Begin typing your search above and press return to search.
जनज्वार विशेष

'कश्मीर की समूची आबादी सूचना और समाचार के काल कोठरी में दफना दी गई'

Prema Negi
2 Dec 2019 10:59 AM IST
कश्मीर की समूची आबादी सूचना और समाचार के काल कोठरी में दफना दी गई
x

निगरानी, डराना-धमकाना और गिरफ्तारियां कश्मीरी पत्रकारों को प्रताड़ित करने के लिए की जा रही हैं इस्तेमाल और मीडिया को बहुत सावधानी से करना पड़ रहा है काम, अखबार कुछ विषयों को तब तक नहीं छूते जब तक सरकार उन्हें ऐसा न कहे...

कश्मीर घाटी में संचारबंदी के सौवें दिन रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने वीडियो की एक श्रृंखला जारी की। आरएसएफ ने नौ स्थानीय पत्रकारों के इंटरव्यू किये उन बाधाओं के बारे में जिनके बीच उन्हें ब्लैकआउट के बाद काम करना पड़ रहा है...

राष्ट्रीय दैनिक 'दि हिन्दू' के कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के संवाददाता पीरज़ादा आशिक ने 5 अगस्त को घाटी के सभी पत्रकारों को हुए अनुभव को बयां करते हुए कहा, "कल्पना कीजिये कैसा होगा जब एक पत्रकार एक दिन जागता है बिना इन्टरनेट, बिना मोबाइल नेटवर्क और यहाँ तक कि बिना लैंडलाइन टेलीफोन के।"

नयी दिल्ली की केंद्र सरकार ने देश के सबसे ज़्यादा सैन्यीकृत क्षेत्र बन चुके संघर्षग्रस्त जम्मू एवं कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 हटाने के साथ ही संचारबंदी लागू की थी।

क्षेत्रीय दैनिक 'राइजिंग कश्मीर' के फैसल यासीन कहते हैं, "हमारे समय के लिए, मेरी पीढ़ी के लिए यह इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना है पर हमारे पास इसे कवर करने के कोई तरीके नहीं थे। यह सचमुच त्रासद है।"

आरएसएफ के एशिया पसिफिक डेस्क के प्रमुख डैनियल बस्टार्ड कहते हैं, "जो यह पत्रकार कह रहे हैं वह उन भयावह हालात पर टिप्पणी हैं जिनमें यह अपना काम करने की कोशिश कर रहे है।

"यह ख़ौफ़नाक है। तकनीकी बाधाएं, निगरानी करना, धमकाना, गिरफ्तारियां- सबकुछ इस तरह से सुनियोजित है कि घटनाओं को केवल उसी रूप में देखा-सुना जाए जैसा नयी दिल्ली चाहती है। कश्मीर घाटी की आबादी पिछले सौ दिनों से समाचार और सूचना के एक काल कोठरी में दफना दी गयी है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह स्थिति लज्जाजनक है।

प्राचीन युग

पहले दिन से ही पत्रकारीय कार्य को विशिष्ट रुकावटों से ब्लाक कर दिया गया। 'दि इंडियन एक्सप्रेस' के रिपोर्टर बशरत मसूद कहते हैं, 'आप किसी को फ़ोन नहीं कर सकते और आप कर्फ्यू के कारण कहीं जा नहीं सकते। और किसी तरह आपने कुछ लिख भी दिया तो इसे भेजने या इसके छपने का कोई तरीका नहीं है।'

प्रेस टीवी संवाददाता शहाना भट्ट कहती हैं, "यह ऐसे ही है जैसे हम वापस प्राचीन युग में चले गए हैं। संवाददाता यदि कश्मीर की पहाड़ियों से जानकारी जुटा भी लें तो बाहरी दुनिया तक पहुँचाने के लिए बहुत कुशल तरकीबें चाहिए। बड़े मीडिया हाउस कूरियर (संदेशवाहक) का इस्तेमाल कर रहे हैं जो अपनी ख़बरों को पेन ड्राइव में लेकर विमान से दिल्ली जाते हैं।

जटिल प्रक्रिया

शिक ने एक दोस्त की मदद ली जो एक टीवी नेटवर्क के लिए काम करता है और इसलिए एक सैटेलाइट अपलिंक तक उसकी पहुँच है। आशिक बताते हैं, "मैंने अपना लेख हाथ से एक कागज़ पर लिखा, उसका हमने वीडियो बनाया और उसे उसके नई दिल्ली स्थित टीवी नेटवर्क को भेजा। उन्होंने वह वीडिओ फाइल मेरे अखबार को भेजी जिन्होंने फिर आख़िरकार मेरे लेख को फिर से टाइप किया।"

