसल आन्दोलन स्वयं में केवल लोगों का जमावड़ा नहीं है, बल्कि यह असहमति, प्रताड़ना, असमानता, दमन के विरुद्ध कहे गए शब्द हैं, जो लोगों को आन्दोलनों से जोड़ते हैं। आन्दोलनों के दौरान यही असहमति और विरोध के शब्द नारों, बैनर, हाथ में लटकी तख्तियों, चेहरे और शरीर पर पहने गए कपड़ों पर लिखे गए नारों में झलकते हैं।

इन्हीं नारों से समाज प्रभावित होता है और किसी आन्दोलन के उद्देश्य को समझ पाता है। दूसरी तरफ लम्बे भाषण होते हैं, पर उनका असर नारों, बैनरों और तख्तियों से अधिक नहीं होता। यह नारों की ही गरिमा है, जिसके कारण "आजादी" और "कागज़ नहीं दिखाएंगे" के साथ आज भी हम नागरिकता क़ानून के विरुद्ध किये गए आन्दोलन को याद करते हैं। हमारे देश में जनता का दमन करने वाले क़ानून लगातार सरकार लागू करती रहेगी, पर "काले कानूनों को वापस लो" के साथ हमेशा किसानों का आन्दोलन ही याद रहेगा।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ मोंट्रियल में समाज विज्ञान की प्रोफ़ेसर कासिले वान डे वेल्दे पिछले 10 वर्षों से भी अधिक समय से युवाओं के विद्रोह और असहमति की भाषा का अध्ययन कर रही है – इसके लिए उन्होंने दुनियाभर के प्रमुख आन्दोलनों के नारों, बैनरों और तख्तियों का गंभीरता से अध्ययन किया है। हाल में ही इस अध्ययन से सम्बंधित एक शोधपत्र उन्होंने सोशल मूवमेंट स्टडीज नामक जर्नल में प्रकाशित किया है। वान डे वेल्दे के अनुसार हरेक नारा महज कुछ शब्द नहीं होते, बल्कि इसमें सामाजिक सन्देश होता है और साथ ही विद्रोह का स्वर भी। आन्दोलनों के नारों और स्लोगन के शब्दों में दुनियाभर के आन्दोलनों में बहुत कुछ समानताएं भी रहती हैं।

वान डे वेल्दे ने अपने अध्ययन के लिए वर्ष 2011 से 2019 के बीच दुनिया के सात बड़े सामाजिक आन्दोलनों का बारीकी से अध्ययन किया है, ये सभी आन्दोलन युवाओं ने शुरू किये थे। इन आन्दोलनों में शामिल हैं – वर्ष 2011-2012 में कठोर कानूनों के विरुद्ध स्पेन के मेड्रिड में प्रदर्शन, वर्ष 2011-2012 का सेंटियागो (चिली) में छात्रों का प्रदर्शन, वर्ष 2012 में मोंट्रियल में छात्रों का प्रदर्शन, वर्ष 2014 में हांगकांग का अम्ब्रेला मूवमेंट, वर्ष 2016 में पेरिस में श्रम कानूनों में सुधार के लिए आन्दोलन, वर्ष 2019 में मोंट्रियल में आयोजित क्लाइमेट मार्च और वर्ष 2019 में हांगकांग में प्रजातंत्र समर्थक आन्दोलन शामिल हैं।

इस अध्ययन के अनुसार अब के आन्दोलनों की भाषा परम्परागत आन्दोलनों की भाषा से भिन्न है। अब आन्दोलनों, विशेष तौर पर युवाओं के आन्दोलनों में भाषणों में भले ही सत्ता और राजनैतिक दलों के विरुद्ध बहुत कुछ कहा जाता है, पर नारे और बैनर की भाषा में अपनी समस्याओं का जिक्र अधिक होता है, या फिर समाज की बुनियादी आवश्यकताओं जैसे प्रजातंत्र, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार या फिर नई पीढी के लिए सामान अवसर की बात की जाती है और विरोध के स्वर धीमे रहते हैं। नारे अब विरोध से अधिक सुनहरे भविष्य की आशा पर केन्द्रित होने लगे हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान युवाओं के आन्दोलनों में सत्ता के साथ ही पुरानी पीढी से विरोध मुखर हुआ है। अब युवाओं को लगता है कि पुरानी पीढी ने उनकी लायक दुनिया छोडी ही नहीं है।

कुछ आन्दोलनों में विद्रोह की भाषा भी मुखर रहती है, जिसमें आक्रोश भी स्पष्ट होता है और कभी खुशी भी झलकती है। यह खुशी एक जैसे विचारों वाले लोगों के एक साथ मिलने की होती है। वान डे वेल्दे के अनुसार यही सामाजिक आक्रोश प्रजातंत्र के विकास का आधार है, आन्दोलनों की भाषा महज अटपटे शब्द नहीं होते, बल्कि राजनीतिक अभिव्यक्ति को दिशा देते हैं – इसलिए इनका विश्लेषण हमें वर्तमान की सामाजिक समस्याओं के साथ ही युवा मस्तिष्क को समझाने का मौका देता है।

