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संस्कृति

प्रत्यक्षा सिन्हा की कहानी 'सीढ़ियों के पास वाला कमरा'

Prema Negi
14 Oct 2018 9:11 AM GMT
प्रत्यक्षा सिन्हा की कहानी सीढ़ियों के पास वाला कमरा
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इक्कीसवीं सदी के आरंभ में समकालीन हिंदी कहानी में लेखिकाओं की एक नई पीढ़ी सामने आई। मनीषा कुलश्रेष्ठ, वंदना राग और जयश्री राय की तरह प्रत्यक्षा सिन्हा ने अपनी विशिष्ठ पहचान बनाई। उनकी भाषा शिल्प और सूक्ष्म दृष्टि तथा संवेदना ने सबका ध्यान खींचा। वे स्त्री के अंतर्मन की कथाकार हैं और बहुत धैर्य से कहानियां बुनती हैं। उनमें किसी तरह की जल्दबाजी और हड़बड़ाहट नहीं है। वह किसी तरह के दवाब में कहानियां नही लिखतीं। वे किसी आग्रह और पूर्वाग्रहों की भी शिकार नही हैं। स्त्री विमर्श की पैरोकार होते हुए उनमें कोई शोर शराबा या झंडाबरदारी भी नहीं है। पिछले दिनों उन्होंने 'बारिश का देवता' कहानी लिखकर यह बता दिया है कि उनका गोलपोस्ट शिफ्ट हुआ है। इस पर उन्हें हंस कथा सम्मान भी मिला।

यहां दी जा रही 'सीढ़ियों के पास वाला कमरा' उनकी कहानी दो स्त्रियों दीदी और बकुल दी की गहरी पीड़ादायक कहानी है, जिसमें एक स्त्री का जीवन कितना अकेला और कष्टदायक हो जाता है। कहानी की नैरेटर भी एक स्त्री है। यह आपसी रिश्तों की ऐसी संस्मरणात्मक कहानी है जिसमें अपने समय का यथार्थ परत-दर-परत उघड़ जाता है। स्त्रियों की दशा में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है। वे विधवा के रूप में विक्षिप्त और एक परित्यक्ता के रूप में टूटी हुई अकेली अब भी कई परिवारों में देखी जा सकती हैं। प्रत्यक्षा ने एक पर्यवेक्षक के रूप में इसे देख कर पेश किया है और पाठकों की संवेदना में एक हलचल पैदा की है। यह कहानी पाठकों से भी धैर्य और स्थिरमन से पढ़ने की मांग करती है—विमल कुमार, वरिष्ठ पत्रकार और कवि

प्रत्यक्षा सिन्हा की कहानी 'सीढ़ियों के पास वाला कमरा'

प्रत्यक्षा सिन्हा

पीछे से तो बकुल दी ही लगीं। मिती हैरान। इतने सालों बाद, ऐसे ही अचानक। गाड़ी एकदम उनके बगल में रोकी।

"बकुल दी” आवाज़ में उत्साह छलका पड रहा था। वो अचकचा कर मुड़ी थीं।

"अरे" अचानक से जैसे पहचान नहीं पाईं हों। मिती गाडी से उतर गई थी।

"आईये न, बैठकर बातें करते हैं", बकुल दी के चेहरे पर असमंजस का भाव तैर गया। फ़िर उसने ही बांह पकड़ कर, दूसरी तरफ़ का दरवाज़ा खोलकर उन्हें बैठा दिया। हँसते हुये कहा, "क्या अभी भी नहीं पहचाना। मैं मिती।"

"तू कितनी बडी हो गई है मिती” बकुल दी उसका हाथ पकड कर हंस दीं।

"लेकिन आप बिलकुल नहीं बदलीं।”

