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दुनिया

‘चीन पर आरोप लगाना आसान है, लेकिन भारत का अवैध वन्यजीव व्यापार भी खूब फल-फूल रहा है’

Nirmal kant
12 April 2020 12:00 PM IST
‘चीन पर आरोप लगाना आसान है, लेकिन भारत का अवैध वन्यजीव व्यापार भी खूब फल-फूल रहा है’
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समयुक्ता चेमुदुपति ने अपने करियर की शुरुआत एक फोरेंसिक साइंस टीचर के रुप में की थी और अब वह वन विभाग के पहली पंक्ति के कर्मियों को प्रशिक्षण दे रहीं हैं कि कैसे इंसान के डीएनए की रुपरेखा के जरिए या जानवरों पर गोली के अवशेषों का विश्लेषण करके या कालेधन के जाल की निगरानी करके अपराध स्थल को अपराधी तक जोड़ा जा सकता है। मुंबई में वाइल्डलाइफ कन्जर्वेशन ट्रस्ट में फोरेंसिक्स की प्रमुख चेमुदुपति वन्यजीवों के व्यापार और जूनोटिक संक्रमण के बीच के संबंध पर बात की। उन्होंने इस प्रकार की गतिविधि में शामिल सरगनाओं और बलि का बकरा बनने वाले लोगों पर भी बात की। वन्यजीवों का व्यापार इस समय दुनियाभर में चौथा सबसे बड़ा अवैध कारोबार है।

समयुक्ता चेमुदुपति से दिव्‍या गाँधी की खास बातचीत

COVID-19 जैसे जूनोटिक रोगों पर चल रही चर्चा से क्या विश्व स्तर पर अवैध वन्यजीव व्यापार पर नकेल कसी जा सकती है? क्योंकि कोरोना महामारी का एक स्त्रोत वन्यजीव ही माना जा रहा है?

देखिए, यह एक दिलचस्प बिंदु इसलिए है क्योंकि दुनियाभर के संगठनों ने वास्तव में कोरोनावायरस के प्रसार को देखा है और दुनिया का नेतृत्व कर रहे कई देशों ने इस जानकारी को समझने का आह्वान किया है कि कैसे अवैध वन्यजीव व्यापार न केवल वन्यजीवों का नुकसान करता है बल्कि वन्यजीवों से बीमारियों को भी प्रसारित करता है। मुझे नहीं लगता कि अवैध वन्यजीव व्यापार और कोरोनावायरस के बीच स्पष्ट संबंध बताने के लिए यह जानकारी काफी है लेकिन विचार करने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि आप किसी जंगली जानवर को उस स्थान से हटा रहे हों जहां वह एक जोखिम में रहता है तो आप उस बीमारी को भी आगे बढ़ा रहे होते हैं जो उसके अंदर है। अगर आप उन्हें उस पारिस्थितिकी तंत्र से हटाते हैं जिन्हें भीतर वह रहते हैं तो आप किसी बीमारी को नए इलाके में ले जा सकते हैं।

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आपने कहा कि जब हम पारंपरिक चीनी औषधियों पर उंगली उठाते हैं तो हमें अपने देश के वन्यजीव व्यापार पर भी आत्मनिरीक्षण करना चाहिए?

जी हां, भारत में कई तरीकों से वन्यजीवों की भारी मात्रा में खपत होती है। शहर के बीच में बैठे बाबा मानते हैं कि गठिया का इलाज कांटेदार पूंछ वाली छिपकली से हो सकता है। मंदिरों या हमारे घरों में सजावटी वस्तुओं के रुप में मोरपंखों का इस्तेमाल हो सकता है। यह हमारे आभूषणों में मूंगा हो सकता है। यह जंगली सूअर या हिरण का मांस हो सकता है। इनका (वन्यजीवों का) इस्तेमाल काला जादू जैसी प्रथाओं के लिए हो सकता है, उदाहरण के लिए दीवाली के आसपास उल्लू की बहुत अधिक मांग होती है क्योंकि लोग ऐसा मानते हैं कि उन्हें अपने देवता को प्रसन्न करने के लिए ऐसा करना होगा।

पालतू वन्यजीवों का व्यापार भी बहुत बड़ा है लेकिन इसके बाजार का विस्तार से सर्वेक्षण नहीं किया गया है, इसलिए हम इन कैद जानवरों की सटीक संख्या नहीं जानते हैं लेकिन यह कहना ज्यादा सुरक्षित है कि हर कोई अपने सामाजिक और पारिवारिक दायरे में किसी न किसी को जानता है जिनके पास एक पालतू जानवर के रूप में एक जंगली जानवर है। यह तोते के रूप में हो सकता है जिसे वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत संरक्षित है या एक स्टार कछुए के रूप में भी हो सकता है जो वन्यजीव संरक्षण अधिनयम के तहत अनुसूचित प्रजाति है। इसलिए पारंपरिक चीनी औषधियों को दोष देना आसान है, लेकिन हमारे अपने देश में वन्यजीवों की भारी मांग जारी है और अवैध वन्यजीव व्यापार पनप रहा है।

वन्यवजीव व्यापार जो दुनिया का चौथा सबसे बड़ा अंतर्देशीय अपराध है, उसके पीछे के असल खिलाड़ियों के बारे में हम इतना कम क्यों जानते हैं?

