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संस्कृति

अनिता दुबे की कहानी 'गोल्डन गिफ्ट'

Prema Negi
3 Nov 2019 8:17 AM GMT
अनिता दुबे की कहानी गोल्डन गिफ्ट
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भोपाल में रेडियो और दूरदर्शन में उद्घोषिका रह चुकीं अनीता दुबे इन दिनों भले ही अपनी प्रस्तर कला के लिए चर्चा में हों, पर वह खुद भी एक रचनाकार हैं और कहानियां लिखती रही हैं। इसके अलावा बाल साहित्य भी लिखती हैं। उन्होंने महात्मा गांधी और हिंदी के यशस्वी लेखकों पर प्रस्तर कला से विलक्षण चित्र बनाये हैं। उन्होंने 'गोल्डन गिफ्ट' कहानी में एक मां और बेटे की कहानी लिखी है। उससे पता चलता है कि मानवीय रिश्तों में कितना लालच छिपा है। मेरी जॉन नामक एक बूढ़ी महिला किस तरह अपने निधन के बाद अपने बेटे के लालच का शिकार होती है। आइए पढ़ते हैं अनीता दुबे की कहानी 'गोल्डन गिफ्ट' : विमल कुमार, वरिष्ठ पत्रकार और कवि

गोल्डन गिफ्ट

बलपुर का मदन महल इलाका जहाँ शहर की सात मंजिल की पहली बिल्डिंग अपनी सूरतेहाल से बता रही थी, कि वो इतनी पुरानी नहीं हैं जितने उसमें रहने वाले लोग हैं। कालोनी में कुछ चार पांच नीम और आम के पेड़ थे और कुछ अशोक के पेड़ों की झुरमुट में बुजुर्गों का समूह अक्सर वहाँ रखी बेंच पर बैठे बतियाते दिख जाते थे।

देखकर लगता था, मानो एक ही विभाग के कई रिटायर लोगों ने मिलकर इसे खरीदा है। सभी लगभग हम उम्र से दिखते थे, कोई अपने बेटे-बहू के साथ तो कोई बेटी दामाद के साथ रहते थे।

स बिल्डिंग की खास बात यह थी कि पूरे अट्ठाइस घरों में बच्चों के जन्मदिन सभी मिलकर मनाते थे और बुजुर्गों के जन्मदिन पर सभी मिलकर उस बुजुर्ग के लिए केक और गानों की पैरोडी बनाकर पार्टी करते थे। जिसे तोहफा देना हो वो अपनी मर्जी से दे सकता था।

निर्मल और ज्योति दो बहनें जो साठ और बासठ साल की थी, वो भी इसी बिल्डिंग में रहती थीं। बिजली विभाग से सुपरिन्टेन्डेन्ट रिटायर हुई निर्मल ने शादी नहीं की थी और ज्योति के पति बहुत कम उम्र में चल बसे थे। ज्योति का एक बेटा था जो अमेरिका में नौकरी कर रहा था। ज्योति अक्सर अपनी दीदी के पास अपने ससुराल कटनी से जबलपुर आ जाती थी।

ज्योति का परिवार यूँ तो भला पूरा था, मगर पता नही क्यों घर के कोई भी मर्द जिन्दा नहीं बचे थे। सिर्फ महिलाएं बची थीं। ज्योति के मन में एक आशंका रहती थी। इसलिए अपने बेटे को अमेरिका भेज दिया था।

अक्सर जबलपुर आकर अपनी बड़ी बहन निर्मल के साथ ही रहती थी। दोनों बहनें खूब खुश रहती मिलकर सारे काम करती और कुछ ऐसे काम भी करतीं, जिससे लोग सीख सकें।

पनी बिल्डिंग में लगे दो अशोक के पेड़ और चार आम के पेड़ इन्हीं बहनों ने अपने हाथ से लगाये थे। सारी बिल्डिंग के पूरे अट्ठाइस घरों में आम की फसल आने पर बांटे जाते थे, यह काम भी दोनों बहनें किसी और की मदद के बिना ही करती थी।

