लॉकडाउन में कारखाने बंद होने से कम वेतन पर दूसरे काम करने को मजबूर हैं देश के लाखों मजदूर
मजदूरों की हालिया स्थिति पर विवेक कुमार की रिपोर्ट
जनज्वार ब्यूरो। प्रवीण कुमार बिहार के रहने वाले हैं। वह पिछले 21 मार्च तक दिल्ली के शाहदरा स्थित झिलमिल इंडस्ट्रियल एरिया में प्रेशर कुकर के कारखाने में बतौर कारीगर काम करते थे। अगले दिन से भारत बंद के साथ कारखाना भी बंद हो गया जो आज तक बंद है। अब प्रवीण कुमार के सामने रोजगार का बड़ा भारी संकट पैदा हो गया था। पहले वह 18000 महीने कमा लिया करते थे। अब काम नहीं तो आय भी नहीं थी क्योंकि कारखाने मालिक ने अब पैसे देने से मना कर दिया था। कोरोना की वजह से हुए इस तालाबंदी में अब उनके पास कोई रोजगार न था। परिवार साथ में था इसलिए गांव जाने के लिए भी ज्यादा हाथ पैर नहीं मारे कि गांव जाकर करेंगे क्या? वहां पर भी तो कोई काम नहीं है फिर यही आना पड़ेगा।
पहले 3 हफ्ते तो किसी तरह से कट गया। कुछ जमा बचत थी लेकिन उसके बाद परेशानियां बढ़ती गईं। बीवी और दो बच्चे, उनका भरण पोषण करने के लिए उनके पास कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। फिर किसी तरह से मित्रों संबंधियों से कुछ कर्जा लेकर और अपना पेट काटकर उन्होंने डेढ़ महीने और गुजारे। 70 दिनों की तालाबंदी के बाद 1 जून 2020 को जब तालाबंदी समाप्त हुई तो काम की तलाश में फिर उसी इंडस्ट्रियल एरिया में पहुंचे। अब वहां लगभग 40% कारखाने बंद हो चुके थे जो खुले हुए थे उनमें से अधिकतर विद्युत तारों के कारखाने थे।
अब क्योंकि जिस क्षेत्र में काम करते थे वह कारखाने बंद थे तो उन्हें मजबूरन दूसरी वस्तु की कंपनी में काम करना पड़ रहा है। बहुत ही कम मासिक वेतन (8000 रूपये) पर काम एक मजदूर के तौर पर काम में लग गए, क्या करते और कोई रास्ता भी तो ना था। जहां वह पहले प्रेशर कुकर बनाने की मशीन ऑपरेट करते थे वहीं आज वह मात्र एक अनस्किल्ड मजदूर बनकर रह गए थे। यह केवल वेतन और पद की अवनति ही नहीं थी बल्कि कुशलता उत्साह ऊर्जा और हुनर की भी अवनति थी।
यह केवल प्रवीण कुमार की कहानी नहीं है बल्कि उनके जैसे लाखों करोड़ों मजदूरों की कहानी है जो असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। असंगठित क्षेत्रों में वे सभी श्रमिक आते हैं जिनपर 1948 के फैक्ट्री एक्ट के अंतर्गत कानून लागू नहीं होता। यहां ना तो नौकरी कि कोई सुरक्षा है ना ही कोई भविष्य निधि है ना ही मजदूरों की सुरक्षा का कोई इंतजाम। यहां अत्यंत न्यूनतम वेतन दिया जाता है जो निम्न स्तर का जीवन निर्वाह के लायक भी नहीं होता है।
अधिकांश श्रमिक ऐसे उद्यमों में काम करते हैं जहां श्रम कानून लागू ही नहीं होते। ऐसे में किसी भी सरकारी योजना या स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ इन्हें नहीं मिल पाता। सामाजिक असुरक्षा बनी रहती है। इन उद्यमों में हर प्रकार की असुरक्षा होती है। बाल श्रम, महिलाओं के साथ अन्याय की सीमा तक असमानता और उनका शारीरिक, मानसिक तथा यौन-शोषण आम बात है। कई व्यवसायों में स्वास्थ्य मानकों के न होने का मसला भी चुनौती के रूप में इस क्षेत्र से जुड़ा है।
माचिस के कारखाने में काम करने वाले, कांच उद्योग में काम करने वाले, हीरा तराशने वाले, कीमती पत्थरों पर पॉलिश करने वाले, कबाड़ बीनने वाले, पीतल और कांसे के बर्तन बनाने वाले तथा आतिशबाजी बनाने वाले उद्यमों में बड़ी संख्या में बाल श्रमिक काम करते हैं। वे खतरनाक और विषाक्त रसायनों तथा ज़हरीले धुएँ आदि के संपर्क में आकर श्वास संबंधी बीमारियों, दमा, आँखों में जलन, तपेदिक, कैंसर आदि जैसी जानलेवा बीमारियों के शिकार बन जाते हैं।