पर ऐसा कहाँ था। बदल तो गई थीं बकुल दी। सस्ती तांत की साडी, कलफ़ की हुई। गनी रंग का मेल खाता एकदम खराब फ़िटिंग का ब्लाउज़। पतली कलाईयां, उभरी नसें, मोटा लाह का कंगन उनके पतली कलाइयों पर एकदम बेमेल लग रहा था। बाल खींचकर छोटा जूड़ा बनाया हुआ। गुलाबी लिपस्टिक होंठों के बाहर बह आया था। गोद में भूरे रंग का सस्ता पर्स। एक ही निगाहमें मिती ने सब देख लिया।

"चलिये बकुल दी , आपको घर छोड दूँ। रास्ते में बात भी हो जायेगी।” मिती ने गाडी स्टार्ट करते हुये कहा।

"तू कहां है मिती, आजकल?” बकुल दी ने आग्रह किया।

"बस, अभी कुछ दिन पहले ही आई हूं। बैंक में हूं। शादी हो गई है। अब आप अपनी बताईये।" एक सांस में मिती कह गई।

बकुल दी चुप।

"बस, हम तो यहीं हैं।” एक हल्की सी उसाँस लेकर धीरे से उन्हों ने कहा।

हां, बकुल दी तो यहीं हैं। मिती को याद आ गया। कितने साल बीत गये। उंगलियों पर गिने बिना बताना एकदम सही, मुश्किल।

उसे याद है जब पापा का तबादला इस शहर में हुआ था. पापा पहले आकर घर तय कर गये थे।

"घर तुमलोग को पसंद आयेगा।”

और घर सचमुच सबको पसंद आया था। खूब बड़े बड़े कमरे, ऊंची छतें, सामने खूब चौड़ा बरामदा, बड़ा सा अहाता, लॉन। गेट के पास दो अमलतास के पेड, जिनके नीचे गर्मियों में ढेर सारे फ़ूल गिते रह्ते ,फ़िर धीरे धीरे सूख जाते

पीछे की ओर आंगन और आंगन में अमरूद का पेड़। जाली से घिरा पीछे का बरामदा इसी आंगन में खुलता था। आंगन के दूर वाले सिरे पर चार कमरे एक लगातार में, रेल के डब्बों से। दो परिवार थे, चपरासियों के जो मकान मालिक सान्याल साहब के दफ़्तर में काम करते थे।

शायद अमलतास के पेड़ों की वजह से घर का नाम भी अमलतास पड़ा था। मिती को अच्छी तरह याद है गर्मियों के दिन थे, जब वे लोग इस मकान में आये थे। ऊपर वाले तल्ले पर सान्याल साहब का परिवार था। खुद सान्याल साहब वकील थे। उनकी पत्नी, दुबली पतली, खूब गोरी, एकदम पीली सी। बाल एकदम चट काले। एक बेटा था खोकोन, शायद मिती के ही उम्र का। बेहद शर्मीला। बकुल दी, सान्याल साहब की बेटी थीं। शादीशुदा, ससुराल में, पर तब बकुल दी से कहां परिचय था। परिचय तो तब दीदी से भी नहीं था। दीदी सान्याल साहब की विधवा बड़ी बहन थीं। सब उन्हें दीदी ही कहते थे।

दीदी से पहला परिचय भी मिती का ही हुआ था। मकान में शिफ़्ट करने के एक दो दिन बाद दीदी बाहर वाले बरामदे के सीढियों पर बैठी मिली थीं। मटमैली सी साड़ी, बदरंग ब्लाउज़, खिचड़ी बाल कंधे तक, उजाड़ फ़हराये हुये। निर्विकार चेहरे पर झुर्रियों का जाल। बाद में पता चला था सान्याल साहब से उनका रिश्ता।

शुरू के कुछ दिन तो उनको नये घर में व्यवस्थित होने में लगे। पापा का दफ़्तर शुरू हो गया था। घर में मां थीं, सरू दी थीं और मिती थी। गर्मी की छुट्टियां थीं। स्कूल में एडमिशन छुट्टियों के बाद होता। मिती के मज़े थे। मज़े तो सरू दी के भी थे। इन्टर की परीक्षा देकर आईं थीं इसलिये अभी तो छुट्टी ही थी। अगल बगल की सारी खबरें घर में पहले मिती ही लाती। पीछे आउटहाउज़ था जिसमें मंडल नामका चपरासी अपने बेटे के साथ एक कमरे में रहता।