ज़ाहिर है ऐसी जटिल प्रक्रिया नियमित रूप से नहीं अपनाई जा सकती। 'कश्मीर रीडर' के जुनैद बज़ाज़ कहते हैं, "जो खबर मैं तीन से चार घंटे में कर लेता था, अब मुझे पांच या छह दिन लग जाते हैं।"

दिखावे के लिए भारत सरकार ने श्रीनगर में एक "मीडिया फैसिलिटेशन सेंटर" स्थापित किया। फ्रीलांसर अथर परवेज़ कहते हैं, 'हममें से कई इसे मीडिया फैसिलिटेशन सेंटर कहने से झिझकते हैं। पहले वहां सिर्फ चार कंप्यूटर थे और एक लैंड लाइन और कोई वाय-फाय कनेक्शन नहीं।" अधिकारियों ने बाद में कंप्यूटरों की संख्या दोगुनी कर आठ कर दी। अस्सी लाख की आबादी वाले क्षेत्र की ख़बरें दुनिया तक पहुँचाने के लिए आठ कंप्यूटर। मीडिया के कार्य को 'फेंसिलिटेट करने' (‘सुगम' बनाने) के लिए क्या इससे बेहतर नहीं सोचा जा सकता था।'

शिक कहते हैं, "जब आप मीडिया फैसिलिटेशन सेंटर जाते हैं तो आपको कतार में लगना पड़ता है और अपनी खबर फाइल करने के लिए अपनी बारी आने का इंतज़ार करना होता है। कभी-कभी इसमें दो से तीन घंटे लग जाते हैं।" और फिर हर पत्रकार को कंप्यूटर पर केवल 15 मिनट दिए जाते हैं। यासीन कहते हैं, "कल्पना कीजिये एक 12 पृष्ठों का अखबार बनाने के लिए सिर्फ 15 मिनट। आम तौर पर जिसमें 24 घंटे लगते हैं। यह बिलकुल असंभव है।"

अपमानजनक

सेंटर में पत्रकारों के काम और स्रोत की गोपनीयता के लिए कोई सम्मान नहीं है। आशिक कहते हैं, "यह अपमानजनक ही है कि आपका कंप्यूटर स्क्रीन अन्य 20 पत्रकार देख सकते हैं, भले आप कोई निजी सन्देश लिख रहे हों।" परवेज़ बताते हैं कि वह एक संपादक को एक सन्देश भेज रहे थे और पीछे एक पत्रकार ने उनके कंधे पर थपकी देकर टाइपिंग की एक गलती पर ध्यान दिलाया। उन्होंने कहा, "यह उदाहरण है कि गोपनीयता का क्या हाल हो चुका है।"

जो पत्रकार सेंटर का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं, उन्हें कोई भ्रम नहीं है। 'ग्रेटर कश्मीर' पत्रिका के पूर्व संपादक और इस समय फ्रीलांसर हिलाल मीर ने कहा, "जैसे ही उन्होंने केंद्र शासन स्थापित करने की घोषणा की, हम तुरंत समझ गए कि कश्मीर में आने वाली और यहाँ से जाने वाली हर ख़बर और सामग्री पर निगाह रखी जायेगी।" बज़ाज़ कहते हैं, "ज़ाहिर है कि अधिकारियों को उनका इन्टरनेट इस्तेमाल करने वाले सभी लोगों की सभी जानकारी तक पहुँच है।"

जोखिम-भरी रिपोर्टिंग

फील्ड में रिपोर्टिंग भी उतना ही जोखिम भरी है। आशिक कहते हैं, "हमने व्यापक मानवाधिकार उल्लंघनों की बातें सुनीं, पर संचार नेटवर्क के अभाव में जानकारी की पुष्टि करना बहुत मुश्किल है।" बज़ाज़ सहमति जताते कहते हैं, "रिपोर्टर जो बाहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में हैं, के पास अपने संस्थानों को अपनी ख़बरें भेजने का कोई साधन नहीं है। इस तरह जब तक आप उस स्थान पर खुद जाते नहीं हैं, यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि वहां क्या हो रहा है।" पर जो पत्रकार गाँव में जाने की कोशिश करते हैं अर्धसैनिक बलों के रोड ब्लॉक पर रोके जाते हैं और पूरे क्षेत्र की घेराबंदी किये सुरक्षाबल उनके साथ बदसलूकी करते हैं।

ट्ट कहते हैं, "मैं भी पुलिस से भिड़ चुका हूँ। एक पुलिसकर्मी हम पर चिल्लाया, वह जानना चाहता था कि हमने कोई वीडियो फुटेज तो शूट नहीं किया है। मैंने उससे पूछा कि किया हो तो क्या? उसने कहा कि ऐसा है तो वह हमारा कैमरा तोड़ देगा।" कहासुनी का अंत पुलिसकर्मी के यह कहने पर हुआ, 'इससे पहले कि बात और बिगड़ जाए, यहाँ से चले जाओ।'

