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World Tribal Day : संरक्षित जंगलों में असुरक्षित आदिवासी
file photo
‘विश्व आदिवासी दिवस’ (9 अगस्त) पर राजकुमार सिन्हा का विशेष लेख
World Tribal Day 2024 : पिछले कुछ सालों से आदिवासियों, वन-निवासियों की एकजुटता, संघर्ष और लगातार बढ़ती ताकत के चलते उनके हित में अनेक कानून बने हैं, सरकारें भी उन्हें संरक्षण देने की घोषणाएं करती रहती हैं, लेकिन क्या सचमुच इन प्रयासों से आदिवासियों का कुछ भला हुआ है? पर्यटन की खातिर संरक्षित किए जा रहे वन-क्षेत्रों में आदिवासी कितने सुरक्षित हैं?
भारत में आदिवासियों/मूलनिवासियों का जंगलों से रिश्ता सहअस्तित्व के सिद्धांत पर आधारित है। ऐतिहासिक दृष्टि से वन एवं वनक्षेत्र आदिवासी जनजातियों का पारंपरिक निवास हुआ करता था, परन्तु जैव-विविधता एवं वन्यजीव संरक्षण के लिए ‘आरक्षित क्षेत्र’ की परिकल्पना के साथ उन्हें पारंपरिक निवास स्थल से हटाने का काम वर्षों से चल रहा है। सन् 1865 के ‘भारतीय वन अधिनियम’ के माध्यम से लाई गई औपनिवेशिक वन-नीति के कारण, वनक्षेत्र का बड़ा हिस्सा सरकार के अधीन आ गया, जिसके चलते लाखों वन-निवासियों के पारंपरिक दावे अवैध हो गए।
स्वतंत्र भारत में भी ‘आरक्षित क्षेत्र’ घोषित करने के लिए नियमों और प्रक्रियाओं की पूरी तरह से अनदेखी की गई। ‘आरक्षित वन’ घोषित करने हेतु ‘भारतीय वन अधिनियम – 1927’ की धारा-4 से 20 तक की लम्बी प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। सरकार अधिनियम के तहत एक प्रारम्भिक अधिसूचना जारी करती है कि अमुक भूमि को आरक्षित वन के रूप में घोषित किया जाना है और वन बंदोबस्त अधिकारी स्थानीय समुदाय के सभी अधिकारों को स्वीकार या अस्वीकार कर उनका निपटान करता है।
गांव के जंगल को ‘भारतीय वन अधिनियम – 1927’ की धारा - 28 के तहत ग्रामवन कहा जाता है। जब सरकार किसी ‘आरक्षित वन’ या किसी अन्य भूमि को ग्राम समुदाय के उपयोग के लिए आबंटित करती है तो उस भूमि को ग्रामवन भूमि के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जाता है। ग्रामवन यानि राज्य सरकार द्वारा ग्रामीण समाज को विधिवत हस्तांतरित किया गया वन। कुछ मामलों में ग्रामवन और वनग्राम शब्द का परस्पर उपयोग किया जाता है, जबकि अधिनियम के तहत ग्रामवन एक कानूनी श्रेणी है, वनग्राम केवल एक प्रशासनिक श्रेणी है।
वर्ष 2002 में ‘वन एवं पर्यावरण मंत्रालय’ ने उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘गोदा बरमन विरुद्ध भारत सरकार’ के प्रकरण में 1996 में दिये गये फैसले की गलत व्याख्या की थी कि समयबद्ध तरीके से ‘आरक्षित क्षेत्र’ के वनों से अतिक्रमणकारियों को बाहर निकाला जाए, जबकि उच्चतम न्यायालय ने अतिक्रमणकारियों को बाहर निकालने का आदेश नहीं दिया था। ‘वन एवं पर्यावरण मंत्रालय’ लगभग 1.5 लाख हेक्टेयर वनभूमि से वन-निवासियों को बाहर करने की बात स्वीकार करता है। 2002-2006 से अब तक लगभग तीन लाख आदिवासी परिवारों को जंगल से निकालकर नये ‘आरक्षित क्षेत्रों’ का गठन किया जा चुका है। केवल मध्यप्रदेश में ही अब तक 125 गांवों को जलाकर राख कर दिया गया है।
पहले यह समझा जाता था कि वन संरक्षण के लिए वन-निवासियों को वन से बाहर करना आवश्यक है। पहली बार ‘वनाधिकार कानून’ में पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के तरीके में बदलाव लाया गया। इस कानून की प्रस्तावना में स्पष्ट है कि वन-निवासी समुदाय न केवल वन-पारिस्थितिकी का हिस्सा हैं, बल्कि वनों के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं। ‘वनाधिकार कानून’ की स्पष्ट मान्यता है कि जनजातीय समुदाय की खाद्य-सुरक्षा और आजीविका सुनिश्चित की जाए।
कानून में आगे स्वीकार किया गया है कि पहले सरकार के विकास कार्यों के कारण जनजातीय लोगों एवं वन-निवासियों को अपनी पैतृक भूमि से जबरन विस्थापित होना पड़ा था। जनजातियों एवं वन-निवासियों के पट्टे तथा पहुंच के अधिकारों से जुड़ी असुरक्षा को ठीक करने की आवश्यकता है।