आन्दोलनों के सन्दर्भ में हमारा देश दुनिया में सबसे निराला है। दुनिया के चरम तानाशाही वाले देश में भी जब भी आन्दोलन होते हैं, तब तमाम सरकारी दबाव के बाद भी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा आन्दोलनों को सार्थक तौर पर जनता तक पहुंचाने का काम करता है। हमारे देश में स्थिति पूरी तरह से विपरीत है – यहाँ मीडिया सामाजिक-आर्थिक आन्दोलन के सन्देश और उद्देश्य को जनता के बीच पहुंचाने के बदले सत्ता के साथ मिलकर सबसे पहले इसे जातिवादी, आतंकवादी, अर्बन नक्सल का जमावड़ा, विदेशी फंडिंग, मोदी जी की छवि धूमिल करने का प्रयास साबित करता है। प्रायः यह माना जाता है कि आन्दोलनकारी आक्रोश और नफरत की भाषा का प्रयोग करते हैं, पर हमारे देश में आन्दोलनों की भाषा बेहद शिष्ट और सधी रहती है और सत्ता और मीडिया की भाषा नफरत, हिंसा और धमकी से भर जाती है।

वर्ष 2014 के बाद पनपी यह परम्परा दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। सभी वर्गों और समुदायों के शामिल रहने की बाद भी सत्ता और मीडिया ने नागरिकता क़ानून के विरुद्ध सामाजिक आन्दोलन को मुस्लिमों के वर्चस्व कायम करने की साजिश करार दिया और पूरे देश के किसानों और श्रमिकों के शामिल रहने के बाद भी पूंजीवाद-विरोधी किसान आन्दोलन को खालिस्तानी और सरदारों का आन्दोलन करार दिया था।

आन्दोलन किसी शून्य में नहीं पनपते और न ही यह एक शौकिया टाइम-पास है, आन्दोलन सत्ता द्वारा लिए गए किसी निर्णय का विरोध या फिर सत्ता की विफलता से पनपते हैं। आन्दोलन किसी भी स्वस्थ्य प्रजातंत्र की निशानी हैं। दुनिया में जैसे-जैसे प्रजातंत्र का अंत होता जा रहा है, सामाजिक समस्याएं बढ़ती जा रही हैं और इसके साथ ही आन्दोलनों की संख्या भी बढ़ रही है, पर अब अधिकतर आन्दोलन अहिंसक होते हैं और ऐसा दुनियाभर में हो रहा है।

जैसे-जैसे आन्दोलन अहिंसक हो रहे हैं, उनमें महिलाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। महिलायें वैसे भी पुरुषों की तुलना में अधिक निर्भीक होती हैं और जो ठान लेती हैं उसे पूरा कर के ही दम लेती हैं। हाल के वर्षों में तो अनेक बड़े आन्दोलनों की शुरुआत ही महिलाओं ने की है – बेलारूस में राष्ट्रपति अलेक्सेंडर ल्युकाशेंको के विरुद्ध प्रदर्शन, थाईलैंड में राजशाही के विरुद्ध आन्दोलन, भारत में नागरिकता क़ानून के विरोध का आन्दोलन, मेक्सिको में सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन इनमें प्रमुख हैं। वर्तमान में निरंकुश शासन वाले देशों – ईरान और अफ़ग़ानिस्तान – में भी महिलायें बेख़ौफ़ आन्दोलन कर रही हैं।

ईरान में महिलायें भले ही चेहरे को हिजाब से ढकने के क़ानून के विरुद्ध आन्दोलन कर रही हैं, पर हरेक आन्दोलनकारी महिला ने अपने सर पर कफ़न डाल लिया है, पर आन्दोलन बढ़ता ही जा रहा है। महिलायें जब आन्दोलन करती हैं तब नारों और बैनरों की एक नई भाषा भी गढ़ती हैं, इसका असर भी स्पष्ट हो रहा है। अब नारे विरोध और आक्रोश के स्वर से अधिक अपनी समस्याओं को बताने का माध्यम बन गए हैं।

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर एरिका चेनोवेथ और जोए मार्क्स ने 2010 से 2014 के बीच दुनियाभर में किये गए बड़े आन्दोलनों का विस्तृत अध्ययन किया है। इनके अनुसार 70 प्रतिशत से अधिक अहिंसक आन्दोलनों की अगुवाई महिलाओं ने की है। इनके अनुसार महिलाओं की अगुवाई वाले आन्दोलन अपेक्षाकृत अधिक बड़े और अधिकतर मामलों में सफल रहे हैं। महिलाओं के आन्दोलन अधिक सार्थक और समाज के हरेक तबके को जोड़ने वाले रहते हैं, इनकी मांगें भी स्पष्ट होती हैं। महिलायें आन्दोलनों के नए तरीके और नई भाषा अपनाने से भी नहीं हिचकतीं।

प्रोफ़ेसर एरिका चेनोवेथ और जोए मार्क्स के अनुसार पुलिस या सरकारें महिला आन्दोलनों का दमन केवल महिलाओं के कारण नहीं करतीं, बल्कि महिलाओं के आन्दोलन के नए तरीके और अहिंसा से वे भी अचंभित रहते हैं। आन्दोलनों के इतिहास में 1980 के दशक तक हिंसक आन्दोलनों का जोर रहा, पर इसके बाद एकाएक आन्दोलनों में महात्मा गांधी के अहिंसक, सविनय अवज्ञा और असहयोग आन्दोलनों के तरीके शामिल हो गए। ऐसा दुनियाभर में किया जा रहा है, और भारत में भले ही महात्मा गांधी को भुला दिया गया हो, पर वैश्विक स्तर पर आज के आन्दोलन उन्हीं की राह पर किये जा रहे हैं। अहिंसा का समावेश होते ही महिलाओं की संख्या आन्दोलनों में बढ़ने लगी और अब तो वे दुनियाभर में आन्दोलनों का नेतृत्व कर रही हैं और साथ ही आन्दोलनों की परम्परागत भाषा भी बदल रही हैं।

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