UN Global Food Summit : संयुक्त राष्ट्र की बैठक में कॉरपोरेट को मिला महत्व और किसानों-जनसंगठनों का हाशिया
संयुक्त राष्ट्र वैश्विक खाद्य सम्मेलन में किसानों के बजाय पूंजीपतियों को मिला महत्व (photo : Dharmender Srivastava)
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। संयुक्त राष्ट्र (United Nations) ने 23 सितम्बर को वैश्विक खाद्य सम्मेलन (Global Food Systems Summit) आयोजित किया था – लगभग दो वर्षों की योजना और अरबों डॉलर खर्च करने के बाद भी इस सम्मलेन में वैश्विक स्तर पर खाद्यान्न सुरक्षा (food security) के नाम पर केवल कॉर्पोरेट जगत (Corporate houses) को बढ़ावा देने का काम किया गया और छोटे किसानों और कारोबारियों, इनसे जुड़े मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, सिविल सोसाइटीज, विद्वानों और गैर-सरकारी संगठनों की पूरी उपेक्षा की गयी।
छोटे किसानों की उपेक्षा का आलम यह था कि संयुक्त राष्ट्र की ही अनेक संस्थाओं के प्रतिनिधि, कार्यकर्ता और इससे जुड़े विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों ने भी इस सम्मलेन पर तीखे सवाल उठा दिए। छोटे और जन-जातीय किसानों (Small and indigenous farmers) के साथ काम करने वाले बहुत से संस्थान विरोध स्वरूप प्रदर्शन कर रहे हैं, अपना अलग से अधिवेशन आयोजित कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के ही खाद्यान्न अधिकार से सम्बंधित विशेषज्ञ, माइकल फाखरी (Michael Fakhri, Special Reporteur on Right to Food) के अनुसार इस सम्मलेन के हरेक पहलू पर निजी औद्योगिक घरानों और इनके हितों को साधने वाले तथाकथित कार्यकर्ताओं और गैर-सरकारी संगठनों ने कब्ज़ा कर लिया है।
सतही तौर पर कृषि का क्षेत्र भले ही किसानों की धरोहर नजर आता हो, पर गहराई से देखने पर पता चलता है कि आज की कृषि पूरी तरह से बड़े औद्योगिक घरानों की चपेट में है और सबसे निचले स्तर पर किसान है। दुनिया में बीजों का जितना कारोबार होता है, वह केवल चार औद्योगिक घरानों के हाथ में सिमटा है। दुनिया में जितना पनीर का कारोबार होता है, उसमें से आधे से भी अधिक के लिए जिस बैक्टीरिया या एंजाइम (bacteria or enzyme) की जरूरत होते है उसकी आपूर्ति केवल एक कंपनी करती है।
दुनिया में एक-चौथाई से भी अधिक बियर (beer) केवल एक कंपनी बनाती है। पूरी दुनिया में सुअर के मांस (Pork) का जितना कारोबार होता है, सबमें केवल एक ही जेनेटिक ब्रीड के सुअर का इस्तेमाल किया जाता है। इसी तरह पूरी दुनिया में दुग्ध उद्योग (dairy industry) में केवल एक ब्रीड की गाय का इस्तेमाल किया जाता है। दुनिया में केले के 1800 से भी अधिक प्रकार हैं, पर अधिकतर व्यापार केवल एक प्रकार के केले, केवेंडीश (Cavendish) का किया जाता है।
वैश्विक महामारी, कोविड 19 (COVID 19) ने खाद्य और पोषण के सन्दर्भ में दशकों पुरानी समस्या को फिर उजागर कर दिया है – दुनिया में भूख और कुपोषण की समस्या अपर्याप्त कृषि उत्पादन के कारण या फिर जलवायु परिवर्तन और सूखे के कारण नहीं है, बल्कि यह सरकारों की अकर्मण्यता और गलत नीतियों के कारण है। इस सन्दर्भ में हमारे देश का उदाहरण सबके सामने है। भारत कृषि उत्पादन के सन्दर्भ में दुनिया के सबसे अग्रणी देशों के साथ खड़ा है, साल-दर-साल बम्पर उत्पादन की खबरें आती हैं, और दूसरी तरफ दुनिया में सबसे अधिक भूखे और कुपोषित बच्चों (hungry and malnourished children) और वयस्कों की संख्या हमारे देश में ही है। यहाँ कृषि उत्पादों का उचित मूल्य नहीं मिलने पर किसान अपनी फसल तक बर्बाद कर लेते हैं, मंडियों और गोदामों में अनाज रखे-रखे बर्बाद हो जाता है, गायब हो जाता है, चूहे और कीड़े खा जाते हैं, पर जरूरतमंदों तक अनाज को सरकारें पहुँचाने नहीं देतीं।