दो कमरे दूसरे परिवार को मिले हुये थे। बाप सान्याल साहब के दफ़्तर में था। बेटा किसी प्रायवेट दफ़्तर में। घर में सास थी, बहु थी और दो बच्चे। चौथा कमरा ताला लगा हुआ था।

मिती ने ही एकाध बार खोज करते दरारों से झांक कर जरा मायूस होते रिपोर्ट दी कि कुछ खास नहीं सिर्फ़ सामान भरा पड़ा है, शायद सब कबाड़।

पीछे जो बूढी थी वो काफ़ी दबंग किस्म की सास थी। खूब लंबी चौड़ी, साफ़ खुलता रंग, पर चेचक के निशान से भरा। खूब बड़ा टीका लगाती, मांग में लहलह सिंदूर। पैरों में बिछिया आलता। बडे रंगीन छापे वाली साड़ी पहनती। बहू बेचारी एक हाथ के घूंघट में छिपी, सास से त्रस्त रहती। साड़ी में लिपटी जो ज़रा सा दिखता वो खूब गोरा। लंबी छरहरी। मिती को लगता कि वो बहुत सुंदर होगी।

बहू का रूपरंग भी चर्चा का विषय रहता। सरू दी का कहना था कि बस भरपेट गोरी ही है। जरूर शक्ल अच्छी नहीं तभी छुपाये रखती है। बेचारी सरू दी जो खुद सांवली थीं, उन्हें गोरे रंग का बड़ा काम्प्लेक्स था।

बहू के रूप का अन्वेषण भी मिती ने ही किया। चूल्हे की आग पर बैंगन भरता पकाने के लिये मिती उनके घर से घिरे बरामदे के कोने में, जहां उनकी रसोई पकती, गई थी।

"इसे ज़रा आग पर पका दीजिये। माँ ने कहा है”

बहू ने खट से पहले चेहरे को आंचल से ढका था फ़िर अपनी कढाई उतार कर बैंगन पकाने लगी थी। मिती ने ही बाद में सरू दी को हंसते हुये बताया था, "तुम ठीक कहती थी दी, बस गोरी है। आंख नाक भी तीखे, नुकीले। बस ज़रा सा दांत ही तो...” उसने आँख मटकायी थी बड़ी बूढियों की तरह।

दीदी के बारे में, उन्हें बूढ़ी सास ने बताया था। कभी कभी बरामदे की सीढी पर आ बैठ जातीं। दीदी ब्याही थीं किसी बहुत बडे खानदानी परिवार में। खूब सुखी जीवन था। एक बेटी थी। एक बार रात कहीं से लौटते, किसी भिखारी के शव पर पैर पड़ गया था। बस शायद तभी से दिमाग गड़बड़ा गया था। पति बाद में नहीं रहे। बेटी का अपना घर संसार है। पगली बहन की देखभाल, सान्याल साहब ही कर रहे हैं।

मिती आंखें फ़ाड़े, हैरान कहानियों की तरह किस्से सुनती। माँ कभी कभी बहुत गुस्सा होतीं, "तुम इन चीज़ों में क्यों पड़ती हो। छोटी हो, जाओ, अपने कमरे में पढाई करो।” पर मिती को इन किस्से कहानियों में बहुत मज़ा आता।

