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20 हजार करोड़ में से 7 हजार करोड़ बहा नमामि गंगे में, मोदी की गंगा मां हुई और गंदी
गंगा को मम्मी कहने वाले प्रधानमंत्री और उनकी मंत्री उमा भारती ने गंगा सफाई के नाम पर क्या कर रही हैं, इसका अंदाजा सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि गंगा सफाई के बजट से 20 हजार करोड़ में 7 हजार करोड़ खर्च हो चुका है, लेकिन गंगा और गंदी हुई है...
वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय बता रहे हैं नमामि गंगे क्यों है कागजी
जनज्वार। 86 वर्षीय स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद गंगा संरक्षण हेतु एक अधिनियम बनाने की मांग को लेकर 22 जून 2018 से हरिद्वार में अनशन पर बैठे हुए हैं किंतु केन्द्र सरकार की ओर से ऐसी कोई पहल नहीं की गई है कि स्वामी सानंद अपना अनशन समाप्त कर सकें।
इससे केन्द्र सरकार के गंगा सफाई अभियान पर बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा होता है। जिस तरह से स्वामी सानंद को नजरअंदाज किया जा रहा है उससे सरकार की नीयत ही संदेह के दायरे में आ गई है।
स्वामी सानंद सिर्फ धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं। सन्यास लेने से पहले वे प्रोफेसर गुरु दास अग्रवाल के रूप में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर में अध्यापन व शोध कार्य कर चुके हैं व केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य-सचिव भी रह चुके हैं। प्रदूषण नियंत्रण के कई महत्वपूर्ण मानक उन्हीं के तय किए हुए हैं।
स्वामी सानंद का कहना है कि जैसे गंगा एक्शन प्लान में रु. 500 करोड़ खर्च हो गए और गंगा पहले से ज्यादा प्रदूषित ही हुई है, वैसे ही नमामि गंगे परियोजना के रु. 20,000 करोड़, जिसमें से रु. 7,000 करोड़ खर्च हो चुके हैं, बचे भी खर्च हो जाएंगे और गंगा रत्ती भर भी साफ नहीं होगी क्योंकि नमामि गंगे भी गंगा एक्शन प्लान की तर्ज पर ही चल रहा है।
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औद्योगिक कचरे को साफ करने के लिए बनाए जाने वाले काॅमन एफ्लुएंट ट्रीटमेण्ट प्लांट व शहर की गंदी नालियों के कचरे को साफ करने के लिए सीवेज ट्रीटमेण्ट प्लांट इतने बने ही नहीं हैं कि सारे कचरे को साफ कर सकें और जो बने भी हैं वे ठीक तरह से काम नहीं करते।
उदाहरण के लिए वाराणसी शहर से प्रति दिन करीब जो 40 करोड़ लीटर गंदा पानी निकल रहा है, उसका सिर्फ एक चौथाई ही साफ करने की क्षमता सीवेज ट्रीटमेण्ट संयंत्रों की है।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पास स्थित भगवानपुर संयंत्र की क्षमता 80 लाख लीटर है, दीनापुर स्थित संयंत्र की क्षमता 8 करोड़ लीटर है, 15-20 करोड़ लीटर क्षमता का कोनिया संयंत्र 30-40 प्रतिशत क्षमता पर ही काम करता है।
इन सबमें सबसे ठीक से भगवानपुर संयंत्र ही काम करता है लेकिन उसकी क्षमता ऊंट के मुंह में जीरा के समान है। दो नए संयंत्र निर्माणीधीन है। जब ट्रीटमेण्ट संयंत्र खराब हो जाता है अथवा जब बिजली नहीं आ रही होती है यहां से गुजरने वाला गंदा पानी बिना सफाई के ही नदी में मिला दिया जाता है।
