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संस्कृति

एक निपट कवि का बयान

Janjwar Team
1 Sep 2017 5:21 PM GMT
एक निपट कवि का बयान
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'सप्ताह का कवि' में पढ़िए समर्थ वशिष्ठ की कविताएं

युवा कवि समर्थ वशिष्‍ठ में जीवन के गहन व आत्‍मीय पक्षों को अभिव्‍यक्‍त करने की सच्‍ची जिद व ताकत है। वरिष्‍ठ कवि ज्ञानेन्‍द्रपति का मानना है कि सच्‍ची कविता में स्थितियां जिन्‍हें मानवीय संवेदना से निहारा जाता है, वे अपने प्रभाव में प्रतीक बन जाती हैं। यह निहारना समर्थ के यहां समर्थ ढंग से है, 'एक चीड़ थामे है / इकलौते शंकु को /सुन्‍न हाथों में /और मैं खड़ा हूं नीचे / उसके गिरने की ताक में /बैठी है शंकु पर एक किरण / क्‍या वह भी गिरेगी?

नयी व्‍यवस्‍था में आम आदमी की पहचान संकटग्रस्‍त होती दिखती है। पहचान की इस त्रासदी को कवि अपने अनोखे अंदाज में व्‍यक्‍त करता है - कितना त्रासद /अपने बचपन को ढूंढना /अपने चेहरे को बनाकर /पहचान पत्र...

स‍मर्थ के यहां कल्‍पना के जैसे सकारात्‍मक प्रयोग हैं उसकी मिसाल कम मिलती है। प्‍यार की गहराई को इस तरह देखना कल्‍पना के सहारे ही संभव है और निष्‍कलुष विवेक का साथ तो रहता ही है - 'और मैं कल्‍पना करता हूं वे स्त्रियां /जो हो सकती थीं मां।' आइए पढ़ते हैं समर्थ की कुछ कविताएं - कुमार मुकुल


एक निपट कवि का बयान

खेद नहीं मुझे
कि शब्दों की सुलझी क्यारियों
उर्वर बागीचों को छोड़
चुना मैंने
वन में कुकुरमुत्ते बीनना
बादलों की कौंध का करते इंतिज़ार

लिखा नहीं जितना
उससे ज़्यादा किया हवाले
आड़ी लकीरों के
छूटा उससे भी कहीं ज़्यादा
मस्तिष्क की निर्मम गहराइयों में

स्थगन ही रही मेरी स्थाई शैली
बहुत अंतराल पर आए आह्लाद के क्षण

व्यर्थ गए पूरे के पूरे पृष्ठ
जुड़े नहीं शब्द तारतम्य में कभी
जुड़े भी तो बेसुरा ही रहा उनका गान

भाषा की पगडंडियों से गुज़रा बार-बार
बंद करता अपने पीछे सभी द्वार
यूं ही चला कुछ पग कभी-कभार

खेद नहीं मुझे
कि उफ़नती नदी जैसे जीवन को
बांधना चाहा मैंने दो ही पंक्तियों में
गूंजे जिनकी ध्वनि ब्रह्मांड के नीरव में
उतनी ही जितना गौण होना मेरा।

एक प्रेम गीत

हम जानते हैं इक बादल सा अहसास
जो ओस की तरह आकाश से गिरकर
लदता जाता है हमारी पीठ पर

प्यार
हमार नाक पर बैठा
इतराए

प्यार
फैला खुली हवा में
सूखता कपड़े की मानिंद

एक स्त्री का तुम्हें
तुम्हारे तिल और मुहांसे समेत
जानने का आनंद

तुम्हारा एक स्त्री को जानना
अपनी टांग के ढीठ दाद से बेहतर

प्यार
घास के कुंद पत्ते
मसले जाते मख़मली बाग में

प्यार
दिन के वे उलझे क्षण
जब हम होते समझदारी से परे

या अलसुबह
मदमाए कुत्ते के झुंड से भागती
अकेली मादा की दबी पूंछ

प्यार
ॠतुस्राव का गणित
तरल भौतिकी

प्य़ार
कुछ चीज़ें आ जाती हैं पास
यूं ही, उम्मीद से पहले

या टेलीफोन पर घुंट हमारी आवाज़
रात में फुसफुसाती
जब सोई हो हमारी माएँ
बिस्तर में सीटियां बजातीं।

साथी

एक चीड़ थामे है
अपने इकलौते शंकु को
सुन्न हाथ में
और मैं खड़ा हूँ नीचे
उसके गिरने की ताक में

बैठी है शंकु पर एक किरण
क्या वह भी गिरेगी?

Janjwar Team

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