सान्याल साहब और उनकी पत्नी अपनी दुनिया में मगन रहते। कभी कभार ही नीचे दिखते। दीदी ही थीं जो सुबह, दोपहर, शाम सामने के बरामदे पर बैठी रहतीं। उनका कमरा नीचे ही था, सीढियों के बगल में। मिती देख आई थी। एक पलंग, एक टूटा सा बक्सा, टेबल पर कुछ बरतन वगैरह। तीनों समय ऊपर से दीदी का खाना नीचे आ जाता। इसके अलावा ऊपर और दीदी की दुनिया में कोई और संपर्क का तार नहीं था। बीच बीच में कभी उनको दौरा पड़त तब एकदम वायलैंट हो जातीं। सुई देकर उन्हें सुलाया जाता। डॉक्टर आता। बाकी समय एकदम चुपचाप बाहर बैठी रहतीं।

मिती उनके पास बैठती कभी कभार। अपनी टूटी फ़ूटी बांगला मिश्रित हिंदी में दीदी उससे बात करती। कुछ पूछने पर ज़रा सा मुस्कुरा कर सिर्फ़ हैं गो, कहतीं। कभी मूड में रहतीं तो अपने ससुराल के वैभव के किस्से सुनाती। पर ऐसा कभी कभी ही होता।

मिती बैठकर बहुत सोचती। दीदी पर उसे बहुत दया आती और सान्याल परिवार पर गुस्सा। अगर वो लोग इनको साथ रखें तो शायद वे ठीक हो जाउएं। उसका किशोर मन द्वंद्व मचाता।

कभी श्रीमती सान्याल ने ही माँ के सामने दुखड़ा रोया था।

"हमारे माथे पड गईं। बेटी को ज़रा भी ख्याल नहीं इनका। अड़ोस पड़ोस में जाकर चाय खाना मांगती रहती हैं, जैसे हम देते नहीं। जीवनभर निभाना पड़े तब लोगों को पता चले।”

उनका स्वर कड़वा हो गया था। कभी कभी दीदी उनका दरवाज़ा भी समय कुसमय खटखटा देतीं, "सुबह से कुछ खाया नहीं। एक कप चाय देगा?” वो कातर स्वर में विनती करती। सान्याल साहब आकर पकड कर ले जाते।

"माफ़ करिये, आपको तकलीफ़ हुई। अभी खाना खाया है। इन्हें याद नहीं रहता।”

छुट्टियां खत्म हो गई थीं। मिती स्कूल जाने लगी थी। सरू दी ने भी बीए में नाम लिखा कर कॉलेज जाना शुरू कर दिया था। माँ ने बोरियत से बचने के लिये पास में ही एक स्कूल ज्वाइन कर लिया था बतौर हेडमिस्ट्रेस। किसी के पास अब दीदी से बात करने या पीछे की सास बहू के बारे में चर्चा करने का समय नहीं था। जीवन एक निश्चित गति से चल रहा था।

इसी बीच एक रात, लगभग तीन चार बजे अलसुबह को खूब आवाज़ें, बहुत शोर। पापा उठ कर गये थे देखने। मिती डर कर माँ के पास आ गई थी। पापा लौट आये थे, "सो जाओ, कुछ खास नहीं।”

बाहर शोर थम गया था। माँ से सट कर मिती फ़िर सो गई थी। अगले दिन पापा माँ की बातचीत से पता चला कि सान्याल साहब की शादीशुदा बेटी को उसके ससुराल वाले मायके पटक गये थे।

ऊपर एकदम सन्नाटा था। हफ़्ते दस दिन तक एक पत्ता भी नहीं खड़का। आमतौर पर खोकोन दोपहर में, स्कूल से लौट कर रौलर स्केट्स चलाता, जिससे नीचे एक अजब से खरड़ खरड़ की आवाज़ होती। बडा नागावार लगता पर मकान उनका था, कुछ कहा भी नहीं जा सकता था। इधर वो आवाज़ भी बंद थी।

फ़िर एक दिन बकुल दी ही नीचे आईं थीं, फ़ोन करने। उनका फ़ोन खराब था। मिती को बकुल दी बहुत प्यारी लगी थीं। चेहरे पर पानी था। खूब बड़ी बड़ी तरल आँखें। छोटी सी, दुबली पतली थीं। एकदम बच्ची सी लगतीं। दिन महीने बीत रहे थे। बकुल दी कभी कभी नीचे आ जातीं। बातें करतीं पर अपने पति या ससुराल का कोई ज़िक्र नहीं करतीं।

