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मर्द पहले से ही सेक्स को लेकर हिंसक थे, इंटरनेट और मोबाइल ने उसे और बढ़ावा दिया है

जब संविधान की शपथ लेकर मुख्यमंत्री का पद प्राप्त करने वाला व्यक्ति महिलाओं की वेशभूषा को यौन हिंसा के लिए मुख्य कारण बताते हुए सार्वजनिक टिप्पणी करने से संकोच नहीं कर रहा, वहाँ अपराधी व प्रशासन आख़िर क्या सन्देश लेंगे। इसीलिए करनाल के डीजीपी ने भी बोला' रेप ईज नोट ए बिग डील'...
जगमति सांगवान
जहाँ एक तरफ़ पिछले दिनों हरियाणा लगातार अपनी बेटियों की खेल व अन्य क्षेत्रों में अभूतपूर्व उपलब्धियों को लेकर नाज करता रहा, वहीं इसी दौरान उनके साथ दहला देने वाली यौन हिंसा की घटनाओं ने हर संवेदनशील नागरिक को झकझोर दिया है। ख़ासतौर पर नए साल की 13-14 तारीख के 48 घण्टों में हुई चार बर्बर घटनाओं ने।
यद्यपि जाँच के आगे बढ़ते घटनाक्रमों में कई प्रकार के बदलाव भी सामने आ रहे हैं। कमोबेश समस्या के मुख्य स्रोतों की ही पुष्टि हो रही है। ये चेतावनी से काफ़ी ऊँची आवाज़ में प्रदेश के नागरिकों, परिवारों,सुसभ्य समाज, प्रशासन व सरकार को आह्वान करते हैं कि वो जागें और अपनी-अपनी भूमिका को सक्रियता से निभाएँ, वरना हालात हाथ से निकलते जा रहे हैं।
अब शिकार व शिकारियों का दायरा केवल दलित व ग़रीब घरों की लड़कियों तक नहीं है और शिकारी भी केवल मामूली पारिवारिक पृष्ठभूमि से नहीं सुशिक्षित आला अफ़सरों व राजनेताओं तक से सम्बन्धित भी हैं। आख़िर यह कौन सी मानसिकता है जो तमाम मानवीय मूल्यों व संवेदनाओं को तार तार कर रही है?
उदारीकरण की नीतियों के साथ आई तथाकथित खुलेपन की "लूटो खाओ हाथ ना आओ की" संस्कृति अपने पूरे यौवन पर है। हाल ही में 2015-16 में महिलाओं पर अपराध की राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की प्रकाशित रिपोर्ट के आँकड़े हरियाणा को सामूहिक बलात्कार के मामलों में नम्बर वन पर बता रहे हैं।
अगर केवल सामूहिक बलात्कार के अपराध पर ही विश्लेषण की नज़र से देखें तो पता लगता है कि हमारे समाज में एक तरफ़ भयानक अमानवीकरण की प्रक्रिया चल रही है, तो दूसरी तरफ़ कानून व्यवस्था का लेशमात्र भी डर अपराधियों के दिमाग़ पर नहीं है। वे गिरोहों में संगठित होकर सुनियोजित तरीके से शिकार पर निकलते हैं व ना केवल लूटपाट, बल्कि हत्या और उसके बाद भी बर्बरता की हद तक बच्चियों तक के शरीरों को नोच कर मनचाही जगहों पर फेंकते हैं।
पुलिस या कोई भी सामाजिक सामुदायिक हस्तक्षेप उनके आड़े नहीं आ रहा। अगर कहीं उन्हें रोक पाई तो लड़कियों की अपनी बहादुरी भले ही रोक पाई, जैसे गुरमीत राम रहीम केस, वर्णिका कुण्डू केस या रुचिका गिरहोत्रा केस। इसके लिए उन्होंने बहुत भारी क़ीमत भी अदा की परन्तु समझौताविहीन जोखिम भरा संघर्ष किया। आज हमारे पूरे समाज को ही उस तरह के संकल्पित संघर्ष की ज़रूरत है।
जहाँ अमानवीकरण का बड़ा सवाल है इसके अन्त:सूत्र एक तरफ़ अन्ध उपभोक्तावादी बाज़ारू संस्कृति से जुड़े हैं, तो दूसरी तरफ़ हमारे परिवारों व अन्य सामाजिक संस्थाओं द्वारा संवाद की संस्कृति विकसित करने की विफलता से भी जुड़े हैं। चाहे परिवार हो, समुदाय या शिक्षण संस्थाएँ किसी का भी बढ़ते बच्चों के साथ उनकी बुनियादी मानवीय मूल्य मान्यताएँ पल्लवित पोषित करने वाला आत्मीय रिश्ता नज़र नहीं आता।
आदमी औरत व सैक्स के रिश्ते तो अन्यथा भी हमारे यहाँ वर्जित क्षेत्र की तरह हैं। जिनमें आज तक हमारा सिविल लॉ भी पति को तो पत्नी से बलात्कार तक की इजाज़त देता है। मुख्यतया खेतीबाड़ी व्यवसाय से जुड़ी ग्रामीण आबादी की जीवनशैली में तो संवाद की जगह ही कम निकल पाती है। स्वयंभू व जातिवादी संस्थाएँ जो उनके प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं वो तो स्वयं हर मुद्दे को हिंसक तरीके से निपटने में विश्वास रखते हैं।
