सारे कचरे को एकत्रित कर दिया जाये तो पूरी मुंबई पर 320 मीटर मोटी कचरे की परत बन जायेगी। इस समय पृथ्वी पर लगभग हरेक व्यक्ति के हिस्से में औसतन एक टन प्लास्टिक है...
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पांडेय की रिपोर्ट
प्लास्टिक से फैलने वाला प्रदूषण विश्वव्यापी समस्या बन चुका है। इसकी जद में हमारा देश बुरी तरह आया है। राजधानी दिल्ली तो सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में शुमार है और इसी मात्रा में यहां पॉलीथीन से फैलता प्रदूषण भी बढ़ रहा है और शहरों में पॉलीथीन के पेड़ नजर आते हों या नहीं, मगर दिल्ली में आपको पॉलीथीन के पेड़ भी नजर आयेंगे।
रिपोर्ट में दिखाये गए वीडियो में साफ-साफ देखा जा सकता है कि किस तरह बेंत के पेड़ पॉलीथीन के पेड़ों में तब्दील हो चुके हैं, मगर इस तरह न तो शासन-प्रशासन का ध्यान जाता है और न ही जनता ही इतनी जागरुक है कि वह इसके दुष्प्रभावों को समझे।
साइंस एडवांसेज नामक जर्नल के जुलाई अंक में प्रकाशित एक लेख के अनुसार वर्ष 1950 के बाद से अब तक उद्योगों द्वारा 9.1 खरब टन प्लास्टिक बनाया गया है। इसकी आधी मात्रा का उत्पादन पिछले 13 वर्षों के दौरान किया गया है।
इतनी बड़ी मात्रा में प्लास्टिक कचरे के तौर पर या तो पर्यावरण में आ चुका है या फिर जल्दी ही आने वाला है। इस सारे कचरे को एकत्रित कर दिया जाये तो पूरी मुंबई पर 320 मीटर मोटी कचरे की परत बन जायेगी। इस समय पृथ्वी पर लगभग हरेक व्यक्ति के हिस्से में औसतन एक टन प्लास्टिक है।
दूसरे मानव निर्मित रसायनों की तरह पर्यावरण में इसका नाश नहीं होता, इसलिए तीन-चौथाई प्लास्टिक का अंत कचरे के तौर पर जमीन में, नदियों में, झीलों में और महासागरों में होता है।
निबंध के मुख्य लेखक पूनिवर्सिटी आफ कैलिफोर्निया के रोलैण्ड गीयर के अनुसार हम प्लास्टिक ग्रह की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं, इसलिए इस समस्या के विश्वव्यापी समाधान की शीघ्र आवश्यकता है। अब तक निर्मित कुल 9.1 खरब टन प्लास्टिक में से 7 खरब टन अब किसी उपयोग में नहीं है। विश्वव्यापी स्तर पर कुल प्लास्टिक कचरे में से 9 प्रतिशत को पुनः चक्रित और 12 प्रतिशत को भस्मीकृत किया जाता है। इस तरह वर्तमान में पृथ्वीपर 5.5 खरब टन प्लास्टिक कचरे में मौजूद है।
प्लास्टिक कचरे का प्रभाव केवल भूमि पर ही नहीं है, बल्कि महासागरों की लगभग 600 प्रजातियां इससे प्रभावित हो रही हैं। हाल में वैज्ञानिकों के एक दल ने दक्षिणी अमेरिका के पास दक्षिण प्रशांत महासागर में स्थित एक निर्जन टापू पर 17.6 टन प्लास्टिक कचरे को खोज निकाला है।
बिना आबादी वाले इस टापू पर प्लास्टिक कचरे का घनत्व विश्व में सर्वाधिक पाया गया।वैज्ञानिकों के अनुसार महासागरों की लगभग 25 प्रतिशत मछलियां प्लास्टिक खा रही हैं।अनुमान है कि महासागरों में प्रतिवर्ष 8 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा पहुंचता है।
साइंस नामक जर्नल के जुलाई अंक में प्रकाशित लेख के अनुसार वर्ष 2050 तक लगभग 26 खरब टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जा चुकेगा, इनमें से आधा कचरे के तौर पर पर्यावरण में ही रहेगा। प्लास्टिक का आसानी से पर्यावरण में विखंडन नहीं होता, इसके उत्पादन में ऊर्जा की कम खपत होती है, यह अपेक्षाकृत सस्ता है और इसे किसी भी आकार में आसानी से ढाला जा सकता है-इन्हीं खूबियों के कारण इसका अत्यधिक उपयोग किया जाता है और यही खूबियां पर्यावरण के लिये अभिशाप बन जाती हैं।
लगभग 70 वर्ष पहले तक इसका उपयोग केवल मिलिट्री के कामों में किया जाता था, पर अब इसके बिना हमारे दिनचर्या की कल्पना करना भी कठिन है। 1950 के दशक से इसका व्यापक उत्पादन शुरू किया गया था।
हमारे देश में प्लास्टिक कचरे से संबंधित कहीं कोई जागरूकता नहीं है और तमाम नियम कानून के बाद भी इसका उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है। वर्तमान में हरेक जगह इसका कचरा देखने को मिलता है और साथ ही प्रभाव भी। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा करवाये गये एक अध्ययन में बताया गया था कि इसका उपयोग सड़क निर्माण में किया जा सकता है। एक-दो जगह इसका उपयोग किया भी गया, पर अब इसकी कोई चर्चा नहीं होती।
अब समय आ गया है जब इस समस्या की गंभीरता को समझते हुए इसके समाधान की ओर तत्काल ध्यान दिया जाये, वरना जब पृथ्वी से मानव का अंत होगा तब उसके अवशेष केवल प्लास्टिक के तौर पर पृथ्वीपर बचे रहेंगे।