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लोकसभा चुनाव में 40-45 प्रतिशत मतदाता वोट देने से रह जाएंगे वंचित, लेकिन चुनाव आयोग को नहीं कोई फिक्र
रोजी रोटी के लिए अपने घरों से दूर रह रहे लोग कहते हैं, जब इस देश में राशन लेने से लेकर रिश्ते तलाशने तक हर चीज डिजिटल हो गया है, तो वोटिंग को डिजिटल प्लेटफार्म क्य़ों नहीं उपलब्ध कराया जा रहा है, ताकि हम जैसे सैंकड़ों किलोमीटर दूर बैठे लोग भी अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकें…
सुशील मानव
देश के निर्वाचन आयोग के अनुसार लोकसभा 2019 के अब तक के तीन चरणों के चुनावों में 55-60 प्रतिशत मतदान हुआ है। यानी देश के लगभग 40-45 प्रतिशत मतदाता अभी भी वोट नहीं डाल रहे हैं या डाल पा रहे हैं। आखिर मतदान न करने वाले ये 40-45 प्रतिशत मतदाता हैं कौन, जो अपने वोट के अधिकार का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। क्या ये गैरजागरुक मतदाता हैं जिन्हें अपने वोट के ताकत की पहचान नहीं है, या ये वो वोटर हैं जो राजनीतिक चेतना के अभाव के चलते उदासीन हैं, या फिर ये वो मतदाता हैं जो देश की खराब राजनीतिक दशा-दिशा और बेहतर विकल्प न होने के चलते मतदान के प्रति उदासीन हैं।
असल समस्या से अनभिज्ञ है राजनीतिक दल और निर्वाचन आयोग
निर्वाचन आयोग का मानना है कि अपने मताधिकार का प्रयोग न करने वाले ये 40 प्रतिशत लोग गैर जागरूक लोग हैं। इसीलिए निर्वाचन आयोग जागरुकता कार्यक्रम चलाता रहता है। कमोवेश यही सोच राजनीतिक दलों की भी है। सत्तारूढ़ भाजपा मतदान को अनिवार्य बनाने की बात लगातार उठाती आई है और इसे अपने लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र में भी शामिल कर चुकी है।
इसी के तहत वर्ष 2016 में गुजरात की भाजपा सरकार ने गुजरात में स्थानीय निकायों के चुनाव में प्रत्येक व्यक्ति के लिए मतदान अनिवार्य कर दिया था। मतदान न करने पर उस व्यक्ति को कारण बताने का प्रावधान किया गया था और संतोषजनक कारण न दे पाने की स्थिति में सजा और जुर्माना का प्रावधान भी किया गया था। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते इस कानून की परिकल्पना वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी।
मोदी ने 2009 और 2010 में गुजरात विधानसभा में विधेयक भी पारित किया था, लेकिन तत्कालीन राज्यपाल कमला बेनीवाल ने इस विधेयक को संविधान के अनुच्छेद 21 के विरुद्ध करार देते हुए यह कहकर लौटा दिया था कि “मतदाता को वोट डालने के लिए विवश करना उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विरुद्ध है।”
एक राज्य से दूसरे राज्य जाकर काम करने वाले मजदूर नहीं दे पाते वोट
करोड़ों लोग कामकाज की तलाश में अपने गांवों से सैकड़ों मील दूर देश के विभिन्न शहरों व महानगरों में रहते हैं। केवल मतदान के उद्देश्य से हजारों मील दूर अपने गांव-कस्बों तक आने-जाने का सफर न तो व्यवहारिक होता है न ही आसान।
