बड़े शातिर तरीके से मीडिया ‘नोटबंदी के विरोध’ को बेईमानों की छटपटाहट और पीड़ा बताकर पेश करता है कि विपक्ष के पास नोटबंदी के मुद्दे पर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर तमाशा देखने के सिवाय और कोई विकल्प ही नहीं बचा...
सुशील मानव की रिपोर्ट
देश सर्जिकल स्ट्राइक के खामख्याली से पूरी तरह उबर भी नहीं पाया था कि अचानक 8 नवम्बर 2016 की रात 8 बजे प्रि-रिकॉर्डेड वक्तव्य के साथ देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी जी देश के सभी समाचार चैनलों पर एकसाथ प्रकट होते हुए कहा था,-‘मेरे प्यारे देशवासियों, भाइयो और बहनो, अब हम ईमानदारी का उत्सव मनाएंगे। अतः आज रात 12 बजे के बाद से 1000 और 500 के नोट कागज़ के रद्दी टुकड़े होकर रह जाएगें।’
लोग-बाग़ पुरसुकू़न सो नहीं पाते और देश में रातोंरात राष्ट्रभक्ति के नये मायने, मापदंड गढ़ दिये जाते हैं! देश अगली सुबह सोकर उठा तो ‘कालेधन पर सर्जिकल स्ट्राइक’ जैसे नए ज़ुमले उनका इस्तक़बाल करते मिलते हैं! देश की आवाम लंबी-लंबी कतारों में लगकर अपनी राष्ट्रभक्ति एवं ईमानदारी का इम्तिहान देने को बाध्य होती है और प्रधानसेवक जी जापान में पिकनिक मना रहे होते हैं!
चुप्पी भरी कतारबद्धता राष्ट्रभक्ति की नई परिभाषा बना दी जाती है। मुख्यधारा मीडिया विमुद्रीकरण (Demonetisation) पर एक सुर में ‘मोदीगान’ गाने लगता है। बड़े ही शातिर तरीके से मीडिया ‘नोटबंदी के विरोध’ को बेईमानों की छटपटाहट और पीड़ा बताकर पेश करती है कि विपक्ष के पास नोटबंदी के मुद्दे पर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर तमाशा देखने के सिवाय और कोई विकल्प ही नहीं बचता।
लोकतंत्र में विपक्ष की आवाज़ को ‘बे-ईमान और राष्ट्रद्रोही की पीड़ा’ घोषित करके मौन करवाने का काम मीडिया ने आगे बढ़कर किया, संविधान की गरिमा की रत्ती भर भी परवाह किए बिना। कोई भी विपक्षी राजनीतिक दल स्वयं को बे-ईमान, भ्रष्ट, एवं कालाधन रखनेवाला कहलवाने वाली पहचान के साथ विरोध करने का साहस ही नहीं जुटा पाया।
यही कारण रहा कि विपक्ष नोटबंदी के मुद्दे पर लगातार बँटा रहा। और प्रधानमंत्री जी रेडियो पर मन की बात करते हुए कहते हैं, ‘नोटबंदी राष्ट्र यज्ञ’ है। देशहित में आप सबको कुछ कष्ट तो झेलना ही होगा।
लाइन में लगकर गई लोगों की जान
नोटबंदी के दरम्यान लंबी लंबी लाइनों में लगे रहने के चलते 100 से ज्यादा लोगों की जान गई। नये नोटों के अभाव में सही वक़्त पर चिकित्सा सेवा नहीं मिल पाने से देशभर में कितने लोग काल-कवलित हुए इसका कोई आधिकारिक या अनाधिकारिक डेटा उपलब्ध ही नहीं है। कितनी फैंक्ट्रियाँ, और लघु कटीर उद्योग चौपट हो गये। कितने लोग बेरोजगार हुए, कितने दिहाड़ीदार दो वक्त की रोटी छिन जाने से भुखमरी के शिकार हुए कुछ नहीं पता।
नोटबंदी देश के आवाम पर थोपा गया ‘आर्थिक आपातकाल’ था, जिसके बाद औद्योगिक विकास में गिरावट, रोजगार निर्माण में कमी, बैंकों द्वारा दी जाने वाले कर्जों में कमी आई है। बैंको द्वारा दिए जाने वाले कर्ज की वृद्धि दर पिछले 60 साल में न्यूनतम स्तर पर है।
नोटबंदी के जरिये पूंजी के संकट का हल
तमाम अर्थशास्त्रियों का मत है कि समूचे कालेधन का मात्र 6% ही नगदी की शक्ल में होता है, बाकी 94 प्रतिशत कालाधन तो दूसरी शक्ल-ओ-सूरत में होते हैं जैसे कि सोना, जमीन, कंपनियों के शेयर आदि। तो प्रश्न ये है क्या कालेधन के नाम पर मोदी सरकार की ये सारी मग़जमारी मात्र इस 6 प्रतिशत के लिए थी? और वो भी तब जब नोटबंदी के पहले वीआईडीएस (स्वैच्छिक आय घोषणा स्कीम) लागू की गई थी। इसके बाद तो ये 6% से भी घटकर कम हो गया होगा। तो क्या तलवार से मक्खी मारने की ये सारी क़वायद केवल कालेधन के लिए थी?