फ़िर आया था, तलाक का कागज़। उस दिन नीचे ही बैठी थीं। लिफ़ाफ़ा खोलते ही उनका चेहरा सफ़ेद पड़ गया था। मिती एकदम घबडा गई थी। सरू दी ने पानी लाने भेजा था। पानी का ग्लास लेकर लौटी तो बकुल दी को सरू दी के कँधे पर सर रख कर फ़फ़क—फ़फ़क कर रोते देखा था, मिती ने। टूटे अस्फ़ुट स्वर थे। चरित्रहीनता का लांछन था, बांझ होने का भी दोष लगाया था उन्होंने।

"ईश्वर गवाह है, लोगों ने तो सीता को भी नहीं बख्शा था।” उनकी आवाज़ अंदर से टूट कर आ रही थी। इतने दिनों तक ऊपर से शांत स्थिर बनी रही थीं। पर अंदर, दुख का लावा फ़ट रहा था।

मिती बहुत कुछ नहीं समझ पाई थी पर ये जरूर समझा था कि कहीं बहुत गलत हुआ है बकुल दी के साथ। पर उस दिन के बाद फ़िर कभी, मिती ने बकुल दी को उदास या दुखी नहीं देखा। वो गाहे बगाहे नीचे आतीं सरू दी से गप करने, मिती से किताबें माँग कर पढ़ने। मिती भी जब तब बकुल दी का सहारा लेकर ऊपर चली जाती, "बकुल दी, आज कुछ अच्छी सी किताब दीजिये।”

और बकुल दी भी खोज खोज कर कभी अगाथा क्रिस्टी, कभी वुड हाउस, कभी विक्टोरिया होल्ट निकाल कर उसे देतीं।

उसी घर से सरू दी की शादी हुई। घर में अब सिर्फ़ तीन प्राणी रह गये थे। मिती सरू दी को बेतरह मिस करती। इसी बीच पापा का तबादला हो गया। शहर छूटने का जितना दुख था उससे ज्यादा बकुल दी छूट जायेंगी, इसका मलाल था। सरू दी की शादी के बाद बकुल दी ही मिती की राजदार थीं।

शहर छूटा और बकुल दी भी छूट गईं। आज इतने सालों बाद मिती यहीं, इसी शहर आ जायेगी तब कहां सोचा था। यहां ज्वायन किये महीना भर ही तो हुआ है। बीरेन का तबादला भी लगभग थ्रू ही है। तब तक अकेले रहना है।

"बकुल दी आप अब भी उसी मकान में हैं?"

"हाँ, खोकोन की शादी हो गई, नौकरी हो गई। बाबा, माँ नहीं रहे। दीदी भी।”

उनकी अवाज़ में अजीब सी उदासी थी।

"स्कूल में पढाती हूं। अपने लिये खर्च निकल जाता है। अब जीवन में और रखा क्या है।” हल्की उसाँस लेकर उन्होंने कहा।

"बस मिती यहीं उतार दे मुझे। आगे रोड बन रहा है। गाड़ी शायद नहीं जा पायेगी।”

उसका हाथ अपने हाथ में लेकर हल्का सा दबा दिया।

"आना जरूर।”

बकुल दी उतर गईं थी। उसके माथे को सहलाया, हंसी और फ़िर तेज़ी से मुड़कर बढ़ गईं। दो कदम चलकर फ़िर लौटीं। "मिती, आना तो नीचे ही आना। दीदी वाला कमरा अब मेरा है।”

मिती उन्हें तब तक देखती रही जब तक कि अगली मोड से मुडकर वो ओझल नहीं हो गई। अनायास अमलतास के सूखे नीचे गिरे फ़ूलों की याद मिती के मन को दहका गई।

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