मोदी सरकार ने सीबीआई चीफ आलोक वर्मा मामले में रातोंरात जितनी बड़ी कार्रवाई की, 20 घंटे के अंदर दोबारा उन्हें उनके पद से हटा दिया, यह घटना न सिर्फ देश के संविधान का हनन करती है, बल्कि चीफ जस्टिस और नेता प्रतिपक्ष की गरिमा व अधिकारों का भी हनन करती है
सुशील मानव की रिपोर्ट
जनज्वार। 20 दिन बाद तो रिटायर ही हो रहे थे सीबीआई चीफ आलोक वर्मा, फिर ऐसा क्या कारण था कि मोदी सरकार द्वारा 20 घंटे के भीतर ही उन्हें दोबारा उनके पद से हटा दिया गया। ऐसा क्या कारण था कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की धज्जियां उड़ाते हुए लोकतंत्र की मर्यादा तक को तार तार कर दिया गया, जबकि कोर्ट ने एक दिन पहले के अपने फैसले में सीबीआई चीफ को ताकतहीन कर दिया था।
उनके भविष्य पर फैसला सेलेक्ट कमेटी को एक सप्ताह में करना ही था, फिर सरकार को इतनी हड़बड़ी क्यों मची थी। ये तो सरकार द्वारा गाँव में कही जाने वाली उस कहावत को चरितार्थ करना है कि चोर की दाढ़ी में तिनका। तो क्या सरकार ने ये सारी कवायद महज दाढ़ी में तिनके के चलते की है। तो क्या सचमुच सरकार की जान उस तोते में फँसी थी।
जी हाँ सरकार की जान सचमुच उस तोते में बसी थी, जिसका नाम राकेश अस्थाना है। सीबीआई चीफ आलोक वर्मा ने दोबारा नौकरी पर बहाल होते ही उन 11 अफसरों के ट्रांसफर कैंसिल कर दिए थे जो राकेश अस्थाना के खिलाफ जाँच कर रहे थे। राकेश अस्थाना के खिलाफ़ जाँच होने से सरकार को क्या परेशानी है?
राकेश अस्थाना गुजरात कैडर के अधिकारी हैं और मोदी-शाह के करीबी रहे हैं। पुलिस के कई विवादित मामलों को सुलझाने में उनका नाम शामिल रहा है। इनमें से एक मामला गुजरात दंगों का भी है। उनकी जांच के बाद 2002 के दंगों में मोदी को क्लीनचिट मिली थी, जो उस दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री थे। ख़ास बात ये कि गुजरात में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री और अमित शाह गृह मंत्री रहते अस्थाना उस दौर में गुजरात के प्रमुख पदों पर रहे हैं।
साल 2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आई, अस्थाना का नाम आंतरिम निदेशक के रूप में सामने आया। याद दिला दें कि राकेश अस्थाना ने अपने अब तक के करियर में उन अहम मामलों की जांच की है जो कि वर्तमान राजनीतिक समीकरणों के लिहाज से बेहद ख़ास रहे हैं। इन मामलों में गोधरा कांड की जांच, चारा घोटाला, अहमदाबाद बम धमाका और आसाराम बापू के ख़िलाफ़ जांच शामिल है।
मोदी-शाह की केंद्र सरकार ने इससे पहले 2016 में सीबीआई में वरिष्ठता के क्रम में नंबर दो पर तैनात अधिकारी आर के दत्ता का तबादला अचानक गृह मंत्रालय में कर दिया था। जबकि वरिष्ठता के हिसाब से दत्ता सीबीआई के निदेशक बन सकते थे, लेकिन उनका तबादला तब के डायरेक्टर अनिल सिन्हा के रिटायर होने से ठीक दो दिन पहले कर दिया गया? आर.के दत्ता को रास्ते से हटाने के बाद राकेश अस्थाना को सीबीआई का अंतरिम निदेशक नियुक्त कर दिया गया।
अस्थाना की नियुक्ति आगे चलकर स्थायी हो गई होती, लेकिन वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने अस्थाना की नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी। फरवरी 2017 में आलोक वर्मा सीबीआई के प्रमुख नियुक्त किए गए और कुछ माह बाद ये मामला फिर से तूल पकड़ने लगा। जब सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा ने राकेश अस्थाना को स्पेशल डायरेक्टर नियुक्त किए जाने का ये कहते हुए विरोध किया कि उनके ख़िलाफ़ कई तरह के संगीन आरोप हैं और जब तक मामले में जांच जारी है, उन्हें केंद्रीय जांच एजेंसी में नहीं होना चाहिए।
पूरे मामले की शुरुआत होती है सीबीआई चीफ आलोक वर्मा द्वारा सीबीआई के स्पेशल डायरेक्टर राकेश कुमार अस्थाना के खिलाफ़ कार्रवाई करते हुए एफआईआर दर्ज करके जांच टीम बैठाने के बाद से। राकेश अस्थाना के ख़िलाफ़ ये एफआईआर सीबीआई ने हैदराबाद के बिज़नेसमैन सतीश बाबू की शिकायत पर दर्ज की। सीबीआई चीफ को भेजी शिकायत में कहा था कि अस्थाना ने इस मामले में उसे क्लीनचिट देने के लिए 5 करोड़ रुपए मांगे थे।
अस्थाना मीट कारोबारी मोइन कुरैशी से जुड़े मामले की जांच कर रहे थे। जांच के दौरान हैदराबाद का सतीश बाबू सना भी घेरे में आया। सतीश बाबू ने आरोप लगाया कि उन्होंने अपने ख़िलाफ़ जांच रोकने के लिए अस्थाना को तीन करोड़ रुपयों की रिश्वत दी। सतीशबाबू ने रिश्वत दुबई में रहने वाले मनोज प्रसाद की मदद से दी। एफ़आईआर के मुताबिक, मनोज प्रसाद का दावा था कि वो सीबीआई में लोगों को जानता है और जांच को रुकवा सकता है। बता दें कि सतीश बाबू के ख़िलाफ़ जो जांच चल रही थी कि उसकी अगुआई राकेश अस्थाना कर रहे थे।