सुरक्षागार्ड की नौकरी करने वाली बिहार की ममता देवी
सहरसा बिहार की ममता देवी 10-12 साल से दिल्ली रहती हैं और 7 हजार के मासिक वेतन पर जनपथ बाज़ार में सुरक्षागार्ड की नौकरी करती हैं, जबकि उनके पति दिल्ली में ही दिहाड़ी मजदूर हैं। ममता बताती हैं इस दरमियान तीन लोकसभा और दो विधानसभा चुनाव हुए, एक भी चुनाव में वो वोट नहीं डाल पाईं, क्योंकि मतदान के लिए हजारों रुपए खर्च करके बिहार जाना उनके सामर्थ्य की बात नहीं है। ममता कहती यदि मुझे मेरे शहर में रोटी रोजी मिलती तो मैं काहे को दिल्ली आती।
उड़ीसा के मंगूराम पुरानी दिल्ली के सदर बाज़ार में पल्लेदारी का काम करते आ रहे हैं। वो बताते हैं कि उन्हें दिल्ली रहते 20 साल हो गए, पर यहां का वोटर कार्ड नहीं बनवा पाए। जबकि बिहार में किसी कारण से मतदाता सूची से उनका नाम कट गया है। इस तरह फिलहाल वो नागरिकताविहीन हैं। मंगूराम आगे कहते हैं खुदा न खास्ता गर कभी उड़ीसा में भी एनआरसी लागू हुआ तो असम के लाखों लोगों की तरह मैं भी घुसपैठिया करार दे दिया जाऊँगा।
दिल्ली में नींबू-पानी बेचते हैं बिहार के रामशरण यादव
बिहार के रामशरण यादव दिल्ली में नींबू-पानी बेचते हैं। वो सवाल उठाते हैं साहेब जब इस देश में राशन लेने से लेकर रिश्ते तलाशने तक हर चीज डिजिटल हो गया है, तो वोटिंग को डिजिटल प्लेटफार्म क्य़ों नहीं उपलब्ध कराया जा रहा है, ताकि हम जैसे सैकड़ों किलोमीटर दूर बैठे लोग भी अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकें।
सैनिक नहीं डाल पाते वोट
भारतीय सेना में फिलहाल 42 लाख से अधिक सैनिक हैं जो ड्यूटी के चलते अपने मताधिकार से वंचित रह जाते हैं। लांसनायक के पद से रिटायर हुए राजेश कुमार बताते हैं कि उन्होंने लगभग बीस साल भारतीय सेना को अपनी सेवाएं दी, इस दौरान देश प्रदेश में कई चुनाव हुए लेकिन ड्यूटी पर होने के चलते वो वोट नहीं दे पाए। राजेश कहते हैं कि हम सैनिक भी चाहते हैं कि हमारे प्रतिनिधियों के निर्वाचन में हमारा भी योगदान हो। अतः डिजिटल वोटिंग या प्रॉक्सी मतदान की सहूलियतें सैनिकों को अवश्य मिलनी चाहिए।
दिल्ली यूनिवर्सिटी में एमएससी कर रही सृजनी
लाखों छात्र नहीं डाल पाते वोट
अपने गांव शहर से दूर रहकर पढ़ाई और प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले लाखों विद्यार्थी वोट नहीं दे पाते। कोलकाता के एक छोटे सें गांव से दिल्ली यूनिवर्सिटी में एमएससी कर रही सृजनी बताती हैं- 10 मई से फाइनल परीक्षाएं शुरू हो गई हैं जबकि उनके लोकसभा क्षेत्र का चुनाव 19 मई को है। अतः वो वोट देने नहीं जा पाएंगी। अक्सर वोटिंग के समय कोई न कोई परीक्षा होती ही है या होने वाली होती है। ऐसे में वोट देने के लिए वापिस सैकड़ों मील का सफर तय करके अपने गृहनगर जाना व्यवाहारिक नहीं होता है। ऐसे में हमें डिजिटल वोटिंग की ओर कदम बढ़ाना चाहिए। चुनाव में ड्यूटी करनेवाले कर्मचारियों के लिए वोट देने की व्यवस्था हो सकती है तो दूसरे लोगों को क्यों नहीं।
