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JAI BHIM के असली नायक जस्टिस के. चंद्रू बोले - 'मार्क्सवाद ने मुझे अंबेडकर को बेहतर ढंग से समझने में मदद की'

Janjwar Desk
12 Nov 2021 11:22 AM GMT
JAI BHIM के असली नायक जस्टिस के. चंद्रू बोले - मार्क्सवाद ने मुझे अंबेडकर को बेहतर ढंग से समझने में मदद की
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मुझे नहीं लगता कि राजनीतिक लोकतंत्र में कोई भी अराजनीतिक हो सकता है। राजनीतिक लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए राजनीति की सही समझ एक आवश्यक आधार है। अगर एक वकील राजनीति को समझता है तो उसके लिए कानून के कामकाज और कानून को संचालित करने वाली राजनीतिक मशीन को समझना आसान होगा।

जनज्वार डेस्क। हाशिए के आदिवासी समुदायों ( Tribal Communities ) के पुलिसिया उत्पीड़न के ईमानदार और ममस्पर्शी चित्रण के लिए तमिल फिल्म "जय भीम" ( Jai Bhim ) की देश भर में तारीफ हो रही है। यह कोर्ट-रूम ड्रामा वास्तविक मुकदमे पर आधारित है। इस मुकदमे को मद्रास हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस के चंद्रू ( Former justice K Chandru ) ने तब लड़ा था, जब वह एक वकील के रूप में अदालत में प्रैक्टिस कर रहे थे। अब इस फिल्म की सफलता ने सभी का ध्यान जस्टिस चंद्रू की ओर खींचा है। खास बात यह है कि जस्टिस चंद्रू की सक्रियता और प्रगतिशील निर्णयों के लिए जाने जाते हैं।

जय भीम ( Jai Bhim ) फिल्म लोकप्रिय होने के बाद जस्टिस चंद्रू ने कई इंटरव्यू देकर अपने जीवन संघर्ष पर प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि 'मार्क्सवाद ने मुझे अंबेडकर को बेहतर ढंग से समझने में मदद की।'

पुलिस हिरासत में मौत पर केंद्रित है फिल्म जय भीम

फिल्म जय भीम ( Jai Bhim ) फिल्म राजकन्नू-पार्वती के मुकदमे पर आधारित है। इस मुकदमे को जस्टिस चंद्रू ने लड़ा था। फिल्क की पूरी कहानी 1993 में इरुलर जनजाति के एक सदस्य की हिरासत में क्रूर तरीके से मौत पर केंद्रित है। एक वकील के रूप में जस्टिस चंद्रू के प्रयासों से राजकन्नू की असहाय विधवा को न्याय मिला पाया था। इतना ही नहीं, दोषी पुलिस अधिकारियों को इस घटना को अंजाम देने के लिए दंडित भी होना पड़ा। इसके बावजूद देश में हिरासत में प्रताड़ना का सिलसिला आज भी जारी है। पिछले साल जयराज और बेनिक्स की हिरासत में हुई हत्या ने पूरे देश को झकझोर दिया था। लॉकडाउन के दौर में भी देश भर में पुलिस प्रताड़ना के मामलों में भारी वृद्धि देखी गई। पुलिस बल को अनुशासित करने के लिए अदालतों द्वारा दिए गए कई निर्णयों और निर्दशों के बावजूद पुलिस प्रताड़ना जारी है।

राजकन्नू की मौत पर आधारित है फिल्म

जस्टिस चंद्रू का कहना है ... जैसा कि फिल्म की शुरुआत में दिखाया गया है। यह पुलिस हिरासत में राजकन्नू की मौत के वास्तविक मामले पर आधारित है। वह इरुलर जनजाति से नहीं था। वह कुरवा समुदाय से संबंधित था, जिसे अभी तक एसटी घोषित नहीं किया गया है। फिल्म निर्देशक ने अपने रचनात्मक आजादी के तहत फिल्म का कैनवास इरुला समुदाय ( एसटी ) और उन असंख्य अत्याचारों पर रखा है, जिनका उन्होंने सामना किया है। फिल्म में दिखाए गए सीन उक्त अपराधों के समान ही हैं। निर्देशक ने फिल्म में पीड़ितों को इरुला समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में पेश किया है। साथ ही बाहरी लोगों के लिए उनकी जीवन शैली, भोजन की आदतों आप आवास आदि का चित्रण किया है।

आपराधिक मामलों में चेन्नई सिटी पुलिस आज भी बहुत पीछे

प्री-ट्रायल अभियुक्तों के अधिकारों के संबंध में 11 दिशानिर्देश जारी किए थे। उस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अवज्ञा करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अवमानना कार्रवाई करने और इसका पालन नहीं करने वाले न्यायिक मजिस्ट्रेटों के खिलाफ कार्रवाई करने की भी छूट दी थी। भले ही 24 साल से अधिक समय बीत चुका हो, लेकिन शायद ही किसी को अवमानना का दोषी पाया गया हो। यहां तमिलनाडु में हम अभी भी वर्ष 1888 के मद्रास सिटी पुलिस अधिनियम द्वारा शासित हैं। कानून और व्यवस्था बनाए रखने से अपराध का पता लगाने के मामले तक अभी वे वैज्ञानिक रूप से आगे नहीं बढ़े हैं।

