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आजीविका

खेती का सारा भार महिलाओं पर, फिर किसानी और आंदोलनकारियों का तमगा मर्द किसानों को ही क्यों?

Janjwar Desk
27 Feb 2021 4:59 PM IST
खेती का सारा भार महिलाओं पर, फिर किसानी और आंदोलनकारियों का तमगा मर्द किसानों को ही क्यों?
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खेतों में काम करती महिला किसान (file photo)

महिला किसान हरेक कदम पर लैंगिक असमानता की मार झेलती हैं और इनपर कोई चर्चा नहीं होती, फिर भी यह बहुत बड़ा मुद्दा है और लम्बे समय तक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। देश के ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे 2018 के अनुसार देश में कुल कृषि भूमि में से 83 प्रतिशत से अधिक पुरुषों के नाम पर है, जबकि 2 प्रतिशत से भी कम भूमि महिलाओं के नाम पर है...

वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

जनज्वार। पिछले कुछ महीनों से किसानों की चर्चा जोर-शोर से की जा रही है, और खेती से जुड़े लगभग हरेक मसले पर खूब लिखा जा रहा है, फिर भी महिला किसानों की समस्या शायद ही कोई उठा रहा है। किसान संगठन भी इस मसले पर खामोश हैं, हालांकि बहुत बड़ी संख्या में महिलायें किसान आन्दोलन में शामिल हैं। महिला किसान आन्दोलन में मंच पर भी बैठ रही हैं और भाषण भी दे रही हैं। महिला किसान भी कृषि कानूनों पर और पूंजीवाद पर तेजतर्रार प्रतिक्रियाएं दे रही हैं, फिर भी खेतों में दिखती और नीतियों से गायब महिला किसानों पर खामोश हैं।

शायद ही किसी को पता होगा कि देश में 15 अक्टूबर के दिन को राष्ट्रीय महिला किसान दिवस के तौर पर मनाया जाता है। वर्ष 2007 की राष्ट्रीय किसान नीति लच्छेदार शब्दों में खेती में महिला सशक्तीकरण और लैंगिक समानता के गुणगान गाता है, पर हकीकत में यह असर कहीं दिखाई नहीं देता। वर्ष 2011 में बड़े तामझाम से वीमेन फार्मर्स एंटाइटलमेंट बिल लाया गया था, पर सरकारी उपेक्षा के कारण यह वर्ष 2013 में यह ख़त्म भी हो गया।

चैरिटी संस्था ऑक्सफेम के अनुसार भारत में कृषि की कुल अर्थव्यवस्था का 80 प्रतिशत महिलाओं की देन है, कृषि क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों में से 33 प्रतिशत से अधिक महिलायें हैं और जितने किसान कृषि आधारित स्वरोजगार करते हैं उनमें 48 प्रतिशत महिलायें हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों की 85 प्रतिशत महिलायें कृषि से जुड़ी हैं, पर केवल 13 प्रतिशत महिलाओं का अपने भूमि पर अधिकार है। भूमि पर अधिकार का आंकड़ा हरेक राज्य में अलग है, बिहार में यह महज 7 प्रतिशत महिलायें ही जमीन की मालिक हैं, पर कृषि कार्यों में जुटी कुल आबादी का 50 प्रतिशत से अधिक महिलायें हैं। ऑक्सफेम के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में कुल कृषि उत्पादन में से 60 से 80 प्रतिशत हिस्सा केवल महिलाओं की मिहनत का नतीजा है।

इसके बाद भी महिला किसानों की समस्या कहीं चर्चा में नहीं आती। इस दौर में जब दिल्ली समेत अनेक राज्यों में किसान आन्दोलन कर रहे हैं, महिला किसान भी अपनी मांगें उठाने लगीं हैं और किसान नेताओं से इस मुद्दे पर चर्चा कर रही है। तमिलनाडु की किसान पन्नुथाई अनेक बार दिल्ली में बैठे किसान नेताओं से चर्चा कर चुकी हैं।

किस्सान नेताओं की सबसे बड़ी समस्या भूमि के स्वामित्व से सम्बंधित है। कृषि भूमि उनके नाम नहीं होती है तो जाहिर है बैंक लोन, सब्सिडी और संसाधनों पर उनका अधिकार नहीं रहता। पन्नुथाई के अनुसार दिल्ली में बैठे किसान नेता महिला किसानों की समस्याओं से सहमत हैं, और किसान आन्दोलन के दौरान तमिलनाडु में उनके इलाके के किसान संगठन और सरकारी अधिकारी भी अब महिला किसानों की बात को ध्यान से सुनते हैं। यह एक बड़ा बदलाव है, क्योंकि अभी तक महिला किसानों को अपनी बात रखने का मौका ही नहीं दिया जाता था।