अस्सी नदी जो अब नाले जैसी दिखाई पड़ती है और उसे पूरी तरह से ढक कर कुछ लम्बाई तो नाला ही बना दिया गया है। 8-9 करोड़ लीटर गंदा पानी वरुणा में, 75-80 प्रतिशत बिना साफ हुआ पानी गंगा में मिलता है। वरूणा व अस्सी, जिनके नाम पर वाराणसी शहर का नाम पड़ा है, के कुछ हिस्सों का इस्तेमाल नगर निगम द्वारा कूड़ा डालने के लिए भी किया जा रहा है। इस कूड़े से भी पानी गंदा हो रहा है।
कानपुर शहर से 60 करोड़ लीटर गंदा पानी प्रतिदिन निकलता है, जबकि सीवेज ट्रीटमेण्ट प्लांट की क्षमता सिर्फ 20-25 करोड़ गंदे पानी को साफ करने की है।
बिना साफ किए ही दोनों प्रकार के कचरे - औद्योगिक व शहर का गंदा पानी - नदियों में सीधे गिराए जा रहे हैं, चाहे वह गंगा हो अथवा साबरमती। अहमदाबाद शहर के बाद साबरमती, जिसमें अब नर्मदा नदी का पानी डाला जाता है, का रंग एकदम काला है जबकि साबरमती की सफाई पर भी रु. 200 करोड़ खर्च हो चुके हैं।
साबरमती नदी के सौंदर्यीकरण के नाम पर, गरीबों की झुग्गियां तोड, मध्यम वर्ग के मनोरंजन के लिए एक रिवर फ्रंट बनाया गया है जो झूठे विकास का प्रतीक है। अहमदाबाद शहर की करीब साढ़े दस किलोमीटर की लम्बाई में नर्मदा का ठहरा हुआ पानी साबरमती में दिखाई पड़ता है। अब नमामि गंगे में भी गंगा के किनारे इस तरह के रिवर फ्रंट बनाने की योजना है। रिवर फ्रंट का सफाई से क्या लेना देना है मालूम नहीं? यहां ठेकेदारों की तो चांदी है।
इसमें भ्रष्टाचार का भी योगदान है। नगर निगम अथवा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, जो ट्रीटमेण्ट संयंत्रों के लिए जिम्मेदार होते हैं, के कर्मचारी घूस लेकर कम्पनियों को अपना औद्योगिक कचरा बिना ट्रीटमेण्ट संयंत्र से गुजारे ही नदी में डालने देते हैं। कम्पनियां अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ा लेती हैं और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को नहीं बतातीं। अतिरिक्त उत्पादन से निकला अतिरिक्त कचरा भी घूस देकर नदी में डाल दिया जाता है।
काॅमन एफ्लुएंट ट्रीटमेण्ट संयंत्र व सीवेज ट्रीटमेण्ट संयंत्र बनाने से भी फायदा सिर्फ ठेकेदारों को ही हुआ है। गंगा व अन्य नदियों को साफ करने की नीयत ही नहीं दिखाई पड़ती, इसीलिए स्वामी सानंद गंगा संरक्षण के लिए एक कानून बनाने की मांग कर रहे हैं।
ताज्जुब की बात है कि हिंदू हितैषी बताई जाने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार स्वामी सानंद के अनशन को गम्भीरता से नहीं ले रही है और मीडिया भी, शायद सरकारी दबाव में, उसे कोई महत्व नहीं दे रहा। जबकि नरेन्द्र मोदी ने वाराणसी से चुनाव लड़ने का निर्णय लेते हुए घोषणा की थी कि उन्हें मां गंगा ने बुलाया है और प्रधानमंत्री बनने के बाद जल संसाधन मंत्रालय के नाम में ही गंगा संरक्षण को शामिल करा दिया, मानों देश में दूसरी नदियां ही न हों।
क्या यही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारतीय संस्कृति है कि जैसे नरेन्द्र मोदी ने भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर अप्रासंगिक बना दिया है उसी तरह स्वामी सानंद जैसे विद्वान साधु को मरने के लिए छोड़ दिया जाए? गाय बचाने की चिंता करने वाली इस सरकार के लिए क्या एक साधु की जान बचाना प्राथमिकता नहीं है?
स्वामी सानंद को जिस तरह मरने के लिए छोड़ दिया गया है उनको जानने वाले स्तब्ध हैं। यदि इस सरकार में जरा सी भी संवेदनशीलता है तो स्वामी सानंद से वार्ता कर उनकी जान बचाए व गंगा ही नहीं देश के जितनी नदियां, तालाब, कुएं, आदि जल के स्रोत हैं उनके संरक्षण के लिए काूनन बनाए।