पंजाबी फ़िल्म इंडस्ट्री को एक नई पहचान देगी 'सन ऑफ मंजीत सिंह'
समाज में कम नम्बर लाने वाला बच्चे को अब नालायक समझा जाता है, फिर चाहे उसमें अच्छा खिलाड़ी या अच्छा लेखक बनने की प्रतिभा ही क्यों न हो। अच्छे नम्बर लाने की होड़ और अभिवावकों की इच्छाओं का बोझ झेलते बच्चों को अपनी रुचि और प्रतिभा को संवारने तक की मोहलत नहीं मिलती
हेम पंत
लगता है कि अच्छी फिल्मों का दौर फिर से लौट आया है। बॉलीवुड में तो अच्छी-अर्थपूर्ण फिल्में बन ही रही हैं। क्षेत्रीय सिनेमा, खासतौर से मराठी, भोजपुरी और दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी पिछले दिनों कुछ सार्थक फिल्में सामने आई हैं।
पंजाबी सिनेमा की एक आम पहचान कॉमेडी फिल्मों के कारण ही है, लेकिन इसी हफ्ते 12 अक्टूबर को सिनेमाघरों में रिलीज हुई फ़िल्म 'सन ऑफ मंजीत सिंह' निश्चित तौर पर पंजाबी फ़िल्म इंडस्ट्री को एक नई पहचान देगी। निर्देशक के रूप में विक्रम ग्रोवर और निर्माता के रूप में कॉमेडियन कपिल शर्मा की यह पहली फ़िल्म है।
फ़िल्म की शुरुआत में ही बताया गया है कि यह महेश मांजरेकर द्वारा निर्देशित मराठी फिल्म 'शिक्षणाच्या आईचा घो' (2010) से प्रेरित है। निम्न मध्यवर्गीय परिवार में अभिवावकों के सपनों को पूरे करने के लिए मानसिक दवाब झेल रहे बच्चों की वास्तविक स्थिति को एक अच्छी स्क्रिप्ट, सशक्त अभिनय और कसे हुए संवादों में पिरोकर एक मनोरंजक फ़िल्म बनाई गई है। यह फ़िल्म एक सार्थक संदेश तो देती ही है, कुछ विचारोत्तेजक सवाल भी छोड़ जाती है।
मंजीत, मोहाली में रहने वाला एक खानसामा है, जो पत्नी की मृत्यु के बाद अपने किशोरवय लड़की सिमरन और लड़के जयवीर को अच्छे स्कूल में पढ़ा रहा है। मंजीत की बेटी सिमरन पढ़ाई में अव्वल है, बेटा जयवीर पढ़ाई में फिसड्डी लेकिन क्रिकेट खेलने में अव्वल है। मंजीत की जिंदगी एक सामान्य निम्न मध्यवर्गीय भारतीय की तरह ही है, धक्के से स्टार्ट होने वाला स्कूटर, अनियमित आय, सूदखोर से कर्जा लेकर बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाने का संघर्ष।
'खेलकर कुछ नहीं मिलेगा पढ़ाई में ध्यान दो' वाली मानसिकता के साथ बच्चों के ऊपर अपनी उम्मीदें लादता हुआ मंजीत हर कठिन परिस्थिति को मुस्कुराते हुए झेलता चला जा रहा है, पर एक दिन जयवीर की जिद के आगे मंजीत अपना आपा खो देता है। इन्टरवल से पहले कहानी में एक बड़ा मोड़ आता है। मंजीत अपने संघर्षों को समाज की लड़ाई में बदलता है और जीतकर भी दिखाता है।
फ़िल्म में वर्तमान प्राइवेट शिक्षा व्यवस्था और ट्यूशन की समस्या को भी बहुत गम्भीर सवालों के घेरे में लिया गया है। हमारे समाज में कम नम्बर लाने वाला बच्चे को अब नालायक समझा जाता है, फिर चाहे उसमें अच्छा खिलाड़ी या अच्छा लेखक बनने की प्रतिभा ही क्यों न हो। अच्छे नम्बर लाने की होड़ और अभिवावकों की इच्छाओं का बोझ झेलते बच्चों को अपनी रुचि और प्रतिभा को संवारने तक की मोहलत नहीं मिलती।
यही अंतर्द्वंद्व फ़िल्म के कई दृश्यों में बहुत खूबसूरती से दर्शाए गए हैं। खेल बनाम पढ़ाई की रस्साकशी हर पीढ़ी के बच्चों और अभिवावकों बीच होती है, इस फ़िल्म का एक विषय ये भी है। मंजीत के रूप में गुरप्रीत घुग्गी का अभिनय कई रंग लिए हुए है, भावुकता भरे दृश्यों में उनका अभिनय कई बार मन को भिगो जाता है। गुरप्रीत घुग्गी को हमने अक्सर कॉमेडी के मंचों पर ही देखा है, इसलिए नए रूप में उनका सशक्त अभिनय बहुत प्रभावित करता है।
जयवीर के रोल में नए अभिनेता दमनप्रीत सिंह की मेहनत साफ दिखाई देती है, उन्होंने भी अपने चरित्र के साथ पूरा न्याय किया है। पिता और बेटे के बीच के भावनात्मक रिश्ते के विभिन्न भावों को सामने रखने में गुरप्रीत घुग्गी और दमनप्रीत पूरी तरह सफल हुए हैं। डांसर के रोल में जपजी खैरा और सूदखोर के रोल में प्रसिद्ध अभिनेता बी. एन. शर्मा ने भी अपनी छाप छोड़ी है।
सिनेमाहॉल जाने से पहले मुझे इस फ़िल्म के बारे में कुछ भी पता नहीं था। कपिल शर्मा और गुरप्रीत घुग्गी का नाम देखकर फ़िल्म से बहुत ज्यादा उम्मीद भी नहीं थी, लेकिन कोई और विकल्प समझ में न आने पर जिंदगी में पहली बार पंजाबी फिल्म देखने का फैसला लिया और फ़िल्म को देखकर आँखें नम हुईं। किसी फिल्म को देखते हुए इतना भावुक पहली बार हुआ।
यदि आप स्कूल जाने वाले बच्चों के अभिवावक हैं या फिर शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े हैं तो जहां भी मौका मिले ये फ़िल्म जरूर देखें, यक़ीन कीजिए आप निराश नहीं होंगे।