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जनज्वार विशेष

एक तरफ लाशें गिरती हैं और दूसरी तरफ हम नारे लगाते हैं : फहमीदा रियाज

Prema Negi
22 Nov 2018 10:14 AM IST
एक तरफ लाशें गिरती हैं और दूसरी तरफ हम नारे लगाते हैं : फहमीदा रियाज
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पाकिस्तान की जानी—मानी शायर, लेखक और सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता फहमीदा रियाज का कल 21 नवंबर को 72 साल की उम्र में निधन हो गया। अपने तल्ख तेवरों के लिए पहचानी जाने वाली और 'तुम बिल्कुाल हम जैसे निकले/ अब तक कहाँ छिपे थे भाई/ वो मूरखता, वो घामड़पन/ जिसमें हमने सदी गंवाई/ आखिर पहुँची द्वार तुम्हावरे/अरे बधाई, बहुत बधाई।' जैसी साहसपूर्ण पंक्तियों की लेखिका से अजय प्रकाश ने 2013 में एक विशेष मुलाकात की थी। इस दौरान उन्होंने भारत—पाकिस्तान, समाज, राजनीति समेत तमाम मसलों पर अपनी बेबाक राय रखी थी।

आइए पढ़ते हैं फहमीदा रियाज से अजय प्रकाश की बातचीत जो आज 5 साल बाद भी उतनी ही प्रासंगिक है बेशक निजाम बदल चुके हैं :

पाकिस्तान की तीन प्रमुख पार्टिर्यों पीपीपी, पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) और पाकिस्तान मुस्लिम लीग में किसकी स्थिति इस बार के चुनाव में बेहतर है?

अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि सबसे कमजोर हालत परवेज मुशर्रफ और उनकी पार्टी की ही है। चुनाव में मुशर्रफ का पर्चा खारिज होने और बाद की घटनाओं से आस और घट गयी है। हिंदुस्तान में जिस तरह जाति की बड़ी भूमिका है चुनाव में, उसी तरह हमारे यहां नस्ल की जड़ें हैं। ऐसे में मुशर्रफ जैसे मुहाजिर को खास वोट मिलना भी संदिग्ध था। हां, नवाज शरीफ का हमेशा की तरह पंजाब में जलवा कायम रहेगा और सिंधियों के पास पीपीपी के अलावा कोई विकल्प नहीं है। सिंध ने हमेशा ही पाकिस्तान की उल्टी राजनीति को चुनौती दी है। भुट्टो ने जमींदारों-सामंतों से समझौता कर वहां समाजवाद लाने का फर्जीवाड़ा रचा था, जिसे सिंध के ही लोगों ने जिस हद तक सही, चुनौती तो दी है।

पाकिस्तान की राजनीति में औरतों की भागीदारी पर आपकी राय?

औरतों के नेता बनने में असली भागीदारी खानदान के स्तर पर है। अगर बाप या कोई दूसरा राजनीति में है, तो उन्हीं के बेटे-बेटियां नेता बन रहे हैं। जो साठ सीटें हमारे यहां महिलाओं के लिए हैं, उनमें वे नॉमिनेट हो जाती हैं। इससे अधिक की कोई भागीदारी संसदीय चुनाव में महिलाओं की नहीं है। हां, इतिहास याद करें तो अयूब खान जैसे तानाशाह शासक को मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना ने ही चुनाव में चुनौती दी थी।

पाकिस्तान के इतिहास में किसका शासन सबसे बेहतर रहा, जिससे लोकतंत्र मजबूत हुआ हो?

मैं किसका नाम लूं? लेकिन मेरे हिसाब से परवेज मुशर्रफ का शासन सबसे बेहतर रहा। परवेज मुशर्रफ का आधा दिमाग पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय आदमी का है और आधा दिमाग फौजी का। मुशर्रफ की तारीफ पर मेरी बहुत आलोचना भी हुई। लेकिन मुशर्रफ ही वे आदमी थे, जिन्होंने शासकों के इतिहास में पहली बार महसूस किया कि मुल्क के तालिबानीकरण को रोको। उन्होंने संगीत, कला और संस्कृति पर जोर दिया। इससे पहले तक इस्लाम के नाम पर सब रुका हुआ था। मैं कला और संस्कृति को स्थान मिलने को एक उपलब्धि के रूप में गिना रही हूं तो संभव है कि भारतीयों को यह मामूली बात लगे, मगर हमारे लिए सच में यह बड़ी उपलब्धि है। कला और संस्कृति से समाज में नरमी आती है, समाज सहिष्णु होता है, नये मूल्यों को गढ़ने में मदद करता है, जिनकी पाकिस्तान को सख्त जरूरत है।

एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि वहां के 40 प्रतिशत युवा शरीयत या फौज का शासन चाहते हैं?