यदि मोदी शासन के कुछ तथ्यों को सिलेसिलेवार क्रम में जोड़कर समझें तो चीजें ज्यादा स्पष्ट होकर हमारे सामने आती हैं। सरकारी बैंको की पूंजी के एक बड़े हिस्से का नॉन परफार्मिंग एसेट्स (NPA) के रूप में होना तथा सरकार की सबसे बड़ी चिंता का सबब बनना, फिर जन धन योजना के तहत मुफ़्त खाते खुलवाना, फिर VIDS (कालेधन को स्वघोषित करके टैक्स भरना) योजना और आख़िर में नोटबंदी।
तो क्या बाज़ार में पूंजी का संकट था? यदि जन-धन योजना सफल हो जाती क्या तब भी नोटबंदी का तमाशा होता? नहीं तब शायद कालेधन के नाम पर इतना बड़ा तमाशा नहीं होता।
दरअसल जन धन योजना का जाल बैंक और बाजार के पूंजी के संकट को हल करने के लिए ही बिछाया गया था। इससे पहले मोदी सरकार सरकारी बैंको के एकीकरण और निजीकरण पर भी विचार कर चुकी थी। सरकारी क्षेत्र के बैंकों के कुल 13 लाख करोड़ रुपये की पूँजी ‘नहीं वसूले जा सकने वाली’ स्थिति में थी जो कि न्यूजीलैंड, केन्या, ओमान जैसे देशों की जीडीपी से भी ज्यादा थी। जबकि इसका 39 प्रतिशत अर्थात् 5.8 लाख करोड़ रुपये की पूंजी ग़ैर निष्पादित संपत्ति अर्थात नॉन परफार्मिंग एसेट्स (NPA) के रूप में थी, जिससे बैंकों की पूँजी आधार बहुत ही तेजी से संकटग्रस्त हो रही थी।
सकल नॉन परफार्मिंग एसेट्स (NPA) सरकारी बैंकों के बाजार मूल्य की अपेक्षा डेढ़ गुना ज्यादा खराब स्थिति में थी। मोटे तौर पर इसे यूँ समझिये कि सरकारी बैंकों के शेयर में निवेश करने वाले निवेशकों के हर 100 रुपये पर 150 रुपये का नॉन परफार्मिंग एसेट्स (NPA) का भार था। सरकार नें इस स्थिति से निपटने के लिए मुद्रा बैंक, स्टार्ट अप इंडिया, सोने के बदले लोन जैसी योजनाएं कम खर्च के क्रेडिट वितरण के लिए ले आई, जबकि जन धन योजना, इंश्युरेंस प्लान,सब्सिडी लाभांश सीधे खाते में डालने जैसे कदमों को बैंकिंग नेटवर्क से जोड़कर उठाया ताकि बैंको का खर्च निकल सके।
इन कदमों के नाकाफ़ी होने पर वर्ष 2016 के शुरुआत में सभी सरकारी बैंकों को एकीकृत करने तथा निजीकरण जैसे मुद्दे पर सरकार की ओर से सोच-विचार किया गया, पर विरोध के भय से सरकार को कदम पीछे खींचना पड़ा।
जन धन योजना के तहत मुफ्त खोले गये खातों के पीछे का मकसद ही यही था कि आधी आबादी (स्त्रियों) एवं गांव की पुरुष आबादी के पास पड़ा नगदी इनके जरिये बैंकों के पास चला आयेगा और वहां से बाजार में। पर सब कुछ सरकार की सोच के मुताबिक नहीं हुआ।
नोटबंदी पर आरबीआई का फाइनल आंकड़ा
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने अगस्त 2018 में नोटबंदी पर अपने फाइनल आंकड़े में बताया कि 99.3 फीसदी नोट आरबीआई के पास वापस आए। 500 और 1000 की नोट के रूप में कुल 15 लाख 44 हजार करोड़ रुपये की मुद्रा बाजार में थी। उसमें से 15 लाख 31 हजार करोड़ रुपये की मुद्रा नोटबंदी के बाद रिजर्व बैंक पास वापिस आ गए और सिर्फ 13 हजार करोड़ रुपए ही सिस्टम से बाहर हुआ है।