लांसनायक के पद से रिटायर हुए राजेश कुमार
पिछले वर्ष प्रवक्ता के पद से रिटायर हुए विष्णु प्रकाश बताते हैं – “उन्होंने अपने जीवनकाल में लगभग दो दर्जन से अधिक चुनावों में पीठासीन अधिकारी के तौर पर ड्यूटी की है। वो कहते हैं चुनाव ड्युटी का फॉर्म भरते समय ही हमें एक मतदान फार्म भी भरना होता है। जिसमें अपने चुनाव क्षेत्र से लेकर मतदान बूथ की इसके बाद चुनाव वाले दिन बैलेट पेपर से मतदान करने की सहूलियत दी जाती है। खैर इस बार से तो सुन रहा हूँ कि ड्यूटी करने वाले कर्मचारियों के लिए भी ईवीएम का इस्तेमाल किया जा रहा है।”
क्या इस तरह का प्रयोग 40 प्रतिशत मतदाताओं के लिए करना व्यवहारिक होगा। इस सवाल के जवाब में विष्णु प्रकाश कहते हैं इसमें अव्यवाहरिक जैसी क्या बात है। आज के बाज़ारवादी समय में रुपए से ज्यादा महत्वपूर्ण और क्या है। जब हम अपने रुपए को ऑनलाइन ट्रांसफर कर सकते हैं तो वोट का क्यों नहीं। पहले कदम डिजिटल वोटिंग को सिर्फ अपने चुनाव क्षेत्र से दूर रह रहे नागरिकों के लिए प्रयुक्त किया जाए। वोटिंग की गोपनीयता के सवाल पर विष्णु प्रकाश कहते हैं जब इस व्यवस्था में अपने हाथ का अँगूठा और आँख के रेटिना मैच न करने पर मैं खुद सरकारी राशन दुकान से अपने हिस्से का अनाज नहीं ले सकता तो कोई दूसरा मेरे वोट कैसे दे सकता है।
रिटायर्ड शिक्षक विष्णु प्रकाश
कितनी व्यावहारिक है डिजिटल वोटिंग
बाल्टिक सागर के तट पर बसा एस्टोनिया वर्ष 2007 से ही डिजिटल वोटिंग करवाता आ रहा है। एस्टोनिया में इसी साल यानि 2019 के मार्च में हुए संसदीय चुनाव में 44 फीसदी आबादी ने ऑनलाइन वोटिंग सुविधा का इस्तेमाल किया था। ऑनलाइन वोटिंग के लिए मतदाता के पास राष्ट्रीय आईडी कार्ड और स्पेशल मोबाइल आईडी होना चाहिए। मतदाताओं को वोटिंग के लिए चुनाव आयोग की वेबसाइट से एप्लीकेशन डाउनलोड करना होता है। हर वोट एनक्रिप्टेड होता है ताकि किसी और को इसकी जानकारी न मिल सके। एक अनुमान के मुताबिक एस्टोनिया में डिजिटल वोटिंग के चलते 11,000 वर्किंग डेज की बचत हुई थी, जबकि डिजिटल वोटिंग का इस्तेमाल करने वाले 25 फीसदी मतदाता बुजुर्ग थे।
एनआरआई की तरह देश में एक राज्य से दूसरे राज्य जाकर काम करनवाले नागरिकों को क्यों नहीं है प्रॉक्सी मताधिकार की सहूलियत
2018-19 में भारत सरकार ने एक विधेयक के जरिए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 60 में संशोधन करके 1.1 करोड़ एनआरआई को प्रॉक्सी वोटिंग का अधिकार दिया गया है। इसके तहत अनिवासी भारतीय अपने मताधिकार के प्रयोग के लिए इलाके के किसी व्यक्ति को नॉमिनेट कर सकते हैं। सवाल उठता है कि जब देश से सात समंदर दूर बैठे लोगों के लिए प्रॉक्सी वोटिंग सुविधा दी जा सकती है तो देश में ही एक राज्य से दूसरे राज्य में जाकर काम करनेवाले मजदूरों, पढ़ाई कर रहे छात्रों और सीमा सुरक्षा में लगे सैनिकों के लिए प्रॉक्सी मताधिकार की सुविधा क्यों नहीं दी जा सकती है।