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पतंजलि के उत्पादों की जहां कई जगह ‘नो एंट्री’ हो गई है, वहीं रामदेव को उत्तराखण्ड में जड़ी—बूटियों का ठेका मिलने को कहां तक जायज ठहराया जा सकता है...
देहरादून से मनु मनस्वी की रिपोर्ट
देहरादून। हरीश रावत के कुशासन को हथियार बनाकर बंपर सीटें जीतकर सत्ता में आई भाजपा के पांव पालने में ही दिखने लग गए थे। जब त्रिवेन्द्र रावत ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होते ही भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए हुंकार भरी थी, उसी समय लग गया था कि ये हुंकार कुछ दिनों बाद ही फुसफुसाहट बनकर रह जाने वाली है और हुआ भी यही।
त्रिवेंद्र सरकार ने नया फरमान जारी किया है, जिसके अनुसार राज्य में जड़ी—बूटी से जुड़े सभी कार्यों मसलन जड़ी बूटियों का न्यूनतम क्रय मूल्य तय करने से लेकर इसका पूरा ठेका बिजनेस गुरु रामदेव को मिल गया है।
पूरे देश में यही नियम है कि सरकार ही फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है। ऐसा संभवतः पहली बार हुआ है, जब किसी सरकार ने खरीद मूल्य तय करने का अधिकार किसी निजी व्यावसायिक कंपनी को सौंपा हो। यही नहीं, हद तो यह है कि इस मामले में सरकार रामदेव एण्ड कंपनी के आगे मिमियाएगी।
सरकार खुद कुछ करने की बजाय पतंजलि को जड़ी—बूटियों की सूची देगी, उसके बाद पतंजलि अपने मनमाफिक तरीके से मूल्य तय करेगा। गौरतलब है कि राज्य में अब तक जड़ी बूटी का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय नहीं किया जाता था।
इस बारे में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत का कहना कि ‘जड़ी-बूटियों के विपणन के लिए सिंगल विंडो सिस्टम की बेहद जरूरत है।’ यदि सिंगल विंडो सिस्टम की वाकई जरूरत है तो कम से कम उसका नियंत्रण तो सरकार के पास होना चाहिए, या उसे भी एक प्राइवेट कंपनी को सौंप देंगे, ताकि मुनाफा बांटते वक्त ये बाबा टाटा-बायबाय कहकर चला जाए। त्रिवेन्द्र सरकार ने रामदेव के साथ हुई एक बैठक में संबंधित अधिकारियों को इससे संबंधित एमओयू जल्द से जल्द तैयार करने के निर्देश दे दिए हैं।
इसके अलावा सरकार बंद पड़े टूरिस्ट सेंटरों में से भी कुछ सेंटर पतंजलि को देने वाली है। गौवंश के नाम पर तो रामदेव का साम्राज्य पहले ही चल रहा है।
चंपावत के एक नारियाल गांव में सरकार की बद्री गाय संवर्द्धन योजना का ठेका भी पतंजलि को मिल गया है। यह सरकारी फार्म 21 हेक्टेयर क्षेत्रफल में निर्मित है, जहां 193 गायें हैं। राज्य के पशुपालन विभाग द्वारा तीन महीनों के लिए पतंजलि से 1073 मीट्रिक टन चारे की मांग की गई है, जिसके बदले पशुपालन विभाग द्वारा पतंजलि को 12000 लीटर दूध की आपूर्ति की जाएगी।
राज्य में कई काबिल पर्यावरणविद, बुद्धिजीवी हैं, जो इस विषय में सरकार को महत्वपूर्ण सुझाव दे सकते हैं, जो प्रदेश की दिशा दशा तय करने में मील का पत्थर साबित हो सकते हैं, परंतु शायद उनसे सरकार को किसी ‘फायदे’ की संभावना न दिखाई देती हो, इसलिए बिजनेस गुरु रामदेव सबसे उपयुक्त नाम जान पड़ता हो।
वर्ना जिस पलायन को अब तक लाख मगजमारी के बावजूद सरकारें कम न कर सकी हो और जहां एमबीबीएस की शिक्षा के दौरान भविष्य के डाक्टरों को पहाड़ में रोके रखने के लिए लाखों का बांड भरवाने के बावजूद पहाड़ डाक्टरविहीन हों, प्रत्येक शिक्षक को दुर्गम में पढ़ाना अनिवार्य करने के बाद भी शिक्षक सिफारिशी चिट्ठियों के बूते देहरादून में आने के लिए साम दाम दंड भेद अपनाने की जुगत में रहते हों और पहाड़ी विद्यालय शिक्षकविहीन होने के चलते बंदी की कगार पर हों, वहां रामदेव किस जादुई छड़ी को घुमाकर पलायन रोक पाएंगे?