जबकि सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के मुताबिक पुराने नोटों को वापस लेने का ट्रांजैक्शन कास्ट 1.28 लाख करोड़ रुपये होगा, जबकि इस दर्म्यान नोट बदलवाने के लिए लाइन में खड़े लोगों को करीब 15 हजार करोड़ का नुकसान होगा। नए नोटों की छपाई और करेंसी पेपर खरीदने में जो खर्च हुआ सो अलग।
नोटबंदी पर संसदीय समिति की रिपोर्ट
वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाली वित्त पर संसद की स्थायी समिति ने मसौदा रिपोर्ट में बताया है कि नोटबंदी के बाद नगदी में कमी के कारण सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में एक प्रतिशत की कमी आई है और असंगठित क्षेत्रों में बेरोजगारी बढ़ी है। बता दें कि करीब दो साल तक नोटबंदी की समीक्षा करने के समिति ने ये रिपोर्ट तैयार की है। समिति में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह भी शामिल हैं।
नोटबंदी पर सरकार के दावे और हकीक़त
कालाधन, नकली करेंसी और आतंकवाद नक्सलवाद की फंडिंग, मोदी सरकार ने यही तीन प्रमुख कारण गिनाए थे नोटबंदी के वक्त। कालेधन नगदी में होने की स्थिति में पूरी मुद्रा वापस बैंक तक वापस नहीं आनी चाहिए थी। पर भारतीय रिजर्व बैंक के आँकड़ों के मुताबिक ऐसा नहीं है।
तो फिर कहां गया वो कालाधन? नोटबंदी के वक्त नकली करेंसी को बाजार और अर्थव्यवस्था से बाहर करने की बात भी जोर-शोर से करती रही थी मोदी सरकार। लेकिन बाज़ार में आने के पन्द्रह दिन के भीतर ही दो हजार रुपये के नोट की जाली करेंसी भी बाजार में आ गई।
तीसरा दावा आतंकवाद, नक्सलवाद की फंडिंग खत्म करने की थी लेकिन काश्मीर में भाजपा पीडीपी गठबंधन तोड़ने के वक्त खुद सरकार ने कहा कि काश्मीर में आतंकवाद बढ़ गए हैं। वहीं प्रधानमंत्री मोदी बार बार नक्सलियों से अपनी जान का खतरा बताकर, नोटबंदी से नक्सलियों की कमर तोड़ने के अपने दावों की पोल खोल रहे हैं।
नोटबंदी के बाद बीजेपी ने हथियाई 10 राज्यों की सत्ता
2014 के लोकसभा चुनावों के बाद जनवरी 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव हुए और भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया। जबकि अक्टूबर 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव हुए और एंटी-इनकंबेंसी, मोदी इफेक्ट और पेड मीडिया के तमाम चुनावी सर्वेक्षणों में भाजपा के पक्ष में जनमत बनाने के बावजूद भाजपा बिहार विधानसभा चुनाव में चारों खाने चित्त हो गई।
लेकिन फिर नोटबंदी के बाद हुए भाजपा उन राज्यों जहां वो तीसरे चौथे नंबर की पार्टी होती है वहाँ के भी विधानसभा चुनावों में भाजपा एकतरफा और अप्रत्याशित जीत हासिल करने में कामयाब होती है! केंद्र सरकार द्वारा आधिकारिक रूप से 30 दिसंबर 2016 तक नोटबंदी घोषित होती है जबकि फरवरी-मार्च 2017 में उत्तरप्रदेश समेत पांच राज्यों में चुनाव होते हैं। और पंजाब को छोड़कर सभी चारों राज्यों में बीजेपी सत्ता पर काबिज होती है।
जबर्दस्त एंटी-इनकंबेंसी के बावजूद गुजरात की सत्ता बीजेपी के हाथों से नहीं निकलने पाती। हिमाचल प्रदेश बीजेपी फतह करती है। वहीं मार्च 2018 में हुए चुनावों के बाद भाजपा त्रिपुरा और मणिपुर में पहली बार सत्ता हासिल करने में कामयाब होती है। नोटबंदी के बाद बीजेपी ने 10 राज्यों में सत्ता हथियाई है।
