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देश को 'लूटने' वालों के चुनाव पर खर्च होगा 2019 में 50 हजार करोड़
जब भाजपा ने 2014 में लोकसभा की 428 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए 75 दिनों तक चले चुनाव प्रचार के दौरान किए थे 712.48 करोड़ रुपए खर्च, जो कि जो कि इस बार की खर्च सीमा 70 लाख के मुकाबले लगभग ढाई गुना है ज्यादा, तो इस बार यह आंकड़ा बढ़ जाएगा कई गुना ज्यादा
मुनीष कुमार की टिप्पणी
देश में 17वीं लोक सभा के लिए 28 राज्यों व 7 केन्द्र शाषित प्रदेशों मे वर्ष 2019 में हो रहा चुनाव दुनिया सबसे खर्चीला चुनाव है। इससे वर्ष 2016 के अमेरिकी चुनावों में होने वाला 6.5 अरब डालर का खर्च भी पीछे छूट जाएगा। इन चुनावों में 7 अरब डालर (50 हजार करोड़ रुपए) खर्च होने का अनुमान है।
इस बार के चुनावों में प्रत्याशी द्वारा चुनाव प्रचार खर्च की सीमा बड़े राज्यों में 70 लाख रुपए निर्धारित है। छोटे राज्य में प्रत्याशी 54 लाख रुपए आसानी से खर्च कर सकेंगे।
2014 के चुनावों में देश के प्रमुख दलों ने चुनाव प्रचार के लिए कुल 1308.75 करोड़ रुपए खर्च किए थे। इसमें वो खर्च शामिल नहीं है, जिसका लेखा-जोखा राजनीतिक दल चुनाव आयोग को नहीं देते हैं। जिसे नंबर 2 का खर्च कहा जाता है।
भाजपा द्वारा वर्ष 2014 में लोकसभा की 428 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए 75 दिनों तक चले चुनाव प्रचार के दौरान कुल 712.48 करोड़ रुपए खर्च दिखाया गया, जो कि जो कि 70 लाख की निर्धारित खर्च सीमा के मुकाबले लगभग ढाई गुना ज्यादा है।
कांग्रेस के द्वारा 464 सीटों पर 486.21 रुपए खर्च के दिखाए गये, जो कि 70 लाख की सीमा से डेढ़ गुना ज्यादा थे।
2014 के चुनावों में इस्तेमाल किए जाने वाले विमानों का प्रति घंटा किराया 1250 डालर 87500 रुपए से लेकर 3000 डालर 210000 रुपए प्रति घंटा तक था। चुनाव खर्च की सीमा निर्धारित करने वाले आयोग ने देश के बड़े दलों को मनमाने खर्च की खुली छूट दी हुयी है।
भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र प्रचारित किया जाता है। देश के सभी नागरिकों को चुनने व चुने जाने का अधिकार है, परन्तु सच्चाई यह है कि देश की 90 प्रतिशत से ज्यादा आबादी केवल सांसद को चुन सकती है पर 'संसद' चुनी नहीं जा सकती। चुनाव में उसका मुकाबला करोड़ों रुपए खर्च करने वाले प्रत्याशी से होता है। यदि प्रत्याशी जुगाड़ करके 25 हजार की जमानत राशि जुटा भी ले तो वह एक लोकसभा क्षेत्र में 10-15 लाख मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाने के लिए संसाधन कहां से लाएगा।
देश की लोकसभा करोड़पतियों-अरबपतियों-खरबपतियों से भरी पड़ी है। दुनिया के सबसे बड़े ‘लोकतंत्र’ की संसद में मजदूर, गरीब किसान, कर्मचारी, रिक्शा-वाहन चालक, छोटा दुकानदार, सुरक्षाकर्मी आदि की कोई भी मौजूदगी नहीं है। मतलब जहां पर नीतियां बनती हैं, वहां उनका कोई भी वास्तविक प्रतिनिधि नहीं है। आम आदमी के लिए संसद के दरवाजे बंद हैं।
इस देश की बहुलांश आबादी के लिए देश के लोकसभा चुनाव टेनिस के मैच देखने वाले दर्शकों जैसा है, जिसमें दर्शक बाॅल को एक कोर्ट से दूसरे कोर्ट में जाते हुए देखते रहते हैं।
असल खेल तो भाजपा, कांग्रेस व उनके गठबंधन खेल रहे हैं। जो एक कभी एक दूसरे के धुर-विरोधी थे, आजकल एक साथ हैं। इनका एक ही उसूल है येन-केन-प्रकारेण सत्ता प्राप्त करो।
पिछले चुनावों में भाजपा के विरोधी रहे नीतीश कुमार आज राजग का हिस्सा हैं। भाजपा को मनुवादी बताने वाली मायावती गुजरात दंगों के बाद 2002 में भाजपा का गुजरात में समर्थन कर रही थी। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी बाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार में रेल मंत्री तो वर्तमान में बिहार में कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा शरद यादव वाजपेयी सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर थे। सीपीआई, सीपीएम जैसे दल 2004 से 2008 तक कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का हिस्सा थे।
आज के भाजपा विरोधी दल 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार में तथा 1989 में कांग्रेस के विरोध के नाम पर वी.पी. सिंह के नेतृत्व वाली सरकार में भाजपा के साथ मिलकर गठबंधन कर रहे थे।
देश में प्रति व्यक्ति आय 125000 रुपए सालाना है। 5 व्यक्तियों के परिवार की आय 625000 रुपए यानी कि 52 हजार रुपए प्रतिमाह है। ऐसे में यदि आज भी हमारे देश में लोग बेहद गरीबी मे जीवन व्यतीत कर रहे हैं तो सवाल उठता है कि समस्या कहां पर है।
देश की आय का बड़ा हिस्सा देश के पूंजीपति, राजनेता, अफसर आदि मिलकर हड़प लेते हैं। इनकी अमीरी के कारण ही देश में गरीबी है। कोई भी राजनीतिक दल देश के बढ़े औद्यौगिक घरानों व अमीर लोगों की सम्पत्ति के राष्ट्रीयकरण की बात नहीं करता है। समान-निशुल्क शिक्षा, सम्मानजनक रोजगार-आवास व इलाज की गारन्टी इनके एजेन्डे में नहीं है। गरीबी हटाने के नाम पर चन्द टुकड़े देने की बात कर ये आपस में आरोप प्रत्यारोप कर जनता को गुमराह करते रहते हैं।
हमारे देश मे जितने भी उत्पादन के साधन हैं, उन पर पूंजीपतियों का मालिकाना है। देश के सभी कानून व सरकारी संस्थाएं उनकी सम्पत्ति की हिफजत व बढ़ाने के लिए काम कर रही हैं। जनता के वोटों से चुने गये देश के ये नेता पूंजीपतियों की प्रबन्धन समिति में तब्दील हो चुके हैं। इन्हीं की नीतियों के कारण देश के अरबपतियों की धन-दौलत मे पिछले एक वर्ष में 2200 करोड़ रु प्रतिदिन का इजाफा हुया है।
मजदूर-किसान व आम आदमी जब अपनी आय ’बढ़ाने के लिए आवाज उठाता है तो सत्ता पर बैठी सरकारें उसकी आवाज दबा देती हैं। देशवासियों को देश चलाने के लिए एक नये राजनीतिक माॅडल के बारे में सोचने की जरुरत है।
(मुनीष कुमार समाजवादी लोक मंच के सहसंयोजक हैं।)