सीबीआई के स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना ने अपने ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज होने के बाद आलोक वर्मा के ख़िलाफ़ सीवीसी में कथित भ्रष्टाचार के 10 मामले दर्ज कराए थे। लेकिन इस बीच एक और जाँच एजेंसी- केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) भी लोगों के फ़ोकस में आ गई। साथ ही एक बार फिर से आयोग प्रमुख के.वी. चौधरी भी चर्चा में आ गए हैं, जिनकी सीवीसी में नियुक्ति का मशहूर वकील राम जेठमलानी ने जमकर विरोध किया था और मामला सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े तक जा पहुँचा था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साल 2015 में भेजी गई चिट्ठी में राम जेठमलानी ने चौधरी पर 'आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने' और 'भ्रष्ट व राष्ट्र-विरोधी तत्वों से मदद लेने' का आरोप लगाया था। राम जेठमलानी केवी चौधरी की नियुक्ति के पक्का होने पर इस क़दर नाराज़ हुए थे कि उन्होंने प्रधानमंत्री से ये तक कह डाला था कि "आपके लिए मेरा घटता हुआ सम्मान आज पूरी तरह ख़त्म हो गया।"
बता दें कि प्रधानमंत्री ने 23 अक्टूबर की शाम ही आलोक वर्मा को मुलाक़ात के लिए बुलाया था और फिर उसी रात सीबीआई में 'तख़्तापलट' करते हुए उन्हें जबरन छुट्टी पर भेजकर उनके ऑफिस को सील कर दिया गया। उन्हें उनके घर में नजरबंद कर दिया गया। आलोक वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेजकर उनकी जगह पर चौथे नंबर के तोते यानि नागेश्वर राव को बिठा दिया। साथ ही एजेंसी के लगभग दर्ज़न भर अधिकारियों का तबादला कर दिया गया है और इनमें वो अधिकारी शामिल थे जो अस्थाना के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के मामले की जांच कर रहे थे।
इसके दो दिन बाद ही आलोक वर्मा के सुरक्षा गार्डों ने तीन आईबी के जासूसों को अपने घर के पास से पकड़ा था। जाहिर है कोई न कोई सूचना रही होगी जिसने सरकार की घबराहट को इस क़दर बढ़ा दिया कि रातोंरात इतनी बड़ी कार्रवाई की जो न सिर्फ देश के संविधान के हनन करती है, बल्कि चीफ जस्टिस और नेता प्रतिपक्ष की गरिमा व अधिकारों का भी हनन करती है।
सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति एक उच्च स्तरीय कमेटी करती है। इस कमेटी के सदस्य प्रधानमंत्री, चीफ़ जस्टिस ऑफ इंडिया और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष होते हैं। कमेटी अपनी सिफ़ारिश सरकार को भेजती है, जिसके बाद सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति होती है। अतः उन्हें हटाने का काम भी यही समिति कर सकती है।
सितंबर 2018 में जबरन छुट्टी पर भेजे जाने के बाद सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा सुप्रीम कोर्ट पहुँच गए थे। उनकी ही याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के फैसले को उलटते हुए उन्हें 76 दिन के बाद नौकरी पर पुनः बहाल कर दिया। आलोक वर्मा ने नौकरी पर बहाल होते ही नागेश्वर राव द्वारा ट्रांसफर किए गए अधिकारियों के ट्रांसफर कैंसिल कर दिये और फिर बैखलाई मोदी सरकार की अध्यक्षता वाली स्टैंडिंग कमेटी ने 20 घंटे के भीतर ही आलोक वर्मा को दोबारा पद से हटा दिया। कमेटी का फैसला 2-1 से आलोक वर्मा के खिलाफ था। मोदी के अलावा जस्टिस सीकर सीबीआई चीफ को हटाने के पक्ष में थे जबकि कांग्रेस नेता खड़गे ने इसका विरोध किया।
सीबीआई चीफ आलोक वर्मा के पास ऐसे कई महत्वपूर्ण केस थे जिनकी जांच से चुनावी वर्ष में परेशानी में आ सकती थी मोदी सरकार। इनमें संवेदनशील मामलों में राफेल सौदे की शिकायत वाली फाइल आलोक वर्मा के पास है। इसके अलावा मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया केस भी आलोक वर्मा के पास था जिसमें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा तथा इंडिया टीवी से जुड़े और संघ के नजदीकी पत्रकार हेमंत शर्मा का नाम उछला था।
इसके अलावा वित्त एवं राजस्व सचिव हंसमुख अधिया के ख़िलाफ़ शिकायत की फाइल, कोयले की खदानों का आवंटन मामले की फाइल भी आलोक वर्मा के पास थी। जिसमें प्रधानमंत्री के सचिव आईएएस अधिकारी भास्कर खुलबे की संदिग्ध भूमिका की सीबीआई जांच की जा रही थी। इन मामलों में से अगर एक में भी जांच रिपोर्ट बाहर आ जाती तो चुनावी वर्ष में भाजपा और मोदी सरकार के लिए गले की फास बन जाती। साथ ही मुख्य विपक्षी दलों को बैठे बिठाये सरकार को भ्रष्टाचार पर घेरने का राजनीतिक मुद्दा मिल जाता।