क्या रोजगार के नाम पर भोले भाले पहाड़ियों को पतंजलि फैक्ट्री में चार-पांच हजार रुपए की नौकरी देकर या अपनी कंपनी का सेल्समैन, एजेंट बनाकर। कैसे रुकेगा पलायन।
त्रिवेंद्र सरकार द्वारा बाबा को जड़ी—बूटी समेत अन्य क्षेत्रों में एकाधिकार दिए जाने पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह नाराजगी जाहिर करते हुए कहते हैं कि 'सरकार हर क्षेत्र में मर्यादाओं का उल्लंघन कर रही है। कभी संघ इनकी समीक्षा करता है, तो कभी पूरी सरकार व्यापारी बाबा रामदेव की गोद में बैठी नजर आती है। भाजपा चंद लोगों के हितों के लिए ही काम कर रही है। जनता की उसे बिल्कुल भी परवाह नहीं है।'
हालांकि केवल भाजपा सरकार नहीं कर रही, बल्कि अब तक राज्य में बनी हर सरकार रामदेव के आगे दंडवत दिखी है। महंगी विदेशी कारों में बैठकर ‘स्वदेशी अपनाओ’ की बीन बजाने वाले बाबा रामदेव हर बिजनेस में प्रतिस्पर्धा करने वाली कंपनी को टेकओवर करना चाहते हैं तो इसमें सर्वशक्तिमान बनने की महत्वाकांक्षा के अलावा और क्या कारण हो सकता है? और रामदेव की इस महत्वाकांक्षा का खामियाजा राज्य की जनता क्यों भुगते? आयुर्वेदिक दवाओं से लेकर घरेलू इस्तेमाल की लगभग हर चीज बाबा की फैक्ट्री में बनती है।
गौरतलब है कि लगभग हर रोज पतंजलि के उत्पादों के सेम्पल फेल होने की खबरें सुर्खियों में रहती ही हैं। मिलिट्री कैन्टीन पतंजलि का आंवला जूस तक नहीं पचा पाई और सेम्पल फेल होने के बाद वहां पतंजलि के उत्पादों की ‘नो एंट्री’ हो गई। ऐसे में खुद ही समझा जा सकता है कि बाबा की फैक्ट्री भी अन्य मल्टीनेशनल फैक्ट्रियों से कतई कम नहीं है, जहां किसी भी उत्पाद का अर्थ केवल मुनाफा कमाना होता है।
अतीत में कई कर्मचारियों ने पतंजलि में होने वाले शोषण के खिलाफ आवाजें बुलंद की, जो दबा दी गईं। दवाओं में जानवरों की हड्डियां मिलने की खबरें भी सुर्खियों में बनी रही थीं, जहां खुद वृंदा करात ने जाकर आरोपों की जांच की थी।
त्रिवेंद्र सरकार का चाल—चरित्र कांग्रेस सरकार से अलग कतई नहीं दिखता, बस! डेनिश की जगह मेकडोवेल आ गई है। एनएच मामले में केन्द्र के दबाव में आकर जांच दबाने का मामला हो या उत्तराखंड को शराब के गर्त में डुबोने की मानसिकता से हाईवे पर 500 मीटर भीतर शराब की दुकान खोले जाने के मानक को बदलकर शराब माफिया की गोद में जा बैठना, पंचेश्वर बांध परियोजना पर जनता का आक्रोश शांत करने के लिए जन सुनवाइयों का ढकोसला, छात्रों को रोजगार की बजाय बीमा योजना की बेतुकी शुरुआत या फिर राज्य से पलायन रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाने की बजाय ‘पलायन आयोग’ रूपी सफेद हाथी बनाकर चहेते अफसरों को जनता की गाढ़ी कमाई से वर्षों तक बैठे-बिठाए बिना काम के पालने पोसने की कुत्सित चाल। हर मामले में सरकार का असली चेहरा उजागर हुआ है।
भ्रष्टाचार पर ‘जीरो टाॅलरेंस’ का दावा करने वाली त्रिवेन्द्र सरकार अब तक के कार्यकाल में भ्रष्ट अफसरों पर कार्यवाही करने के बजाय अपनों को बचाती ही नजर आई है। शराबबंदी का नारा देने के बाद सरकार खुद शराब माफिया के आगे नतमस्तक है। हद तो यह है कि इसके पीछे सरकार का तर्क है कि महिलाओं की शराब व्यवसाय में भागीदारी बढ़ने से नारी शक्ति और मजबूत होगी।