नोटबंदी और डिजिटल इंडिया बड़े कार्पोरेट के लिए मुफीद
नोटबंदी पर अस्पष्टता की स्थिति लगातार बनी रही इस बीच सरकार लगातार अपने गोलपोस्ट भी बदलती रही। विमुद्रीकरण के एक महीने बाद मोदी सरकार ने अपना गोल पोस्ट कालेधन से बदलते हुए कैशलेस अर्थात डिजिटल भुगतान कर लिया। लोग सर पकड़ लिए ये क्या बला है भाई। डिजिटल पेमेंट का कांसेप्ट ‘पूंजी को बाज़ार में रोके रखने के लिए’ है। नगदी विहीन (कैशलेस) अर्थव्यवस्था में भुगतान और लेन-देन के सारे विकल्प डिजिटल होते हैं, जिसके लिए आपके पैसों का खाते में पड़े रहना ज़रूरी है।
यानी ट्रांजैक्शन (हस्तांतरण) एक खाते से दूसरे खाते में होता है और पूंजी हर स्थिति में बैंकों के मार्फत बाजार में ही पड़ी रहती है। कैशलेस अर्थव्यवस्था के अपने संकट हैं। 2008 के आर्थिक मंदी में जब यूरोप के कई देश तबाह हो गए भारत सिर्फ अपनी पारंपरिक अर्थव्यवस्था के चलते ही उस आर्थिक सुनामी से बचा रह सका।
हमारे देश की अर्थव्यवस्था अनौपचारिक अर्थव्यवस्था है जोकि देश की जीडीपी का 45 प्रतिशत है। जबकि अनौपचारिक कामगार कुल श्रमशक्ति का 94 फीसदी है। व्यापार और उत्पादन की छोटी इकाइयों में दो तिहाई काम नगदी में होता है। पहले तो 50 दिन की नोटबंदी फिर डिजिटल भुगतान का जिन्न। कुल मिलाकर मोदी सरकार का छोटे- मझोले व्यापार ओर उत्पादन इकाइयों को नेस्तोनाबूत करने का फुलप्रूफ इंतेजाम था।
उदारीकरण के बाद के उभरे नये मध्यवर्ग ने कैशलेस इकोनॉमी को भ्रष्टाचार, कालाधन निवारक अचूक अस्त्र बताकर नोटबंदी को सपोर्ट किया तो वहीं जमीन से कटे आर्थिक विकास के युवा पैरोकारों ने इसे स्वीडन, डेनमार्क सरीखे विकसित देशों की कतार में खड़ा करने वाली डिजिटल क्रान्ति तक घोषित कर डाला। लेकिन यदि सिर्फ कैशलेस पेमेन्ट यानि डिजिटल भुगतान से भ्रष्टाचार खत्म हो जाता तो अमेरिका जैसे देश में भ्रष्टाचार और टैक्स चोरी नहीं होती।
नगदी के अलावा भी भ्रष्टाचार के अन्य विकल्प हैं जैसे कि उपहार, सामान, सोने के टुकड़े, कंपनियों के शेयर, जमीन, मकान आदि कम दामों पर खरीद लेना आदि।
अगला प्रश्न ये है कि इस डिजिटल अर्थव्यवस्था से फायदा किसे हो रहा है। हमारी अर्थव्यवस्था में इसके इंप्लीकेशन क्या हैं? जीडीपी बढ़ती है पर देश में रोजगार नहीं बढ़ता है, देश में टैक्स नहीं आ रहा है! देश में लाभ नहीं आ रहा है! नोटबंदी के पहले एक महीने में पेटीएम जैसे ई वॉलेट की ग्रोथ 700% बढ़ जाता है। इससे स्पष्ट है कि परंपरागत अर्थव्यवस्था जब ध्वस्त होती है तो फायदा उन अर्थव्यवस्थाओं को होता है जिनकी जड़ अमेरिका और यूरोप में है।
डिजिटल भुगतान के लिए आगे आने वाली इलेक्ट्रॉनिक वॉलेट जैसे कि payTM वगैरह हर बार भुगतान ट्रांजैक्सन के लिए 2.5% से 5% तक सर्विस के नाम पर हिडेन चार्ज वसूल करती हैं, जबकि नगद भुगतान करने पर ये ग्राहक की बचत होती है। अर्थात् ये हमारी आय का पुनर्वितरण हुआ।
डिजिटल भुगतान के जरिये गरीबों की आय को एक खास वर्ग के पक्ष में पुनर्वितरित (redistribute) करने को सरकार बाध्य कर रही है।