संयुक्त राष्ट्र के ही आंकड़े बताते हैं कि छोटे किसान और जनजातीय किसान दुनिया में कुल कृषि उत्पादन का 70 प्रतिशत से अधिक पैदा करते हैं, इनकी खेती से पर्यावरण का विनाश नहीं होता और जैव-विविधता (bio-diversity) सुरक्षित रहती है। इसके बाद भी संयुक्त राष्ट्र की खाद्य सुरक्षा से सम्बंधित वैश्विक सम्मलेन में ऐसे किसानों का प्रतिनिधित्व नगण्य रहता है, दूसरी तरफ नेस्ले, टाइसन, बाएर (Nestle, Tyson & Bayer) जैसे बहुराष्ट्रीय औद्योगिक घराने और इन्टरनेशनल रासायनिक उर्वरक उत्पादक संघ और कीटनाशक संघ के प्रतिनिधि सम्मेलनों के हरेक विषय में शामिल रहते हैं।
जाहिर है, संयुक्त राष्ट्र की नीतियाँ छोटे किसान और जनजातीय किसानों को या पर्यावरण अनुकूल सतत खेती (sustainable agriculture) को बढ़ावा देने वाली नहीं रहतीं, बल्कि बड़े पैमाने पर जंगल काटने, जैव-विविधता को नुकसान पहुंचाने वाली और जहरीले रसायनों को फैलाने वाली बहु-राष्ट्रीय औद्योगिक घरानों के हितों को साधने वाली होती हैं।
संयुक्त राष्ट्र में आयोजित सम्मेलन के आयोजकों को 600 से भी अधिक छोटे और जनजातीय किसान संगठनों ने हस्ताक्षरयुक्त ज्ञापन (petition) भी सौपा है, जिसमें वैश्विक कृषि को कॉर्पोरेट घरानों के हवाले और किसानों की उपेक्षा पर विरोध जताया गया है। इसमें कहा गया है कि खाद्य तंत्र और इसके प्रबंधन के कार्पोरेटीकरण को मानने से इनकार करते हैं, और संयुक्त राष्ट्र के इस कदम से पूरी दुनिया में खाद्यान्न् संकट लगातार गहरा होता जा रहा है, मानव स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है और पर्यावरण का विनाश हो रहा है।
विश्व में खाद्यान्न संकट का हल तब तक नहीं निकल सकता है, जब तक छोटे किसानों और जनजातीय किसानों के विस्तृत ज्ञान और परम्परा की उपेक्षा की जाती रहेगी, और मानवाधिकार, सामान्य जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं और स्थानीय ज्ञान का समावेश नहीं किया जाता। दुनिया में जितने क्षेत्र में जनजातियाँ खेती करती हैं, वहीं वैश्विक जैव-विविधता का 80 प्रतिशत हिस्सा सुरक्षित है फिर भी पर्यावरण अनुकूल खेती से सम्बंधित चर्चा में एक भी जनजातीय किसानों के संगठन को शामिल नहीं किया गया। इस विषय पर भी पर्यावरण को बर्बाद करने वाले नेस्ले, टाइसन और बाएर जैसी कम्पनियां ही भविष्य की राह दिखा रही थी।
छोटे किसानों की उपेक्षा का असर हमारे खाने की प्लेट पर भी पड़ रहा है।। दुनिया में खाद्यान्न उत्पादन वाले वनस्पतियों की 6000 से भी अधिक प्रजातियाँ हैं, पर इस दौर में वैश्विक पोषण केवल 9 प्रजातियों पर टिक गया है, और केवल तीन प्रजातियाँ – गेंहू, चावल और मक्का – से पूरी दुनिया की 50 प्रतिशत कैलोरी की भरपाई हो रही है। इसमें अगर आलू, जौ, पाम आयल, सोयाबीन, गन्ना और चुकंदर को भी मिला दिया जाए तो इतनी फसलें दुनिया के 75 प्रतिशत से भी अधिक कैलोरी की भरपाई करती हैं।
संयुक्त राष्ट्र दरअसल इन दिनों वैश्विक आबादी के शोषण का केंद्र बन गया है, जहां निरंकुश शासक, आतंकवादी और तानाशाह जश्न मनाते हुए दुनिया की भलाई की योजनायें बनाते हैं – तभी तो मानवाधिकार का फैसला भारत, चीन, सऊदी अरब और रूस जैसे देश करते हैं, खेती की योजनायें बहुराष्ट्रीय कम्पनियां करती हैं, जलवायु परिवर्तन नियंत्रित करने के लिए तेल और कोयला उद्योग भविष्य का खाका खींचते हैं, और दुनिया के पूंजीपति दुनिया के विकास की बातें करते हैं।