भारत में 1 प्रतिशत महिलाओं को भी नहीं मिलती 10 हजार से अधिक सैलरी
अगर मध्य वर्ग के सर्वोच्च, शिक्षित, सामाजिक पहुंच-रसूख रखने वाले हिस्से की हालत यह है तो कारखानों—खेतों में काम करने वाली मजदूर महिलाओं पर अत्याचार की स्थिति की सोचिए, खासकर वंचित समुदायों से आने वाली स्त्रियों के बारे में
मुकेश असीम का विश्लेषण
भारत में 1% से भी कम महिलाएं 10 हजार रुपए महीना से अधिक वाली नौकरी में हैं, पुरुष शायद 6-7% होंगे। 50 हजार महीना वाले रोजगार तो कुल आबादी के 1% के भी पास नहीं। यह इस संदर्भ वास्ते कि पत्रकार, मनोरंजन, होटल, बैंक-वित्त, आईटी, एकेडेमिक्स, डॉक्टर, आदि पेशों-उद्योगों में काम करने वाले मध्य वर्ग के भी सर्वोच्च हिस्से में शामिल हैं, अधिकतर खुद को मजदूर कहलाने में अपमान महसूस करते, श्रमिक यूनियनों के प्रति हिकारत रखते हैं, नवउदारवादी-निजीकरण की आर्थिक नीतियों के बड़े हिमायती रहे हैं। इनमें काम करने वाली महिलाओं को ही समाज की सबसे सशक्त व स्वतंत्र महिलाएं माना जाता है।
पर ‘मी टू’ बतला रहा है कि अपने से कुछ ताकतवर के सामने इनमें से बहुतों की स्थिति भी कितनी दर्दभरी विवशता, बेचारगी, दयनीयता की है। नौकरी चले जाने, आगे फिर काम न मिलने का भय और पितृसत्तात्मक समाज में परिवारों तक का भी साथ न मिलना (परिवार में बताया तो, 'नौकरी छोड़ो, क्यों करती हो, पहले ही मना किया था न?') वह मुख्य वजहें बताईं गईं हैं जिनकी वजह से आज भी गिनी-चुनी महिलाएं ही खुद के और आरोपी के नाम के साथ अपनी बात कहने की हिम्मत जुटा पा रही हैं।
पर हालत उससे कहीं बुरी है, जितनी सामने आ रही है। इसलिए जो कोई भी सामने आने की हिम्मत करे, कितने वक्त बाद भी करे, उस पर तंज़ करने के बजाय उसकी हिम्मत को दाद देना तो बनता ही है। हमारे घोर ढोंगी-पाखंडी समाज के चेहरे पर से ये झूठी शराफत का नकाब जितना जल्दी उतरे, इसकी बदबू भरी गंदगी जितनी जल्दी सामने आए, उसकी वजहों पर जितनी बहस हो उतना ही बेहतर। इसलिए ‘मी टू’ का स्वागत होना चाहिए।
सभी रोजगारों, उद्योगों-पेशों में, सरकारी नौकरियों, पुलिस-फौज, आईएएस-आईपीएस से जजों तक, निजी स्कूलों-कॉलिजों, बैंकों से आईटी तक, सफाई-हाउसकीपिंग से गार्ड-वाच स्टाफ तक, पर खास तौर पर यूनियन, रोजगार सुरक्षा विहीन रोजगारों में यूं तो सभी कर्मियों का भयंकर आर्थिक-दैहिक शोषण होता है पर स्त्रियों का तो और भी ज्यादा – कम मजदूरी, यौनिक दोहन, गर्भावस्था के अंतिम दिनों तक काम करते रहने की मजबूरी, नहीं तो रोजगार से छुट्टी, आदि।
पर अगर मध्य वर्ग के सर्वोच्च, शिक्षित, सामाजिक पहुंच-रसूख रखने वाले हिस्से की हालत यह है तो कारखानों, घरों, खानों, सड़कों, निर्माण, खेतों, आदि में काम करने वाली मजदूरों पर होने वाले मानसिक-शारीरिक-यौनिक अत्याचार की स्थिति की तो कल्पना ही करके देखिये, खास कर वंचित समुदायों से आने वाली स्त्रियों की।
पर जिन्हें भी मेहनतकश तबकों के बीच रहने, काम करने का थोड़ा भी तजुर्बा है, वे जानते हैं कि कार्यस्थल हो या परिवार, दैहिक शोषण पर मेहनतकश स्त्रियों का प्रतिकार-प्रतिवाद जितना भी हो, पर तुरंत, स्पष्ट और जुझारू होता है, उनके पास तुरंत खोने के लिए उतना कुछ नहीं इसलिए सक्षम होने तक इंतजार की वजह भी नहीं।