मुझे लगता है कि इसका सबसे आसान जवाब यही है कि कानून लागू करने वाली एजेंसियां इन अपराधों के पीछे खड़े असली लोगों पर विश्वास करती हैं। वह व्यक्ति जो जमीनी स्तर पर वास्तव में इस तरह की गतिविधियों को अंजाम दे रहें हैं, वे गरीब परिवारों से हैं। आप उन्हें ढूंढ सकते हैं, वह फोटो खींचाने के लिए आसानी से मान जाते हैं, उन्हें पकड़ना आसान है। जबकि तथ्य यह है कि इसे पीछे से कोई और ही चला रहा होता है और उनके पारंपरिक कौशल का शोषण कर रहा होता है- जैसे आदिवासी शिकारी जंगल को नेविगेट करने, जानवरों के पदचिन्हों की पहचान करने में कुशल होते हैं। शहरों के भीतर भी ऐसे बिचौलिए लोग हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वन्यजीव व्यापार का काम कर रहे हैं। ये लोग वन्यजीव व्यापार के किंगपिन हैं जो इन लोगों का इस्तेमाल करके अपनी जेबें भर रहे हैं। लेकिन तथ्य यह है कि क्योंकि वे लोग (वन्यजीव व्यापारी) अच्छी तरह से कनेक्टेड हैं इसलिए आप यह तक नहीं जानते हैं कि वे इस तरह के अपराध में शामिल हैं।

भले ही हमारे पास वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के रूप में कठोर कानून हैं और हमारे पास वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो है, किंतु आपने कहा कि इनका काम बिल्कुल भी संतोषजनक नहीं है। क्या वन्यजीव अपराध प्राथमिकता में नहीं हैंॽ

ऐसा केवल पिछले एक दशक में है कि जब लोगों ने वन्यजीव अपराध पर ध्यान देना शुरु कर दिया है। इसमें शामिल प्रमुख एजेंसियां न केवल उदासीन हैं, बल्कि वह एक दूसरे से बात तक नहीं करती हैं। उदाहरण के लिए वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो किसी एजेंट से बात नहीं कर सकता है जो सीमा पर बैठा हो या सीमा एजेंट नजदीकी वन विभाग के अधिकारी से नहीं कहेगा कि 'ओह, हमने कुछ देखा है।' बहुत बार राज्यों के बीच तालमेल की कमी होती है, इसलिए राज्यों के बीच विरोधाभास बढ़ सकता है। यह सिस्टम की बडी समस्या है। इसके परिणामस्वरुप हमारे पास मजबूत कानून होने के बावजूद जिस तरह का प्रवर्तन होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है।

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अपराध की व्यापकता से निपटने के लिए क्या भारत को वन्यजीव फोरेंसिक विज्ञान में ज्यादा निवेश की आवश्यकता है?

बिल्कुल, मुझे लगता है कि हमें वास्तव में विज्ञान को नई सीमाओं को आगे बढ़ाने में सक्षम होने के लिए एक सेना की आवश्यकता है जो वैज्ञानिक रूप से सबूतों का सही, सटीक, दृढ़ता से मूल्यांकन कर सके। उदाहरण के लिए आप यू.के. में वन्यजीव फोरेंसिक वैज्ञानिकों को देखते हैं, तो वे कुछ शानदार ग्राउंडब्रेकिंग शोध कर रहे हैं। उन्होंने ऐसी तकनीकें विकसित की हैं जो पंखों और अंडों के छिलकों से फिंगरप्रिंट्स (उंगलियों के निशान) ले सकते हैं।

में भारत में फोसेंसिक वैज्ञानिकों की जरूरत न केवल प्रवर्तन एजेंसियों की सहायता के लिए बल्कि बाहरी सुरक्षा को बढ़ाने के लिए भी जरुरी है। इसकी आवश्यकता हमें कल भी थी। इसलिए हमें अपराधियों को पकड़ने के लिए निश्चित रूप से और वैज्ञानिकों की आवश्यकता है ताकि हमारे पास वास्तव में मजबूत सबूत हों जो अदालत में जाएंगे और वहां फि न्यायधीश यह कहने में सक्षम नहीं होंगे कि यह मामला सच नहीं है या सबूतों का सही तरीके से विश्लेषण नहीं किया गया है। हमें इस खेल को बदलने की आवश्यकता है कि हम अपने कोर्टरूम में साइंस का कैसे इस्तेमाल करते हैं।

(फोरेंसिक वैज्ञानिक समयुक्ता चेमुदुपति का यह इंटरव्यू पहले 'द हिंदू' में प्रकाशित। अनुवाद : डॉ. प्रमोद मीणा)

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