सुप्रीम कोर्ट ने की सीबीआई निदेशक पद पर आलोक वर्मा की बहाली, विवाद की जड़ में हाई प्रोफ़ाइल मामले
सवाल है कि जिस आलोक वर्मा को मोदी सरकार ने स्वयं सीबीआई चीफ नियुक्त किया था, उन्हें उनके कार्यकाल के समाप्त होने के चार महीने पहले क्यों जबरन अवकाश पर भेज दिया गया? क्या इसके पीछे दो शीर्ष अफसरों की लड़ाई है या मामला है ज्यादा गहरा...
वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट
जनज्वार। उच्चतम न्यायालय ने सीबीआई के निदेशक आलोक कुमार वर्मा को छुट्टी पर भेजने के केंद्रीय सतर्कता आयोग एवं कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के आदेश को मंगलवार 8 जनवरी को निरस्त कर दिया। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति के. एम. जोसेफ की पीठ ने वर्मा को सीबीआई निदेशक का कार्य पुन: सौंपने का आदेश दिया।
पीठ ने हालांकि वर्मा को फिलहाल नीतिगत फैसलों से दूर रहने का आदेश दिया। इसके साथ ही यह सवाल भी उठ रहा है कि जिस आलोक वर्मा को मोदी सरकार ने स्वयं सीबीआई चीफ नियुक्त किया था, उन्हें उनके कार्यकाल के समाप्त होने के चार महीने पहले क्यों जबरन अवकाश पर भेज दिया? क्या इसके पीछे दो शीर्ष अफसरों की लड़ाई है या मामला ज्यादा गहरा है।
सवाल है कि क्या केंद्र सरकार को सीबीआइ निदेशक आलोक कुमार वर्मा की सरकार के प्रति ‘वफादारी’ पर शक हो गया था कि वे कतिपय संवेदनशील मामलों में ऐसे निर्णय ले सकते हैं जिससे मोदी सरकार की छवि पर गंभीर धक्का लग सकता था और इसलिए सीबीआइ में स्पेशल डायरेक्टर के रूप में राकेश अस्थाना के माध्यम से अलोक वर्मा पर सीधी नज़र रखी जा रही थी।
लेकिन जब विवाद अनियंत्रित होने लगा और वर्मा तथा विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच छिड़ी जंग सार्वजनिक हो गयी तो सरकार ने पिछले साल 23 अक्टूबर को दोनों अधिकारियों को उनके अधिकारों से वंचित कर अवकाश पर भेज दिया था। दोनों अधिकारियों ने माेइन कुरैशी के मामले की जांच को लेकर एक दूसरे पर रिश्वतखोरी के आरोप लगाए थे।
विवाद की जड़ में कहीं हाईप्रोफाइल मामले तो नहीं
गौरतलब है की सीबीआई के समक्ष लंबित संवेदनशील मामलों में राफेल सौदे की शिकायत वाली फाइल आलोक वर्मा के पास है। इस सौदे को लेकर कांग्रेस मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर रही है। आलोक वर्मा को चार अक्टूबर को भाजपा नेता यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने 132 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी थी तथा जाँच की मांग की थी। इन तीनों से मिलने पर मोदी सरकार अप्रसन्न थी।
मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया केस का मामला बहुत गंभीर है और इसके छींटे तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा तथा इंडिया टीवी से जुड़े और संघ के नजदीकी पत्रकार हेमंत शर्मा तक पर पड़े थे। विवाद से बचने के लिए इंडिया टीवी ने हेमंत शर्मा को कार्यमुक्त कर दिया था। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया में भ्रष्टाचार का मामला भी आलोक वर्मा देख रहे हैं। इसकी फाइल भी इनके पास है।
इस मामले में कई उच्च स्तरीय लोग जुड़े हैं। इस भ्रष्टाचार में इन लोगों की भूमिका की जांच चल रही थी। इसमें उड़ीसा हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश आईएम कुद्दुसी का भी नाम शामिल है, जो जमानत पर छूटे हुए हैं। कुद्दुसी के खिलाफ चार्जशीट तैयार है और उन पर आलोक वर्मा के दस्तख़त होने बाकी थे।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एसएन शुक्ला का नाम भी इस मामले में सामने आया था। उन्हें मेडिकल सीटों पर ऐडमिशन में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते छुट्टी पर भेज दिया गया था। इस मामले में प्राथमिक जांच पूरी कर ली गई थी और सिर्फ़ आलोक वर्मा के हस्ताक्षर की ज़रूरत थी। न्यायाधीश एसएन शुक्ला से सुप्रीमकोर्ट के निर्देश पर काम वापस ले लिया गया है।
