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बाल विवाह का झेल चुकीं और अपनी मां की जिंदगी में बाल विवाह के कारण आई कठिनाइयों से रू—ब—रू भारत की शुरुआती डॉक्टरों में शुमार रुखमाबाई ने बाल विवाह के खिलाफ लिखकर समाज को चेताने का महत्वपूर्ण काम किया...
भारत की पहली महिला डॉक्टरों में से एक रुखमाबाई राउत को आज गूगल ने डूडल बनाकर विशेष तौर पर याद किया है। गूगल के सर्च पेज पर साड़ी में एक महिला ने गले में स्टेथोस्कोप डाला हुआ है, जिनके पीछे अस्पताल में कुछ नर्सें रोगियों की सेवा करते नजर आ रही हैं। यही हैं भारत की शुरुआती डॉक्टरों में से एक रुखमाबाई राउत, जिनका आज 153वां जन्मदिन है।
रुखमाबाई राउत ने गुलाम भारत में उस समय डॉक्टरी की प्रैक्टिस करनी शुरू की थी, जब भारतीय महिलाओं तो दूर पुरुषों तक को मौलिक अधिकार मिलने मुश्किल थे।
मुंबई में 22 नवंबर, 1864 को जन्मी रुखमाबाई राउत की शादी मात्र 11 वर्ष की उम्र में 19 वर्षीय दादाजी भिकाजी से कर दी गई थी। हालांकि उस समय समाज में बाल विवाह प्रचलित था, मगर उन्होंने इसका विरोध किया।
रुखमाबाई की मां की भी शादी मात्र 14 साल में हो गई थी, तो मात्र 15 साल की उम्र में रुखमाबाई पैदा हो गई थीं। यह बाल विवाह की ही त्रासदी थी कि मात्र 17 साल में उनकी मां विधवा भी हो गई थीं। शायद मां के हालातों को देखने से ही रुखमाबाई यह साहस पैदा कर पाईं कि वे शादी के बाद अपने पति के साथ नहीं रहीं। अपनी मां के पास ही रहकर रुखमाबाई ने पढ़ाई जारी रखी। थोड़ी बड़ी हुईं तो उन्होंने दादाजी भिकाजी के साथ विवाह तोड़ने का फैसला ले लिया। हालांकि उनकी मां ने बाद में डॉक्टर और बॉटनी के प्रोफेसर सुखराम अर्जुन के साथ पुनर्विवाह किया था।
अपनी शादी तोड़ने के लिए भी रुखमाबाई को कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी। उनके पति ने मार्च 1884 में पत्नी पर पति के वैवाहिक अधिकारों को पुनर्स्थापित करने के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर कहा कि रुखमाबाई उनके साथ आकर रहे। अदालत ने रुखमाबाई के पति के पक्ष में फैसला देते हुए कहा कि या तो वह पति के साथ रहें, या फिर जेल जाने कके लिए तैयार रहें।
मगर रुखमाबाई अपने फैसले पर अडिग रहीं। उन्होंने तर्क दिया कि वो उस शादी को नहीं मानतीं, क्योंकि मात्र 11 साल की उम्र में तब उनकी शादी कर दी गई थी, जबकि उन्हें शादी क्या होती है, इसका तक पता नहीं था। सहमति लेने का तो सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने अदालत से कहा कि बजाय इस शादी को निभाने के वो जेल जाना पसंद करेंगी। इस तर्क से उन्होंने बाल विवाह के खिलाफ भी एक जंग छेड़ दी थी।
रुखमाबाई ने अदालत में जो कहा, उससे पहले किसी ने इस तरह का तर्क नहीं दिया था। रुखमाबाई ने अपने तर्कों से 1880 के दशक में अखबारों के माध्यम से लोगों का ध्यान अपनी तरफ और बाल विवाह के दुष्परिणाम की आकर्षित कराया। तत्कालीन दौर के समाज सुधारकों रमाबाई रानाडे और बेहरामजी मालाबारी सहित अनेक लोगों ने इस मसले पर उनका साथ दिया।
समाज सुधारकों के हस्तक्षेप और रुखमाबाई के मजबूत तर्कों के बाद अंत में दादाजी ने शादी को खत्म करने की एवज में मौद्रिक मुआवजा स्वीकार कर लिया, जिसके कारण वो जेल जाने से बच गईं।
शादी के झंझट से बाहर निकलने के बाद रुखमाबाई ने डॉक्टरी का प्रशिक्षण लिया। बाल विवाह से मुक्त होने के बाद उन्होंने पत्र—पत्रिकाओं के माध्यम से ही अपील की कि वह डॉक्टरी की पढ़ाई करना चाहती हैं, समाज सुधारकों द्वारा उनके लिए फंड की व्यवस्था की गई। रुखमाबाई लंदन के स्कूल ऑफ मेडिसिन में चिकित्सा की पढ़ाई करने गईं और वहां से एक योग्य फिजीशियन बनकर लौटीं।
उन्होंने लगभग 4 दशक तक डॉक्टरी जगत में सफल योगदान दिया। एक सफल डॉक्टर होने के साथ—साथ समाज सुधार के क्षेत्र में भी रुखमाबाई का योगदान इतिहास में दर्ज है। बाल विवाह के अलावा पर्दा प्रथा का भी उन्होंने जमकर विरोध किया।
बाल विवाह का झेल चुकीं और अपनी मां की जिंदगी में बाल विवाह के कारण आई कठिनाइयों से रू—ब—रू रुखमाबाई ने बाल विवाह के खिलाफ लिखकर समाज को चेताने का भी महत्वपूर्ण काम किया। एक सक्रिय समाज सुधारक और सफल डॉक्टर के बतौर ख्यात रुखमाबाई की मृत्यु 91 वर्ष की आयु में 25 सितंबर, 1991 को हुई थी।