डराकर खामोश करना

यह घटना प्रतीक है कि अधिकारी पत्रकारों को कैसे प्रताड़ित कर रहे हैं। आशिक बताते हैं, "पहले दिन, उन्होंने कुछ पत्रकारों को गिरफ्तार किया और घोषणा की कि उन्हें एक या दो घंटे के लिए हिरासत में लिया गया है। सरकार संभवत: समूचे पत्रकार समुदाय में सन्देश भेजना चाहती थी कि हम कौन है, क्या लिखते है और किसके लिए काम करते हैं इस पर वो पूरी निगरानी रखे हुए है।"

मीर बताते हैं, "ऐसी अफवाहें थीं कि कम से कम 130 पत्रकार ‘काली सूची' में हैं और उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है, इसलिए पत्रकार सचमुच डर गए थे और चुप बैठ गए।" 'न्यूजक्लिक वेबसाइट' के संवाददाता अनीस ज़रगर ने कहा, "हमें नहीं पता कि वास्तव में कितने पत्रकारों को हिरासत में लिया गया है। इसका पता तभी चलेगा जब संचारबंदी हटेगी।"

लाल लकीरें

अनिश्चितता का पत्रकारों पर गहरा प्रभाव पड़ा है, खासकर जब वह फील्ड में जाते हैं। उदहारण के लिए ज़रगर ने श्रीनगर के दक्षिण में 50 किलोमीटर के फासले पर शोपियां में टॉर्चर की ख़बरों की पुष्टि करने की कोशिश की। वह कहते हैं, "एक तरह से आप भयभीत महसूस करते हैं, मैंने जैसे महसूस किया कि मेरे साथ कुछ भी हो सकता है और मैं किसी को बता नहीं सकूंगा, किसी को फ़ोन नहीं कर पाऊंगा। यही कारण है कि कुछ पत्रकार खुद को ही सेंसर कर रहे हैं।"

शिक कहते हैं, "मुझे लगता है कि सरकार ने सुनिश्चित किया है कि हम समझ जाएँ कि अगर हमने लाल रेखाएं पार कीं तो हमारे साथ क्या हो सकता है। वह एक पत्रकार को पुलिस थाने में रिपोर्ट करने के लिए कह सकते हैं या पत्रकार को परोक्ष धमकियाँ भी जारी कर सकते हैं।"

एकालाप

निगरानी, डराना-धमकाना और गिरफ्तारियां कश्मीरी पत्रकारों को प्रताड़ित करने के लिए इस्तेमाल की जा रही हैं और मीडिया को बहुत सावधानी से काम करना पड़ रहा है जिसका नतीजा है कि विचार की विविधता बिलकुल नहीं है। यासीन कहते हैं, "अखबार कुछ विषयों को तब तक नहीं छूते जब तक सरकार उन्हें ऐसा न कहे। उदाहरण के लिए अखबारों में अब सम्पादकीय नहीं होते।"

शिक कहते हैं, "यदि अखबार सम्पादकीय छापना बंद कर देते हैं तो इसका मतलब है कि वह कुछ मुद्दों पर अपनी राय प्रस्तुत करने से रोके जा रहे हैं और यह दिखता है कि कुछ प्रकार के विचार अख़बारों से प्रतिबंधित हैं। इस तरह सरकार का मनचाहा एकालाप चल रहा है जो अनुच्छेद 370 के फायदों-नुकसान पर कोई चर्चा नहीं चाहती।"

पीड़ा का अंत नहीं

यह भयावह स्थिति पिछले सौ दिनों से बिना किसी वास्तविक सुधार के जारी है। कश्मीर प्रेस क्लब के महासचिव इशफाक तांत्रे कहते हैं, 'हमने लगातार कोशिश की है कि सरकार के साथ बात कर इन समस्याओं को हल किया जाए। हमने हर स्तर पर अधिकारियों से बात करने की कोशिश की है, पर कुछ हासिल नहीं हुआ। पत्रकारों की पीड़ा का कोई अंत नहीं है।'

रएसएफ के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स की रैंकिंग में इस समय भारत 180 देशों में 140वें नंबर पर है, जो कश्मीर घाटी में पत्रकारिता पर राजनीतिक कार्रवाई के कारण और नीचे खिसक सकता है।

(यह रिपोर्ट आरएसएफ़ यानी रिपोर्टर्स विथाउट बॉर्डर्स ने 13 नवंबर 2019 को अपने वेबसाइट पर प्रकाशित की थी। मूल लिंक में आप कश्मीरी पत्रकारों से इस बातचीत के वीडियो भी देख सकते हैं। इस रिपोर्ट का अनुवाद कश्मीर ख़बर ने किया है।)

मूल रिपोर्ट : RSF breaks the silence forced on journalists in Indian-administered Kashmir

Next Story

विविध