उत्तराखंड के अनेक महिला किसान संगठन भी अपने अधिकारों की चर्चा दिल्ली में कर रही हैं और इसके बाद कुछ महिला किसान कृषि भूमि को अपने नाम कराने की प्रक्रिया में हैं। मदुरै की के ज्योति की मांग है की सरकार के स्वामित्व वाली भूमि महिला किसानों को खेती के लिए दे दी जाए। कुछ दिनों पहले मकाम नामक एक महिला संगठन ने किसान आन्दोलन के बीच "दिस टाइम, आवर राइट्स" का बैनर भी बुलंद किया था। गुनारत में इन दिनों अनेक कृषिभूमि के स्वामित्व के दस्तावेजों पर पति के साथ पत्नी का नाम भी लिखा जा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र के फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार खेती के मामले में महिलाओं को यदि वही तकनीक और संसाधन मिले जो पुरुषों को मिलते हैं तो पैदावार में 20 से 30 प्रतिशत की बृद्धि हो सकती है और देश का कृषि उत्पादन 4 प्रतिशत तक बढ़ सकता है। इस बढे उत्पादन से दुनिया में भूखे लोगों की संख्या 12 से 17 प्रतिशत, यानि 10 से 15 करोड़ तक कम हो सकती है।

बिहार के स्त्री जागृति एकता मंच के अनुसार कृषि उत्पादन का योगदान देश की अर्थव्यवस्था में 15.4 प्रतिशत है और कृषि क्षेत्र का अधिकतर काम महिलायें कर रही हैं, फिर भी वे एक अदृश्य कार्यबल हैं, जिनकी उपेक्षा कृषक समाज भी करता है और अर्थजगत भी। संस्थानिक सुविधाएं जैसे बैंक लोन, इन्सुरेंस, कोआपरेटिव और सरकारी सुविधाएं उन्हें कभी नहीं मिलतीं।

आल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेंस एसोसिएशन की मरियम धावले के अनुसार महिला किसान हरेक कदम पर लैंगिक असमानता की मार झेलती हैं और इनपर कोई चर्चा नहीं होती, फिर भी यह बहुत बड़ा मुद्दा है और लम्बे समय तक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। देश के ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे 2018 के अनुसार देश में कुल कृषि भूमि में से 83 प्रतिशत से अधिक पुरुषों के नाम पर है, जबकि 2 प्रतिशत से भी कम भूमि महिलाओं के नाम पर है।

कोर्तेवा एग्रीसाइंसेज नामक संस्था ने हाल में ही 17 देशों में कृषि क्षेत्र में लैंगिक असमानता का अध्ययन एक सर्वेक्षण के माध्यम से किया था। इस सर्वेक्षण से स्पष्ट होता है की दुनियाभर में कृषि क्षेत्र में लैंगिक असमानता बहुत बड़ी समस्या है। सर्वेक्षण में भारत में 78 प्रतिशत लोगों ने और अमेरिका में 52 प्रतिशत लोगों ने लैंगिक असमानता को स्वीकार किया था।

वर्ष 2017–2018 के इकनोमिक सर्वे में बताया गया है की कृषि का महिलाकरण हो रहा है। अधिकतर पुरुष किसान अब रोजगार की तलाश में शहरों में जा रहे हैं और पूरा कृषि कार्य महिलाओं के कंधे पर आ रहा है। महिलायें घर संभालने के साथ ही खेती भी अपने बलबूते पर करने लगी हैं।

इस सर्वे के अनुसार किसानों की आत्महत्या भी एक बड़ी समस्या है और आत्महत्या के बाद खेती का सारा बोझ महिलाओं के जिम्मे आ जाता है। नॅशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 1995 से 2020 के बीच देश में 2,96,438 किसानों ने देश में आत्महत्या की है। किसानों की मृत्य या आत्महत्या के बाद भी जमीन के कागजों पर नाम बदलवाना एक लम्बी प्रक्रिया है।

वर्ष 2018 में महिला किसान आन्दोलन मंच ने 505 ऐसी महिलाओं से बात की थी, जिनके पति वर्ष 2012 से 2018 के बीच आत्महत्या कर चुके थे। इनमें से 40 प्रतिशत से अधिक महिलाओं को जमीन के अधिकार नहीं मिले थे। इसका कारण पूरी सरकारी व्यवस्था की सोच में बैठी लैंगिक असमानता है। सबसे बुरी हालत में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग या फिर दिहाड़ी पर खेतों में काम करने वाली महिलायें हैं, जिन्हें लम्बे समय तक काम करना पड़ता है और वेतन पुरुषों से कम मिलता है।

जाहिर है, महिला किसानों को अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करने का यही सही मौका है, जब आन्दोलनकारी किसानों के साथ सरकारें भी शिकायतें सुनाने तो तैयार हैं।

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