मैंने भी यह सर्वे पढ़ा है और मुझे इस पर संदेह है। पाकिस्तान की छवि दुनिया भर में अंग्रेजी मीडिया के जरिये ऐसी परोसी जा रही है मानो पाकिस्तानी कौम ही जाहिल हो। ऐसा नहीं है। पाकिस्तान में जो धमाके किये जा रहे हैं, जो अफरा-तफरी है, उसमें पाकिस्तान का आवाम भागीदार नहीं हैं। उसमें तालिबान हैं, जिनको पश्चिमी देश शह दिये हुए हैं। सिंध हो, बलूचिस्तान हो या पाकिस्तान का कोई और हिस्सा, वहां के लोग बेहतर शासन चाहते हैं, राष्ट्रीयता के संघर्ष वाले सूबे अपना अधिकार चाहते हैं, जो शरीयत के शासन में संभव नहीं है। पूरे देश में मजदूर पंजाब से लाये जा रहे हैं, लेकिन मलाई इस्लामाबाद खा रहा है। अभी सिंध भी पाकिस्तानी शासकों के पूर्वग्रह का शिकार है। ऐसे वहां का युवा अपने संसाधनों का विकास, रोजगार और हर स्तर की भागीदारी चाह रहा है, न कि शरीयत का शासन।

पाकिस्तान में लोकतंत्र मजबूत न होने के क्या ऐतिहासिक कारण रहे?

पाकिस्तान में भूमि सुधार नहीं हुआ है। उतना भी नहीं, जितना भारत में हुआ है। लाखों एकड़ जमीने पीर (मठों) के पास है और वे राजनीति में भी हैं। भारतीय उपमहाद्वीप का जो हिस्सा पाकिस्तान में आया, उसमें आदिवासी और बड़े-बड़े सामंत थे। इसकी वजह से शहरीकरण भी बहुत कम था। भारत में 25-50 किलोमीटर पर बड़े-बड़े रेलवे स्टेशन दिख जाते हैं, लेकिन पाकिस्तान में ऐसा नहीं है। आजादी के बाद वहां जो मध्यवर्ग था, वह भी बहुत मामूली रहा। फिर वे भारत से गये लोग थे, जो सिंध के हिस्से में रहते थे और उर्दूभाषी थे। उनके मूलनिवासी न होने को लेकर दिक्कतें थीं और सामंतों के मुकाबले वे कहीं टिकते भी नहीं थे। मध्यवर्गीय समाज जिन संस्थाओं को खड़ा करता है, उसमें भी वहां का मध्यवर्ग असफल रहा। साफ है कि जिस वर्ग को लोकतंत्र को मजबूत करना था, वही ठीक से अस्तित्व में नहीं था। इसके बावजूद वहां संघर्ष निरंतर चल रहे हैं।

कहा जा रहा है कि इमरान खान की पार्टी "तहरीक-ए-इंसाफ' इस बार के चुनाव में बड़ी भूमिका में होगी?

दुनिया-जहान जानता है कि इमरान खान पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की पहली पसंद हैं। आईएसआई को एक ऐसे शख्स की तलाश थी, जो दिखने में अच्छा हो, लोग उसको जानते हों और उसे राजनीति का अलिफ-बे न पता हो। वे नौजवान उनकी सभाओं में पहुंच रहे हैं, जो राजनीतिक पार्टियों और तंत्र के भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं। लेकिन वह वोट के रूप में तब्दील हो पायेगा, इसकी संभावना कम से कम इस बार बहुत कम है। रही बात कादरी की, तो वे भारत से गये बरेलवीपंथी मौलवी हैं, जिनकी कोशिश अच्छी है, लेकिन बहुत राजनीतिक बिसात नहीं है।

नागरिक अधिकार संघर्षों की क्या स्थिति है?

पाकिस्तान के हालात ऐसे हैं कि एक तरफ वहां लाशें गिरती हैं और दूसरी तरफ हम नारे लगाते हैं। गोला, बारूद, मानव बमों और विस्फोटों के बीच जी रहे पाकिस्तान में संघर्ष भी जिंदा है और अच्छे भविष्य की उम्मीद भी संघर्षों से ही है। कई गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) ने शिक्षा और धर्मों के प्रति सहिष्णु बनाये रखने में बड़ी भूमिका निभायी है। इसे वहां की पार्टियां नहीं कर सकी हैं।

मगर पाकिस्तान में हजारों की संख्या में शियाओं को मारा जा रहा है?