भी शाम को पार्क में बैठ बच्चों को कहानियाँ सुनाती थी तो कभी जिन बच्चों को गाने सीखने हो, उन्हें घर में बुलाकर गाने सिखाती थी। दोनों ने प्रयाग संगीत विश्वविद्यालय से एमए म्यूजिक भी किया था। संगीत के शौक से दोनों बहनें हमेशा गुनगुनाती रहती थी। घर में कई पुराने गानों का भंडार था, कुछ बच्चे तो रोज ही सीखने आते तो हारमोनियम की आवाज से पूरी बिल्डिंग संगीत की तान से भर जाती। आते-जाते लोग भी गुनगुनाये बिना नहीं रहते।

निर्मल की गणित और ज्योति की अंग्रेजी भी अच्छी थी। कभी—कभी रविवार की पाठशाला लगाती, जिसमें कक्षा 3 से आठ तक के वो बच्चे जिन्हें कुछ जरूरत है। उनकी दो तीन घंटे सुबह क्लास लेती, इस प्रकार दोनों बहनें बुढ़ापे में कई नेक कामों में खुशियाँ जोड़ती थीं। सभी खुश रहते थे। सभी उम्र के लोग उन बहनों को बड़ी जिज्जी छोटी जिज्जी कहते थे।

क्सर बिल्डिंग के सभी लोग घर में बने स्वादिष्ट भोजन या मिठाई एक दूसरे के घर भेजते थे। जिज्जी के घर तो मानो कोई न कोई मिठाई हमेशा रहती थी और वो उसे भी अपने घर काम करने वाली चंदा को ऊसके बच्चों के लिए दे देती थी।

भी किसी को अचानक बाहर जाना हो तो घर की चाबियाँ जिज्जी के पास रखकर जाते कभी किसी को पैसों की जरूरत हो तो मांग लेते। या कभी कोई मेहमान अचानक आया हो तो भी जिज्जी की काम वाली उस घर जाकर हाथ बाँटती या बच्चों को छोड़कर कहीं जाना है तो भी जिज्जी के घर बच्चे खुशी से रह जाते, क्योंकि उनके घर बच्चों को वीडियो गेम कार्टून कहानी केक सभी कुछ तो मिल जाता था, जो उन्होंने बच्चों के लिए ही खरीदकर रखे थे। कुल मिलाकर सारे इलाज की दवा थी दोनों बहनें। बच्चों में बिल्कुल बच्ची बनकर खेलती थी। सभी की चहेती बहनें इस ढलती उम्र में अपने पड़ोसियों से परिवार का सुख लेकर खुश रहती थीं।

ड़ोसी शर्मा जी अपने बेटे बहू के साथ रहते थे, उनकी पत्नी चार साल पहले गुजर गई थी। मगर दोनों जिज्जी के भाई समान थे उनका भी ये खूब ख्याल करती थी। राखी पर सूजी के लड्डू, रुमाल रखकर राखी बांधती और तोहफे में 10-10 रुपए ही लेती।

बीमार होने पर पूरी बिल्डिंग से कोई न कोई उन्हें डाॅ. के पास ले ही जाता। मारूति कार तो जिज्जी ने नौकरी करते समय ही ले रखी थी और कहीं जाना होता तो अपने कामवाली चंदा के आटो ड्राइवर पति को बता देती तो वो उन्हें ले जाता और जिज्जी अपने साथ उसे भी रैस्टोरेंट ले जाती और अपना प्रिय इडली डोसा खिलाती।

दोनों जिज्जी का सगा या रिश्तेदार कोई नहीं था जो खोज-खबर रखे बिना परिवार के होते हुए भी दोनों के व्यवहार के कारण पूरी बिल्डिंग ही उनका परिवार बन गया था।

ठीक जिज्जी के घर के सामने मेरी जाॅन क्रिश्चियन आंटी रहती थी। वो भी बिजली विभाग से जिज्जी के साथ ही रिटायर हुई थी। विभाग में एकाउंटेंट थी। दोनों की मित्रता तो थी, मगर घनिष्टता नहीं। मेरी जाॅन का एक बेटा था, जो पादरी हो गया था, और बेटी ने लंदन की नागरिकता ले ली थी। बेटा कभी-कभी गोवा से जबलपुर अपनी माँ को देखने कुछ घंटो के लिए आता तो साथ बहुत से धर्म अनुयायी लोग रहते। जिज्जी तब भी सभी के चाय नाश्ते की जिम्मेदारी लेकर सभी का स्वागत करती।