मनोरंजन के नाम पर लटके—झटकों की रागनियाँ महिला पुरूष सरेआम गाते रहें, वहाँ मर्द मण्डलियाँ दारू पीकर उन पर नोटों की बारिश करती रहती हैं। महिलाओं के प्रति सैक्स ओब्जैक्ट का मुख्य नज़रिया रखने वाली इस मानसिकता के ऊपर फ़ोन, मीडिया व इन्टरनेट के माध्यम से परोसी जा रही फूहड़ता ने स्थिति को विकराल बना दिया है। ज़्यादातर किशोर व युवा खेलकूद सब भूलकर इन्हीं से चिपके नज़र आते हैं। इनका विवेकशील प्रयोग करने की क्षमता पैदा करना किसी का सरोकार नहीं है।
खेती संकट, भयानक बेरोज़गारी और लिंगानुपात ख़राब होने से बड़ी संख्या में नौजवानों की शादियाँ भी नहीं हो पा रही। राजनेता चुनाव के दौरान रोज़गार और यहाँ तक की बिहार से शादी करवाने तक के दावे करते नजर आएं, परन्तु चुनाव जीतने के बाद उनसे सरेआम दगा होता है। तमाम तरह के मोहभंग के साथ अपराधीकरण का भयानक मंज़र बना हुआ है। इसमें बच्चियाँ व महिलाएँ सबसे निरीह हैं तो वे सबसे ज़्यादा शिकार हो रही हैं।
भले ही वर्तमान केन्द्र व राज्य सरकार "बहुत हुए महिलाओं पर अत्याचार,अब लाओ बीजेपी सरकार" ये नारा देकर सत्ता में आई हो, परन्तु सत्ता सम्भालने के बाद उन्होंने पहले से मैली गंगा को ओर गंदला ही किया है। महिला सुरक्षा व विकास पर लगने वाले ख़र्च को उन्होंने बजट दर बजट निर्ममता से कम किया है।
महिलाओं की सुरक्षा करने वाले क़ानूनों को ढीला किया है, उदाहरणतया वन स्टोप क्राइसिस सैन्टर संख्या आदि। नशाखोरी को बढ़ाकर महिलाओं के लिए वातावरण को असुरक्षित बनाने वाले शराब के ठेकों की संख्या निरन्तर बढ़ाई है। ठेकों व शराबखोरी को प्रोत्साहन देने वाली पूर्ववत सरकारों की नीतियों को पूरी निष्ठा से लागू किया जा रहा है।
सोशल मीडिया पर स्वयं सत्ता पक्ष के लोग महिला गरिमा के ख़िलाफ़ टिप्पणियाँ करते ही रहते हैं। जब संविधान की शपथ लेकर मुख्यमंत्री का पद प्राप्त करने वाला व्यक्ति महिलाओं की वेशभूषा को यौन हिंसा के लिए मुख्य कारण के रूप में बताते हुए सार्वजनिक टिप्पणी करने से संकोच नहीं कर रहे, वहाँ अपराधी व प्रशासन आख़िर क्या सन्देश लेंगे? शायद इसीलिए करनाल के डीजीपी ने भी बोला कि रेप ईज नोट ए बिग डील।
विकास बराला छेड़छाड़ केस में उसे बचाने के लिए इन लोगों द्वारा तमाम अवांछनीय हथकण्डे अपनाए गए। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा वर्तमान हालात में एक व्यंग्य की तरह नज़र आने लगा है कि ये काम कोई करके तो दिखाओ। पुलिस व प्रशासनिक तंत्र इस प्रकार के संकेतों के आधार पर ही अपना रूख बनाते हैं। वर्तमान के दो केसों में भी अगर पुलिस शिकायत पर तुरन्त कारवाई करती तो लड़कियों की कम से कम जान तो अवश्य ही बचाई जा सकती थी। परन्तु ऐसा प्राय देखने को नहीं मिलता। कुल मिलाकर ब्लेम दा विक्टिम थ्योरी (भुगतभोगी को ही ज़िम्मेवार ठहराना) का रुझान हावी है।
हालांकि हरियाणा में इन केसों समेत अनेकों मौक़ों पर आम लोगों ने सड़कों पर आकर प्रशासन को उचित कारवाई करने के लिए मजबूर किया है और प्रशासनिक जवाबदेही सुनिश्चित करवाने का काम तो प्राथमिकता पर करते ही रहना पड़ेगा। परन्तु अपने घरों, आसपड़ोस, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, पंचायत और कुल मिलाकर पूरे समाज में ऐसा वातावरण बनाना जहाँ महिलाओं को केवल सैक्स ओब्जैक्ट की तरह ना देखकर एक भरे पूरे इन्सान की तरह देखा जाए, यह चुनौती सामने है।
जिस प्रदेश की बेटियाँ लगातार उसकी शोहरत को चार चांद लगाने की पहल कर रही हों, उन पर होने वाली तमाम तरह की बदसलूकियों के प्रति ज़ीरो टोलरैंस (शून्य बर्दाश्तगी) होना ज़रूरी है। हमारे बच्चों को निगलने वाली पतनशील संस्कृति के ख़िलाफ़ निरन्तरता में सक्रिय रहने व समाज सुधार आन्दोलन चलाने की बड़ी सख्त ज़रूरत है। इसी सरोकार से दुनियावी पैमाने पर अनेकों तरह के प्रयोग भी अनेक स्तर पर चल रहे हैं।
सबसे भरोसेमंद रणनीति है स्वयं बेटियों को एक आत्मविश्वासी हुनरमन्द इन्सान बनाना, जो हर स्थिति का डटकर मुक़ाबला कर सके। जैसाकि वर्णिका कुण्डू ने किया। घर बाद में गई पहले आधी रात को अपराधियों के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करवाने थाने पहुँची। और अगर ध्यान हो तो उन्होंने अपने इस आत्मविश्वास का श्रेय स्वयं के खिलाड़ी होने को दिया था।
(जगमति सांगवान सामाजिक कार्यकर्ता और विमैन स्टडीज़ सैन्टर की पूर्व डायरेक्टर हैं।)