वे मारे तो जा रहे हैं, लेकिन जरदारी की पार्टी नहीं मरवा रही है। यहां तक कि उसमें पाकिस्तानी अवाम का भी कोई नहीं है। इतिहास में जायें तो कत्लेआमों का दौर रूस-अफगानिस्तान युद्ध से शुरू हुआ है। आज तालिबान कत्लेआम कर रहे हैं, पहले मुजाहिदीन किया करते थे। ये सभी आदिवासी जमातें हैं। कौन नहीं जानता कि मुजाहिदीन को अमेरिका और यूरोपीय यूनियन ने रूस का खौफ दिखाकर जीवित रखा। पचास के दशक से तालिबान मुजाहिदीन को इस्लाम और काफिर के नाम पर लड़ा रहा है। बाद में सऊदी अरब इसमें शामिल हुआ कि वह एक हजार साल पुरानी लड़ाई का बदला ईरान से ले सके। ऐसे में हमारे देश को उन्होंने "मिलिटेंट सुन्नी स्टेट' बनाने की साजिश रची और हम इसी के शिकार हैं।पाकिस्तान में जातियों-संप्रदायों की विविधता है। सभी राज्यों की बोलियां अलग हैं, संस्कृति अलग है। यहां तक कि सबके इतिहास अलग हैं। ऐसे में सबको अपनी-अपनी मान्यताओं और समझदारियों पर गर्व है। यह एक संघीय ढांचे में आसानी से चल सकता था, लेकिन बार-बार पाकिस्तान के हुक्मरानों ने शासन करने की एकल पद्धति को लागू करने की कोशिश की। इस सोच ने पाकिस्तान के एक नक्शे के बावजूद उसे अंदर से खंड-खंड कर डाला। भारत के साथ अच्छा यह रहा कि उसे पहला ही प्रधानमंत्री नेहरू जैसा समझदार आदमी मिला, जिसने दक्षिण भारत में उठी हिंदी की समस्या को बीस साल का समय देकर आसानी से हल कर दिया।

बलूचिस्तान समस्या की जड़ में क्या है? बलूच लोगों का वोट पाकिस्तानी राजनीति में कितना मायने रखता है?

बलूचिस्तान के इतिहास में जायें तो वह मौजूदा पाकिस्तान का एक ऐसा क्षेत्र है जो हमेशा से संघर्षों में रहा है। ब्रिटिश काल में जितनी सख्ती बलूच के इलाके में अंग्रेज करते थे, शायद उतनी किसी और क्षेत्र में नहीं। अंग्रेजी शासन में वहां अखबार पढ़ने पर कोड़े पड़ते थे। लेकिन बलूचों की इतनी आबादी नहीं है कि वे राजनीति को प्रभावित कर सकें। पाकिस्तान की पूरी आबादी का 60-62 फीसद हिस्सा पंजाब में रहता है और पंजाब ही देश की राजनीति पर हावी रहता है। मगर पाकिस्तान के नक्शे में सबसे बड़ा क्षेत्र बलूचिस्तान का है, जहां बहुत खनिज और पेट्रोलियम है। पूरे देश का खाना पकाने वाली "सूई गैस' वहीं की सूई नाम की जगह से निकलती है। लेकिन सूई गैस की आपूर्ति बलूचिस्तान को नहीं की जाती। कंपनी कहती है कि यहां के लोगों की खरीद क्षमता नहीं है।

क्या पाकिस्तान में राज्यों को स्वायत्तता हासिल नहीं है?

अभी-अभी सत्ताधारी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने संविधान में अठाहरवां संशोधन किया है। मैंने भारत में जब सुना कि शिक्षा के मामले में केंद्र का सीधा हस्तक्षेप राज्यों में नहीं है तो बहुत आश्चर्य हुआ कि ऐसा भी हो सकता है। हमारे यहां तो शिक्षा का हर हर्फ सरकार ही तय करती है। अगर एक शिक्षक को अपना ट्रांसफर कराना है तो वह भी पैरवी के लिए इस्लामाबाद के किसी मिनिस्टर के यहां जाता है। हमारी सरकार ने जरा सा भी सूबों को ताकतवर नहीं होने दिया।

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