जटिल आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था के बढ़ने से इन कामगारों का दैनिक जीवन कहीं ज्यादा व्यस्त और जीवन स्तर कहीं ज्यादा निम्न हो गया है। आय और व्यय के बीच असंगति ने इनकी आर्थिक स्थिति को इस लायक नहीं छोड़ा है कि ये बेहतर जीवन जी सकें। इसीलिये सरकार समय-समय पर अनेक योजनाएं चलाती तो है लेकिन इसके सामने बहुत सी बाधाएं हैं जो उन योजनाओं और नीतियों के क्रियान्वयन के आड़े आती हैं।
दिल्ली के झिलमिल औद्योगिक क्षेत्र में लघु उद्योग की हज़ारों इकाईयां लगीं हुईं हैं। इनमें से अधिकांश असंगठित क्षेत्र के अन्तर्गत आती हैं। यह क्षेत्र एशिया का सबसे बड़ा वायर मैनुफैक्चरिंग हब (Wire Manufacturing Hub) है। इस क्षेत्र के अन्य कारखानों में ज्यादातर कारखानों में हेलमेट, बर्तन, कांच का सामान, स्टील का सामान प्लास्टिक का सामान खिलौने इत्यादि बनते हैं। महामारी के कारण जब सरकार ने देशबंदी की घोषणा की तो कुछ कारखानों में स्थायी रूप से ताले लटक गए।
कारखाने बंद हुए तो लाखों मजदूर बेरोजगार हो गए। अधिकांश तो पहले ही अपने गांव को चले गए थे लेकिन जो यहां रुक गए थे या लॉकडाउन में फंस गए थे उनके सामने रोजगार का बड़ा भीषण संकट पैदा हो गया। यहां औसतन एक कारखाने में 10 से 12 मजदूर काम करते हैं। एक कारखाना बंद होता है तो इससे लगभग 50 लोगों के सामने भोजन का संकट उत्पन्न हो जाता है। एक परिवार में 4 लोग भी हो तो यह संख्या कितनी बढ़ती जाती है। कारखानों से बाहरी रूप से जुड़े रहने वाले जैसे माल ढुलाई वाले, इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर, वेल्डर, खराद वाले हार्डवेयर की दुकानें चलाने वाले, ढाबा और चाय बेचने वालों का धंधा चौपट हो गया है।
ऐसे में जो कारखाने खुले हुए हैं उनमें काम करने वाले मजदूर तो गांव चले गए हैं और जो मजदूर यहां रुके हुए हैं वह किसी और उत्पाद के कारखानों में काम करते थे। इस तरह से एक कारखाने में दूसरे क्षेत्र के मजदूर काम कर रहे हैं जो उसके विषय में कुछ नहीं जानते। कारखाना और मजदूर दोनों एक दूसरे के लिए बिल्कुल नए हैं। कहीं पर कपड़े के कारखाने में काम करने वाला बर्तन के कारखाने में काम कर रहा है, हेलमेट के कारखाने में काम करने वाला तार के कारखाने में काम कर रहा है, टोंटी के कारखाने में काम करने वाला खिलौने के समान बनाने वाले कारखाने में काम कर रहा है।
कोरोना महामारी के पहले ही यहां बहुत सारी समस्याएं थी। अत्यंत न्यूनतम वेतन और हर वक्त प्राणों को संकट में डालकर जहां मजदूर काम करते हैं। ना सुरक्षा के पर्याप्त उपकरण होते हैं, ना ही प्राथमिक उपचार की कोई व्यवस्था होती है। शायद ही किसी कार्यकाल में फर्स्ट एड किट होती है। कर्मचारी राज्य बीमा कार्ड का आलम यह है कि कारखाने के मालिक कार्ड बनवा तो देते हैं लेकिन श्रमिकों को इसे देना नहीं चाहते। यहां शोषण तो पहले ही था लेकिन महामारी के बाद शोषण की अतिशयता हो गई है।
कारखाने के मालिक अपना सारा दिमाग इसी बात में लगाते हैं कि मजदूरों का कैसे शोषण किया जाए? ये कारखाने बिल्कुल कोल्हू की तरह होते हैं जहां श्रमिकों का तेल निकाला जाता है और जब वह काम करने लायक नहीं रहता तो उसे उठाकर खाली भूसे की तरह फेंक दिया जाता है। ना यहां कोई लेबर लॉ है, ना यूनियन है, ना कोई लीडर है। सिर्फ न्यूनतम वेतन पर काम करना आज के समय में तो बिल्कुल ऐसी स्थिति आ गई है काम तो कर रहे हैं लेकिन पारिश्रमिक कब मिले कुछ पता नहीं।
एक श्रमिक ने अपने साक्षात्कार में बताया कि भाई इन कारखानों के मालिक लोगों का वश चले तो मजदूरों से जबरन रक्तदान और उनके शरीर के अंगों को भी दान करवा लें। मालिक ऐसे बर्ताव करते हैं कि मानो आठ घंटों के लिए उसने मज़दूर को खरीद लिया हो। कोई मज़दूर अपने आप को नहीं बेचता वो अपनी सेवाएं बेचता है अपना श्रम बेचता है।