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राजकिशोर अक्सर मुझसे कहते थे "ज़िन्दगी तो आप जी रहे हैं!" और मैं कहता "लेकिन कब तक?"

राजकिशोर मेरे पास आने को लालायित दिखते रहे, मगर लाइलाज समाज को बदलने की अपनी तमन्ना में ही तल्लीन और निराश रहे, लोहिया और किशन पटनायक जैसे लोगों से प्रभावित रहे, मगर समाज की गहरी नींद पर चकित थे...
जिंदगी के हर पल को अनोखा जीने वाले लेखक सैन्नी अशेष की कलम से
राजकिशोर पहले पत्रकार थे, जिन्हें मैंने हिमाचल प्रदेश में बुलवाकर सम्मानित किया था; सम्मान को अक्सर वाहियात चीज़ मानते हुए भी उनसे गुज़ारिश की तो वे सपरिवार मेरे पास आ गए। पत्नी, पुत्र और पुत्री के साथ! उन्होंने कुछ नहीं पूछा और चले आए। मुझे याद है हिमाचल के लेखकों के साथ ही देशभर के लेखकों-कवियों-पत्रकारों ने उस समारोह में शिरकत की थी।
उनके और मेरे सरोकार लगभग विपरीत ध्रुवों पर थे, लेकिन मैं युवावस्था से उनकी ईमानदारी का कायल था। मुझसे दो ही साल बड़े रहे होंगे। वे मुझसे अपनी पत्रिका 'दूसरा शनिवार' में मेरे संस्मरण लिखवाते रहे।
गांधी जी उनके आदर्श रहे और उन्होंने कुछ समय गुजरात के गाँधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविधालय में प्रोफेसरी भी की। उनकी एक किताब 'मैं हिन्दू क्यों नहीं हूँ?' ने विचारशील लोगों को झिंझोड़ कर रख दिया था।
मैंने उन्हें कलकत्ता के आनंद बाजार पत्रिका समूह की साप्ताहिक पत्रिका 'रविवार' से पढ़ना शुरू किया और फिर राजेंद्र माथुर के वक़्त के नवभारत टाइम्स के बाद देश भर की पत्र—पत्रिकाओं में देखा। शायद माथुर और ओम थानवी जैसे सम्पादकों के साथ ज़्यादा देखा। 'हंस' के संपादक राजेंद्र यादव तो उन्हें परेशान किए बिना नहीं छापते थे।
मेरे घर पर देशभर के लेखक-लेखिकाओं के साथ उनके संस्मरण लगभग 20 साल पहले कुछ पत्र—पत्रिकाओं में आए थे, जिनमें मैंने उनकी लगातार सिगरेट पीने की आदत पर चुटकी ली थी।
राजकिशोर अपनी किताबों पर मेरी राय जानने के लिए मुझे अपनी किताबें भेजते थे। अपने उपन्यास 'उसका सुख' के प्रकाशन पर भी उन्होंने मेरी राय मंगाई थी। मेरी एक किताब के सम्मान-समारोह पर वे दिल्ली के त्रिवेणी सभागार गए थे, मगर समारोह समाप्त हो चुका था और वे हमारे ठहरने की जगह पर जा पहुंचे थे।
वे मेरे पास आने को लालायित दिखते रहे, मगर लाइलाज समाज को बदलने की अपनी तमन्ना में ही तल्लीन और निराश रहे। लोहिया और किशन पटनायक जैसे लोगों से प्रभावित रहे, लेकिन समाज की गहरी नींद पर चकित थे।
अक्सर अपने डिप्रेशन के कारण सभाओं में रोने भी लगते थे तो मुझे कमलेश्वर की सम्पादकी वाली 'सारिका' के एक सहायक लेखक रमेश बत्रा की याद आती जो हमारे शिविरों में आते थे।
कुछ ही दिन पहले राजकिशोर का युवा पुत्र भी गुज़र गया था। आज वे खुद भी चले गए। जबकि चाहते भी रहे कि आकर मेरे साथ रहें।
जो लोग हमारे घर पर आकर रहे हों और जिनकी हम पर छाप भी छूटी हो, उनके असमय चले जाने पर सदमा लगता ही है। हालांकि जाना सबको है।
उन्होंने लिखा था, "राजनीति करना चाहता था, पर पत्रकारिता और साहित्य में आ गया। अब फिर राजनीति में लौटना चाहता हूं, लेकिन परंपरागत राजनीति में नहीं। बार-बार ख्याल आता है कि क्या मार्क्स की राजनीति गांधी की शैली में नहीं की जा सकती। एक व्यापक आंदोलन छेड़ने का पक्का इरादा है। उसके लिए साथियों की तलाश है। आप साथ आना चाहें, तो हार्दिक स्वागत है।"
अब कोई नहीं... कोई नहीं आएगा... (राजकिशोर जी का परिवार के साथ यह फोटो उनके स्वर्गीय पुत्र विवेक राज की वॉल से)