‘वन्यजीव संरक्षण अधिनियम – 1972’ की धारा-36(क) के तहत राज्य सरकार स्थानीय समुदाय से चर्चा के बाद ‘अभयारण्य’ व ‘राष्ट्रीय उद्यान’ के नजदीकी क्षेत्रों को ‘संरक्षित’ या ‘आरक्षित’ घोषित कर सकती है। ‘वनाधिकार कानून’ की धारा-2(घ) में कहा गया है कि ‘वनभूमि’ से किसी वनक्षेत्र के अन्तर्गत आने वाली किसी भी प्रकार की भूमि अभिप्रेत है और उसके अन्तर्गत ‘अवर्गीकृत वन,’ ‘असीमांकित वन’ या ‘समझे गए वन,’ ‘संरक्षित वन,’ ‘आरक्षित वन,’ ‘अभयारण्य’ और ‘राष्ट्रीय उद्यान’ भी आते हैं। अर्थात इन सभी तरह के जंगलों में वन-निवासियों की पारंपरिक अधिकारों तक पहुंच सुनिश्चित होनी चाहिए। कर्नाटक का ‘बीआरटी हिल्स अभयारण्य’ वन्यजीवों और मानवों के सहअस्तित्व का बढिया उदाहरण है। यहां तक कि सरकार ने भी यह माना है कि वन्यजीवों और मानवों का सहअस्तित्व संभव है।
सन् 2016 में पारित ‘प्रतिपूरक वनरोपण निधि’ (सीएएफ, कैम्पा) में उल्लेख है कि वन-निवासियों की भूमि पर वृक्षारोपण से पहले उनसे परामर्श किया जाना चाहिए, परन्तु वन-विभाग वनों के प्रबंधन के लिए सामुदायिक सहमति में विश्वास नहीं रखता और आदिवासियों की खेती की जमीनों पर वनीकरण अभियान चलाता है। ये वो जमीनें हैं जहां का ‘अधिकार पत्र’ या तो वन निवासियों को दे दिया गया है या उसके सबंध में अंतिम निर्णय का इंतजार है।
जहां भी ‘कैम्पा’ निधियों के वितरण में वृद्धि हुई है, वहां वन-निवासियों और वन-विभाग या सरकार के बीच परस्पर विरोधी दावों के मामले काफी अधिक हैं। ‘पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ की ‘ई-ग्रीनवाच’ बेवसाइट के अनुसार 10 राज्यों के 2479 क्षेत्रों में वृक्षारोपण का विश्लेषण करने से पता चलता है कि 70 प्रतिशत से अधिक वृक्षारोपण गैर-वनभूमि की बजाय वनभूमि पर किया गया है।
तीव्र गति से बढ रही कथित विकास परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन का समाधान निकालने के लिए अब तक कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। तेजी से बढते विस्थापन की सबसे अधिक मार देश के आदिवासी समुदाय पर पड रही है। सन् 2016 में ‘जनजातीय मामलों के मंत्रालय’ द्वारा जारी वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 1950 से 1990 के बीच देश में 87 लाख आदिवासी विस्थापित हुए थे जो कुल विस्थापितों का 40 प्रतिशत है।
‘वनाधिकार कानून, 2006’ की धारा-5 कहती है कि ‘किसी वन-अधिकार धारक, उन क्षेत्रों में जहां इस अधिनियम के अधीन किन्हीं वन अधिकारों के धारक हैं, ग्रामसभा और ग्राम स्तर की संस्थाएं निम्न लिखित के लिए सक्षम हैं’ -
(क) वन्यजीव, वन और जैव-विविधता का संरक्षण करना।
(ख) यह सुनिश्चित करना कि लगा हुआ जलागम क्षेत्र, जलस्रोत और अन्य संवदेनशील क्षेत्र पर्याप्त रूप से संरक्षित हैं।
(ग) यह सुनिश्चित करना कि वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परम्परागत वन-निवासियों का निवास किसी प्रकार के विनाशकारी व्यवहारों से संरक्षित है जो उनकी सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत को प्रभावित करती हैं।
(घ) यह सुनिश्चित करना कि सामुदायिक वन संसाधनों तक पहुंच को विनियमित करने और ऐसे किसी क्रियाकलाप को रोकने के लिए जो वन्यजीव, वन और जैव-विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, ग्रामसभा में लिए गए विनिश्चयों का पालन किया जाता है।
संविधान के अनुच्छेद 244 की व्यवस्था के मुताबिक ‘पांचवीं अनुसूची’ के प्रावधानों (धारा-2) में अनुसूचित क्षेत्रों में राज्यों की कार्यपालन शक्ति को शिथिल किया गया है। अनुसूचित क्षेत्रों की प्रशासनिक व्यवस्था में राज्यपाल को सर्वोच्च शक्ति एवं अधिकार दिया गया है। पांचवीं अनुसूचि की धारा 5(1) राज्यपाल को विधायिका की शक्ति प्रदान करती है और यह शक्ति संविधान के किसी भी प्रावधानों से मुक्त है। आदिवासियों से किसी प्रकार के जमीन हस्तांतरण का नियंत्रण राज्यपाल के अधीन आता है। इतने सारे संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों के होते हुए भी अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वन-निवासियों का जीवन असुरक्षित है तो कानून का राज कहां है?
(राजकुमार सिन्हा ‘बरगी बांध विस्थापित संघ’ के वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं।)