मेरी जाॅन कुछ अड़ियल स्वभाव की थी, जल्दी किसी से घुलती मिलती नहीं थी और अकेले घर में एक सहायक के साथ समय गुजारती।

क एक्सीडेंट में पैर टूट चुका था और व्हीलचेयर पर बैठे बैठे सारा दिन टीवी देखती थीं। मगर बिल्डिंग के लोग सभी उनका ख्याल रखते थे। अपने बेटे के घर आने पर अक्सर लड़ाई कर लेती थी कि चिल्लाने और डांटने की आवाज़ें सुनकर सब अंदाज लगा लेते कि मामला कुछ सही नहीं है।

कुछ साल तो पेंशन से गुजारा चल रहा था, मगर ना जाने क्या सोचकर और किसकी सलाह पर अपनी पेंशन के साल कम कर एक साथ पैसे लेकर बेटे के एनजीओ में दान कर दिये थे कि अब रोज की ज़रूरतें ही पूरी हो पा रही थीं। यह बात जिज्जी जानती थी।

मेरी जाॅन पियानो बजा लेती थी। जब कभी अच्छे मूड में होती तो दरवाज़े से पियानो की आवाज़ छन कर आ जाती थी, और दोनों जिज्जी समझ जाती कि मेरी जाॅन आज खुश हैं।

क्सर जब भी जाॅन आंटी के घर मछली बनती तो पूरी बिल्डिंग जिसमें ज्यादातर लोग शाकाहारी थे समझ जाते कि जाॅन आंटी के घर आज कोई आ रहा है। नाक भौं सिकोड़ते, मगर फिर सभी भूल जाते। यूँ तो सभी एक दूसरे का सहारा थे, मगर जाॅन आंटी के रूखे रवैये के कारण कोई भी ज्यादा घुलता मिलता नहीं था।

सिर्फ दोनों जिज्जी थी, जो हमेशा उनका हाल चाल जानती। क्रिसमस पर लोग उनके घर छोटे छोटे तोहफे लेकर इकट्ठा होते और मेरी जाॅन सभी को चॉकलेट के साथ केक के छोटे-छोटे टुकड़े जरूर खिलाती और पियानो पर एक दो धुन बजाती।

मेरी जाॅन का घर और जिज्जी का घर पहली मंजिल पर ही था तो हर आता जाता उनको पता होता था कि किस वक्त कौन घर आया। किसके घर डाकिया आया पार्सल आया या कुरियर वाला आया।

किसी के घर ताला लगा होने पर भी जिज्जी का घर जिन्दाबाद रहता। अब तो डाकिया और कुरियर वालों को भी पता पड़ गया था कि ताला मिलने पर सामान किधर देना है।

क्सर दोनों जिज्जी और मेरी जाॅन अपने अपने दरवाजों पर घण्टों बैठकर गप्पें लगाती थी। कई तीज त्यौहार का आगमन इनके दरवाज़े पर ही हो जाता था। वैसे तो मेरी जाॅन क्रिश्चियन थी, मगर बरसों से जबलपुर में रहने के कारण सभी त्योहारों की अच्छी जानकारी रखती थीं।

भी सोमवार की अमावस्या पड़े तो पहले जिज्जी को बता देती कि कल तो तुम्हारी सोमवती अमावस्या है या कल तो पूस लग रहा है या अरे आज तो संतान सप्तमी है। इस प्रकार पूरे त्यौहार मुँह जुबानी याद रखने वाली जाॅन आंटी हिन्दू त्यौहारों की अच्छी जानकारी रखती थी। नर्मदा स्नान जाने के दिनों भी कई बार महिलाओं के साथ झुण्ड में स्नान करके आई थी। बस जब से व्हीलचेयर पकड़ी थी, तभी से बाहर आना जाना बंद था।

कुछ दिनों से मेरी जाॅन के घर का दरवाज़ा बंद था। मगर अंदर से टीवी चलने की आवाज़ आती रहती थी। दोनों जिज्जी नर्मदा परिक्रमा के लिए गई थी। जब लौटीं तो देखा मेरी जाॅन का दरवाजा बन्द ही है। उस दिन तो दोनों जिज्जियों ने कुछ ना सोचा। दूसरे दिन भी जब कोई हलचल नहीं थी, तब कामवाली चंदा ने बताया की कुछ दिनों से उनकी तबीयत ठीक नहीं है।