जस्टिस चंद्रू ने कहते हैं - आजादी से पहले के दिनों में भी अंग्रेजों ने देश को अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित कर दिया था और उनके पास प्रशासन की अलग-अलग प्रणालियां थीं। इसके अलावा, उन्होंने आपराधिक जनजाति अधिनियम भी बनाया, जिसके तहत बहुत सारे आदिवासी समुदायों को शामिल किया गया था। इस प्रक्रिया से किसी अपराध का पता लगाना आवश्यक नहीं है, क्योंकि यदि किसी क्षेत्र में कोई अपराध होता है तो सभी आदिवासी संदिग्ध हो जाते हैं और जो 24 घंटे के भीतर सर्कल थाने में आत्मसमर्पण नहीं करता है, उसे ही आरोपी माना जाता है।

आज भी कई सुविधाओं से वंचित है जनजाति के लोग

स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ इस अधिनियम को खत्म करने के लिए भी लंबा संघर्ष चला, लेकिन यह देश को आजादी मिलने के बाद हो पाया। आपराधिक जनजाति अधिनियम खत्म होने के बाद भी आदिवासियों को उत्पीड़न से मुक्त नहीं किया जा सका। अपने क्षेत्र में किए गए किसी भी अपराध के लिए डीनोटिफाइड ट्राइब्स ( डीएनटी ) पुलिस की नजर में आज भी संदिग्ध बनी रहती हैं। केवल कुछ गैर-अधिसूचित जनजातियां अपनी उर्ध्वगामी प्रगति के कारण भूमि पर अधिकार कर पाईं हैं। उन्हें नागरिक अधिकार प्राप्त हुए हैं और एक समावेशी समूह बन गए। अधिकांश जनजातियों को आज भी संभावित अपराधियों के रूप में माना जाता है और उनके खिलाफ दिन-ब-दिन झूठे मामले दर्ज किए जाते हैं। उनके पास अपने घर की जमीन का पट्टा तक नहीं है, मतदाता सूची में उनका नाम शामिल नहीं है, वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली में शामिल नहीं है। खानाबदोश जीवन के कारण, वे अपने बच्चों को नियमित स्कूलों में नहीं भेज पाते हैं। रोजगार की संभावनाएं काफी हद तक गैर-औपचारिक क्षेत्रों में हैं। इन सभी को इस फिल्म में खूबसूरती से शामिल किया गया है।

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पुलिस सुधार वक्त की मांग

हालांकि, वे जेल से रिहा हो गए थे, पुलिसकर्मी उन्हें अपने क्षेत्रों के अन्य अनसुलझे अपराधों में पकड़ने के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे। इसलिए, जो आवश्यक है वह है पुलिस बल में व्यवहारिक परिवर्तन और अपराध का पता लगाने के लिए उन्नत वैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग करना। इन कदमों से ज्यादा आदिवासी लोगों को समावेशी समाज का हिस्सा बनाना होगा और सरकार की योजना प्रणाली को उनकी बुनियादी समस्याओं पर ध्यान देना होगा। पुलिसकर्मी उन्हें अपने क्षेत्रों के अन्य अनसुलझे अपराधों में बुक करने की प्रतीक्षा कर रहे थे। इसलिए, जो आवश्यक है वह है पुलिस बल में व्यवहारिक परिवर्तन और अपराध का पता लगाने में उन्नत वैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग करना। साथ ही आदिवासी लोगों को समावेशी समाज का हिस्सा बनाना होगा और सरकार की योजना प्रणाली को उनकी बुनियादी समस्याओं पर ध्यान देना होगा।

जस्टिस चंद्रू के मुताबिक निश्चित रूप से जय भीम जैसी फिल्में पुलिस बल और अदालती व्यवस्था को समझने में उनकी मदद करेगी। एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पुलिस के महिमामंडन का कारण काफी हद तक न्याय वितरण प्रणाली में देरी है। यदि अपराधियों को समय पर सजा दी जाती है तो पीड़ितों का न्यायपालिका पर विश्वास बढ़ेगा।

दो दशकों तक वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे जस्टिस चंद्रू

मैं लगभग 20 वर्षों तक वामपंथी आंदोलन का कार्यकर्ता था। मैंने एक छात्र कार्यकर्ता, पूर्णकालिक कार्यकर्ता, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता और एक पार्टी कार्यकर्ता के रूप में कार्य किया। राजनीतिक गतिविधियों से मैंने जो अनुभव प्राप्त किया उसने मुझे व्यवस्था की पर्याप्त समझ दी, जिसने मुझे एक वकील और एक जज के रूप में कार्य करने की पर्याप्त समझ दी थी। मुझे नहीं लगता कि राजनीतिक लोकतंत्र में कोई भी अराजनीतिक हो सकता है। राजनीतिक लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए राजनीति की सही समझ एक आवश्यक आधार है। अगर एक वकील राजनीति को समझता है तो उसके लिए कानून के कामकाज और कानून को संचालित करने वाली राजनीतिक मशीन को समझना आसान होगा। इसी तरह, एक जज जो राजनीतिक स्थिति से अनभिज्ञ है, कई मामलों में विशेष रूप से पृष्ठभूमि की स्थिति पर उसके गुमराह होने की संभावना है।

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