आलोक वर्मा के समक्ष एक और मामले में भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी के सीबीआई को सौंपे वो दस्तावेज़ शामिल हैं जिनमें उन्होंने वित्त एवं राजस्व सचिव हंसमुख अधिया के ख़िलाफ़ शिकायत की है। कोयले की खदानों का आवंटन मामले की फाइल भी आलोक वर्मा के दफ्तर में है। कोयले की खदानों के आवंटन मामले में प्रधानमंत्री के सचिव आईएएस अधिकारी भास्कर खुलबे की संदिग्ध भूमिका की सीबीआई जांच की जा रही थी। इसके अलावा नौकरी के लिए नेताओं और अधिकारियों को रिश्वत देने के संदेह में दिल्ली आधारित एक बिचौलिए के घर पर छापा मारा गया था। इस मामले की भी जांच चल रही है।
इसमें संदेसरा और स्टर्लिंग बायोटेक मामला बहुत महत्वपूर्ण है। संदेसरा और स्टर्लिंग बायोटेक के मामले की जांच पूरी होनी वाली थी। इसमें सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना की कथित भूमिका की जांच की जा रही थी। करीब एक साल से सीबीआई निदेशक और विशेष निदेशक के बीच विवाद चल रहा है।
आलोक वर्मा के मामले में पुनर्विचार का आदेश
उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान अधिनियम की धारा चार (एक) के तहत उच्चाधिकार समिति को आलोक वर्मा के मामले में पुनर्विचार करने का आदेश दिया। समिति का फैसला आने तक आलोक वर्मा कोई महत्वपूर्ण नीतिगत फैसला नहीं ले सकेंगे। इस समिति में प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और चीफ जस्टिस होते हैं।
न्यायमूर्ति कौल ने फैसला सुनाते हुए 'विनीत नारायण एवं अन्य बनाम भारत सरकार' मामले में शीर्ष अदालत के फैसले का उल्लेख किया। पीठ ने कहा कि विनीत नारायण मामले में न्यायालय की ओर से दिशा निर्देश जारी करने का उद्देश्य सीबीआई निदेशक को राजनीतिक हस्तक्षेप से संरक्षित रखना है। पीठ ने स्थानांतरण (ट्रांसफर) शब्द की व्याख्या करते हुए कहा कि इस शब्द का कोई संकुचित अर्थ नहीं होता, बल्कि इसे उन सभी कार्यों से विलग करने के तौर पर समझा जाना चाहिए, जो सीबीआई निदेशक के कामकाज को प्रभावित करते हैं।
सीबीआई निदेशक को ट्रांसफर पर भेजा जाना छुट्टी के समान नहीं है। संस्थान का मुखिया एक रोल मॉडल होना चाहिए। सीबीआई की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए बना सेलेक्ट कमेटी की मंजूरी के बिना ट्रांसफर कानून के खिलाफ है।
उच्चतम न्यायालय ने वरिष्ठ आईपीएस अफसर एम नागेश्वर राव को सीबीआई का कार्यकारी प्रमुख बनाए जाने का केंद्र का आदेश भी निरस्त कर दिया। न्यायालय ने कहा कि ऐसा कोई कानून नहीं है कि सरकार चयन समिति की इजाजत के बगैर सीबीआई निदेशक को पद से हटाए। न्यायालय ने कहा कि नियुक्ति, पद से हटाने और तबादले को लेकर नियम स्पष्ट हैं। ऐसे में कार्यकाल खत्म होने से पहले आलोक वर्मा को पद से नहीं हटाना चाहिए था।
क्या सेलेक्ट कमेटी की बैठक एक सप्ताह के अंदर होगी
अब प्रश्न यह है कि क्या सेलेक्ट कमेटी की बैठक एक सप्ताह के अंदर होगी? क्या सरकार के पास कोई विकल्प है कि उच्चतम न्यायालय ने जो सात दिनों की समयसीमा दी है, उसे आगे बढ़ाया जा सके? उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि एक हफ्ते के अदंर देश के प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया और नेता प्रतिपक्ष बैठ कर फैसला लें, क्योंकि आलोक वर्मा के पास बहुत कम वक्त है।
लेकिन सरकार को सलेक्ट कमेटी के समक्ष ठोस सबूत सहित सारा प्रकरण रखना पड़ेगा जो अत्यंत मुश्किल है, क्योंकि मामले की सुनवाई के समय ही सीवीसी की जाँच रिपोर्ट न्यायालय ने देख रखा है, जिसके बाद आलोक वर्मा की भली का फैसला आया है। उच्चतम न्यायालय के फैसले से यह भी साफ हो गया है कि सीबीआई डायरेक्टर पर किसी प्रकार का अगर कोई एक्शन भविष्य में लिया जाता है तो वह निर्णय भी सेलेक्ट कमेटी ही लेगी, न कि सरकार या सीवीसी।
माेइन कुरैशी मामले की जांच से शुरू हुआ रिश्वतखोरी विवाद
अस्थाना मीट कारोबारी मोइन कुरैशी से जुड़े मामले की जांच कर रहे थे। जांच के दौरान हैदराबाद का सतीश बाबू सना भी घेरे में आया। एजेंसी 50 लाख रुपए के ट्रांजैक्शन के मामले में उसके खिलाफ जांच कर रही थी। सना ने सीबीआई चीफ को भेजी शिकायत में कहा था कि अस्थाना ने इस मामले में उसे क्लीनचिट देने के लिए 5 करोड़ रुपए मांगे थे। हालांकि, 24 अगस्त को अस्थाना ने सीवीसी को पत्र लिखकर डायरेक्टर आलोक वर्मा पर सना से दो करोड़ रुपए लेने का आरोप लगाया था।