इसलिए ‘मी टू’ की इन विद्रोही स्त्रियों के साहस की तारीफ़ करते हुए भी इस असलियत को भूलना भी मुमकिन नहीं कि अभिजात वर्ग के विद्रोही अपनी व्यक्तिगत वीरता के बावजूद भी इन मसलों को कुछ वक्त के लिए चर्चा-बहस में ला देने के सिवा समाज को बदलने लायक सशक्त सामाजिक आंदोलन खड़ा करने की कूव्वत नहीं रखते। हालांकि सोशल मीडिया की वजह से हाल का ‘मी टू’ अधिक जाना गया है पर यह विद्रोह का ऐसा पहला स्वर नहीं, कुछ साहसी स्त्रियों पहले भी विद्रोह करती रहीं और कुछ वक्त की चर्चा के बाद गुमनामी में धकेल दी जाती रहीं हैं।
रूपन देवल बजाज गुमनाम हो गईं और यौन अपराधी केपीएस गिल अंतिम वक्त तक हीरो बना रहा! अभिजात व मध्यवर्ग के पास खोने के लिए इतना कुछ होता है कि कभी-कभी कुछ साहसी विद्रोहियों के आवाज उठाने के बावजूद भी अधिकांश समझौते और चुप्पी की राह ही बेहतर समझते हैं।
वैसे भी पुराने दिनों से ही अभिजात वर्ग की स्वतंत्रता-समानता की चाहत रखने वाली विदुषी स्त्रियों के लिए विद्रोह का नतीजा भारत में मीरा-रज़िया बन जाना या मध्यकाल के यूरोप में नन बन कर किसी कोनवेंट के अंधेरे कोने में धकेल दिया जाना ही रहा है।
असल में अपनी देह की श्रम शक्ति बेचने की बहुसंख्या और खरीदने वाली अल्पसंख्या वाले एक घोर असमानता-शोषण आधारित समाज के हर पहलू में ऐसे शोषण-दोहन वाली सड़न के बहुत से रूपों की भरमार है। पुरुष के समक्ष स्त्री, मालिक के सामने मजदूर, पुरुष मजदूर के मुक़ाबिल मजदूर स्त्री, सवर्ण जातियों में जन्म लेने वालों के मुक़ाबले दलित-आदिवासी, दलित पुरुष के मुक़ाबिल दलित स्त्री, बहुसंख्यक हिंदुओं के सामने अल्पसंख्यक मुस्लिम (किसी जगह मुस्लिम बहुसंख्यक हो तो दूसरे की यही हालत है), मुस्लिम मर्दों के सामने मुस्लिम स्त्री, उत्तर भारत वालों के मुक़ाबले कश्मीरी या उत्तर-पूर्व के लोग, गुजरात-महाराष्ट्र में उप्र-बिहार वाले, हिंदी भाषी के सामने अन्य भाषा-भाषी, वगैरह हर रूप में यह असमानता हमारे समाज के पोर-पोर में भरी पड़ी है।
इसी असमानता वाले समाज में जो कोई भी जहां कहीं भी खरीदने की ताकत में है वह बिकने वाले का शोषण करने की स्थिति में आ जाता है। अत्यल्प संख्या में ही सही पर अभिजात वर्ग की कुछ सक्षम स्त्रियां भी यहां पुरुष कैबरे (male stripper) और वेश्या (gigolo) का इस्तेमाल करती ही हैं।
शोषण, असमानता के इस हर रूप के खिलाफ तो संघर्ष चाहिए ही पर ये सब संघर्ष खुद को बेचने की इस मजबूरी वाली पूंजीवादी समाज-व्यवस्था के खिलाफ आम संघर्ष में एकजुट न हों तो इसी व्यवस्था में कुछ एनजीओ वादी सुधार से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होने वाला। खुद पूंजीवादी जनतंत्र और समानता की सबसे बड़े मिसाल माने जाने वाले अमेरिका-यूरोप में ‘मी टू’ या ‘black lives matter’ के आंदोलन यही गवाही दे रहे हैं कि मूलतः असमान समाज में एक खास किस्म की असमानता का उन्मूलन नामुमकिन है।
ये सिर्फ मजदूर वर्ग की स्त्रियां हैं जिनके पास खोने को कुछ नहीं और पाने को हर किस्म के शोषण से मुक्ति और हर व्यक्ति की समानता पर आधारित समाज है जो सचेत-संगठित होकर समाज को बदलने लायक वह सशक्त आंदोलन खड़ा कर सकती हैं जैसा इन्होंने फ्रेंच और रूसी क्रांतियों में किया था जिन्होंने दुनिया भर में हलचल और बदलाव की लहर पैदा की और जिनकी वजह से ही आज हम बहुत सारे जनवादी अधिकारों को हासिल कर पाये हैं।
खुद भारत में भी बंगलौर की असंगठित महिला मजदूर भी घोर प्रतिक्रियावादी मोदी सरकार को एक दिन में ही घुटने टिकवाने का कारनामा कर दिखा चुकी हैं। इनका सचेत-संगठित होना ही उम्मीद दिखाएगा।
(मुकेश असीम आर्थिक मसलों के जानकार हैं और इन सवालों को लोकप्रिय तरीके से लिखते हैं।)