निर्मल और ज्योति दोनों ने दस बजते ही मेरी के दरवाजे पर दस्तक दी, बहुत देर तक दरवाज़े पर दोनों खड़ी रही। तब जाकर धीरे से किसी ने दरवाजा खोला। देखा की मेरी जाॅन आंटी के बाल बिखरे थे। कपड़े भी अस्त व्यस्त थे आँखें लाल हो रखी थीं।

निर्मल ने तुरन्त पूछा "अरे का हुआ? तबीयत ठीक ना लग रही। लगता है ज्यादा बीमार है? क्या हुआ ... बेटा को बुलावा भेजें क्या?'

मेरी जाॅन पहले तो मुस्काईं फिर जोर से चिल्लाकर बोलीं, तुम दोनों को क्या काम ...मैं मरे या जिए ..

मेरा घर मैं जैसा मांगती वैसा रहूँ। मेरे साथ मेरा गाॅड है। जास्ती जरूरत नहीं है... रहना है तो रहो वरना...'

भी इतना कहना था कि दोनों जिज्जी उनकी इतनी बात सुनकर आवाक सी रह गईं। सोचने लगीं, ... वैसे पहले भी कोई बहुत घनिष्ठ मित्र तो थी नहीं, बस पड़ोसी और सामने घर पर अकेली रहती महिला के नाते की दोस्ती थी। मगर उनसे इस प्रकार के व्यवहार की उम्मीद नहीं थी, जबकि ये दोनो बहनें तो खूब ध्यान रखती थी।

दोनों ने बड़ी समझदारी से कहा, 'हाँ हाँ आपका घर है ...हम तो आपकी तबीयत भर पूछने आये थे... सुबह से कुछ खाया कि नहीं? डाॅ. के पास चलोगी या डाॅक्टर को बुलायें?'

ब थोड़ा मुँह बनाकर जॉन आंटी बोली, 'क्यों तुम लोग मेरे पीछे पड़े हो। क्या हमारा ब्लड का रिश्ता है?'

निर्मल और ज्योति दोनों ने गर्दन हिलाकर कहा, 'नहीं बहन जी... रिश्ता तो खून का नहीं है, मगर आपको बरसों से जानते हैं। आप हमारी पड़ोसी हो तो एक ही छत के नीचे यदि हम रहते हैं। तब हम परिवार ही हुए ना!'

मेरी जाॅन कुछ फीकी हंसी हँसकर बोली...'तुम अपना घर देखो, मेरा बेटा है।'

भी दोनों जिज्जी ने कहा अच्छा... अच्छा... ठीक है ...हम जाते हैं कुछ जरूरत हो तो कहना।'

दो-तीन दिन तक दोनों जिज्जी ने बिना दरवाजा खटकाये ध्यान रखा कि अंदर से आवाज़ आ रही की नहीं सब ठीकठाक तो है। पूरी बिल्डिंग में सभी को मालूम हो गया था कि जाॅन आंटी की तबीयत ठीक नहीं है, मगर उनकी खोज—खबर कौन करे? उनके रूखे व्यवहार ने लोगों को उनसे दूर किया था।

ब जबकि दोनों जिज्जी सामने रह रही थी तो दोनों ही बन्द दरवाज़े को देखती और बातें करतीं। बेटे का फोन नंबर सोसाइटी आफिस से लेकर उसे भी बता चुकी थी और बेटी जो विदेश में थी, उसे भी खबर करना चाहती थी। मेरी जाॅन की देखभाल करने वाली लड़की से भी हर दिन बाहर पूछा जाता था।

बेटे ने कहा तो था देखता हूँ मम्मी को देखने अगले सप्ताह कब आ सकता हूँ। इस बीच देखभाल करने वाली लड़की के बच्चे का एक्सीडेंट हुआ और उसे कुछ दिन की छुट्टी चाहिए थी, तब निर्मल ने सभी बिल्डिंग के लोगों से बात की और एक सप्ताह देखभाल करने के लिए सभी की ड्यूटी लगाई गई। हर दिन सुबह दोपहर शाम सिर्फ यह ध्यान रखा जाता कि कोई ना कोई यह आहट लेता रहे की अंदर से टीवी की आवाज़ आ रही है। साथ ही निर्मल और ज्योति उनके खाने की व्यवस्था भी करते रही, मगर जाॅन आंटी का व्यवहार कुछ उखड़ा सा ही रहा।

गातार सात दिन की अच्छी देखभाल से मेरी जाॅन की हालत ठीक हो गई।

संडे का दिन था। मेरी जाॅन घर पर ही प्रेयर कर रही थी। उनकी देखभाल करने वाली लड़की घर के काम पूरे कर रही थी, तभी कुछ गिरने की आवाज़ आती है वो दौड़कर बाहर कमरे में आती है तो देखती है व्हीलचेयर पर मेरी आंटी के एक हाथ में बाइबिल झूल रही है और मोमबती का स्टैण्ड नीचे गिरा है।

वो आंटी को आवाज़ लगाती है, मगर आंटी की खामोश निगाहें उसे देख रही होती है। दौड़कर सामने से दोनों जिज्जी को बुलाती है और बिल्डिंग के सभी लोगों को भी आवाज़ देती है।

जिज्जी के साथ कुछ और लोग वहाँ जमा होते हैं। देखते हैं कि शरीर में कुछ भी हलचल नहीं है, मगर आँखें कुछ बोल रही है।

जाॅन आंटी, बहन जी...जाॅन आंटी, बहन जी... सभी लोग घेरे थे कोई डाॅक्टर को बुलाने गया, तभी निर्मल को लगा कि जाॅन आंटी की उंगलियों में कुछ हरकत है। वो इशारे से कुछ कह रही हैं। जहाँ जीजस की तस्वीर है, वहीं नीचे एक गोल्डन रंग के पेपर से लिपटा बॉक्स रखा है।

निर्मल झट तस्वीर के पास जाती है और इशारे से पूछती है कि यह ...चाहिए।

मेरी की पलक झपकती है हाँ में...

निर्मल उस बॉक्स को उठाती है और उसे मेरी के पास लाती है, बगल में ज्योति भी खड़ी थी। मेरी दोनों को देखती रहती है और उनकी आँखों से आंसू झलक जाता है। आँख से गिरने के पहले ही आँखें पथरीली हो जाती हैं।

दोनों उस बाक्स को लेकर घर आ जाती हैं।

मेरी जान संसार को विदा कर चुकी थी।

बेटा आया और साथ लाया वकील को। घर के पेपर अपने नाम होने की चाह में बेहद खुश था। जाॅन आंटी के लिए सभी ने कॉलोनी में शोकसभा रखी सभी को उनकी अच्छी बातें ही याद आईं।

ड़की विदेश से नहीं आ सकी उसने वीडियो काॅल करके अपनी माँ के लिए संवेदना व्यक्त की।

भी सप्ताह ही बीता था दोनों जिज्जी उदास सी थीं। सुबह कोई दस बजे थे, धूप में कुर्सी डालकर बैठी थी कि तभी मेरी जाॅन के घर से तेज आवाजें आईं। दोनों चौंकी और देखती हैं वकील पुलिस के साथ है। मसला क्या है? किसी ने पूछा तो पता पड़ा कि जॉन आंटी अपनी वसीयत में घर को सोसायटी के बच्चों के लिए लाइब्रेरी और संगीत कक्षा के लिए दे गई हैं। घर का टूटा—फूटा बचा सामान गृहस्थी ही बेटे को दी है। पेंशन के बचे कुछ हजार रुपए जो बैक में हैं वो देखभाल करने वाली लड़की के लिए देने कहा है।

न सभी बातों से लड़का काफी नाराज़ है और वकील से बहस कर रहा है। तीन दिन के अंदर उसे घर छोड़ना होगा।

भी स्तब्ध थे। चुपचाप कार्यवाही देख रहे थे। आखिर लड़के को सामान खाली कर जाना पड़ा। सिर्फ दीवार पर जीजस की तस्वीर लटकी थी और कुछ पुराना फर्नीचर पियानो ही छोड़ गया था। दोनों जिज्जी को याद आया कि गोल्डन बॉक्स भी दिया था। गोल्डन तोहफे में आखिर है क्या?

दोनों जब बॉक्स खोलती हैं तो देखती हैं एक ख़त है जिसमें लिखा था, "ब्लैसिंग्स...दुआएँ...

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