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विमर्श

सपने बेचने के अलावा और कौन सा आर्थिक मॉडल दिया है मोदी ने : पुण्य प्रसून

Prema Negi
16 Nov 2018 8:00 AM GMT
सपने बेचने के अलावा और कौन सा आर्थिक मॉडल दिया है मोदी ने : पुण्य प्रसून
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आज अमित शाह चुनावी जीत के लिये जिस सोशल इंजीनियरिंग को अपनाये हुये हैं उस सोशल इंजीनियरिंग का जिक्र या प्रयोग की बात 1998 में गोविन्दाचार्य कर रहे थे...

देश के लिये महत्वपूर्ण हो चले विधानसभा चुनाव से लोकसभा चुनाव तक के रास्ते पर वरिष्ठ टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी का विश्लेषण

किसान की कर्ज माफी और रोजगार से आगे बात अभी भी जा नहीं रही है और बीते ढाई दशक के दौर में चुनावी वादों के जरिये देश के हालात को समझें तो सड़क, बिजली, पानी पर अब जिन्दगी जीने के हालात भारी पड़ रहे हैं। ऐसे में से सवाल है कि क्या वाकई सत्ता संभालने के लिये बैचेन देश के राजनीतिक दलों के पास कोई वैकल्पिक सोच है ही नहीं।

राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के चुनावी महासंग्राम में कूदी देश की दो सबसे बड़ी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां भी या तो खेती के संकट से जूझते किसानों को फुसलाने में लगी हैं या फिर बेरोजगार युवाओं की फौज के घाव में मलहम लगाने की कोशिश कर रही हैं। चूंकि चार महीने बाद ही देश में आम चुनाव का बिगुल बजेगा तो हिन्दी पट्टी के इन तीन राज्यों के चुनाव भी खासे महत्वपूर्ण हैं। पहली बार लोकसभा चुनाव की आहट देश को एक ऐसी दिशा में ले जा रही है, जहां वैकल्पिक सोच हो या न हो लेकिन सत्ता बदलती है तो नई सत्ता को सोचना पड़ेगा ये तय है। अन्यथा नई सत्ता का बोरिया बिस्तर तो और जल्दी बंध जायेगा।

ये सारे सवाल इसलिये क्योंकि 1991 में अपनायी गई उदारवादी आर्थिक नीतियों तले पनपे या बनाये गये या फले—फूले आर्थिक संस्थान भी अब संकट में आ रहे हैं। ध्यान दीजिये तो राजनीतिक सत्ता ने इस दौर में हर संस्धान को हड़पा जरूर या उस पर कब्जा जरूर किया, लेकिन कोई नई सोच निकलकर आई नहीं।

कांग्रेस के बाद बीजेपी सत्ता में आई तो उसके पास सपने बेचने के अलावा कोई आर्थिक मॉडल है ही नहीं। सपनों का पहाड़ बीजेपी के दौर में जिस तरह बड़ा होता गया उसके समानातंर अब कांग्रेस जिन संकटों से निजात दिलाने का वादा वोटरों से कर रही है अगर उसे सौ फीसदी पूरा कर दिया गया तो होगा क्या?

इस सवाल पर अभी सभी खामोश हैं। इसे तीन स्तर पर परखें, पहला कांग्रेस इस हकीकत को समझ रही है कि वह सिर्फ जुमले बेचकर सत्ता में टिकी नहीं रह सकती। यानी उसे बीजेपीकाल से आगे जाना ही होगा। दूसरा, जो वादे कांग्रेस कर रही है मसलन, दस दिन में किसानों की कर्ज माफी या न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि या बिजली बिल माफ। अगर कांग्रेस इसे पूरा करती है तो फिर बैंक सहित उन तमाम आर्थिक संस्थानों की रीढ़ और टूटेगी इससे इंकार किया नहीं जा सकता।

सपने बेचने या लेफ्ट की आर्थिक नीतियों के अलावा तीसरा विकल्प सत्ता में आने के बाद किसी भी राजनीतिक सत्ता के सामने यही बचेगा कि वह वैकल्पिक आर्थिक नीतियों की तरफ बढे। सही मायने में यही वह आस है जो भारतीय लोकतंत्र के प्रति उम्मीद जगाये रखती है, क्योंकि मोदी के काल में तमाम अर्थशास्त्री या संघ के विचारों से जुड़े वुद्धिजीवी उदारवादी आर्थिक नीतियों से आगे सोच ही नहीं पाये।

इस दौर में देश के तमाम संस्थानों को अपने मुताबिक चलाने की जो सोच पैदा हुई, उसने संकट इतना तो गहरा ही दिया है कि अगर सत्ता में आने के बाद कांग्रेस सिर्फ ये सोच ले कि देश में लोकतंत्र लौट आया और अब वह भी सत्ता की लूट में लग जायेगी तो 2019 के बाद देश इस हालात को बर्दाश्त करने की स्थिति में होगा नहीं।

दरअसल, बीजेपी की सत्ता क्यों कांग्रेस की बी टीम या कार्बन कापी की तरह ही वाजपेयी काल में उभरी और मोदी काल में भी और कांग्रेस से अलग होते हुये भी सत्ता में आते ही बीजेपी का भी कांग्रेसीकरण क्यों होता रहा है और अब कांग्रेस के सामने ये हालात क्यों बन रहे हैं कि वह वै​कल्पिक सोच विकसित करे।

इसके कारण कई हैं। जैसे कांग्रेस की उदारवादी नीतियां। मोदी की चुनावी गणित अनुकुल करने की कॉरपोरेट नीतियां। क्षत्रपों का चुनावी गणित के लिये सोशल इंजीनियरिंग को टिकना। क्षत्रप अभी भी जातीय समीकरण के आधार पर अपनी महत्ता बनाये हुये हैं।

अजित जोगी या मायावती को कितना मतलब है कि आदिवासी या दलित किस सोशल इंडेक्स में फिट बैठ रहा है या उसका जीवन स्तर कितना न्यूनतम पर टिका हुआ है। ये ठीक वैसे ही जैसे उदारवादी आर्थिक नीतियां या कॉरपोरेट के अनुकल देश को चलाने की नीतियों ने इतनी असमानता पैदा कर दी कि देश का 90 फीसदी संसाधन दस फीसदी लोगों के हिस्से में सिमट चुके हैं।

यहीं से अब सबसे बड़ा सवाल राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ के विधानसभा चुनाव से लेकर 2019 के लोकसभा चुनाव तक है कि क्या वाकई देश ऐसे मुहाने पर जा पहुंचा है जहां हर नई सत्ता को वैकल्पिक सोच की दिशा में बढ़ना होगा, क्योंकि विपक्ष के राजनीतिक नैरेटिव मौजूदा सत्ता की नीतियों से ठीक उलट है या खारिज कर रही है।

यहां कोई भी सवाल खड़ा कर सकता है कि बीजेपी ने तो हमेशा कांग्रेस के उलट पॉलिटिकल स्टैंट लिया, लेकिन सत्ता में आते ही उसने कांग्रेसी धारा अपना ली। ये सवाल भी सही है, क्योंकि याद कीजिये वाजपेयी के दौर में गोविन्दाचार्य वैकल्पिक स्वदेशी आर्थिक नीति के जरिये वाजपेयी के ट्रैक टू को खारिज कर रहे थे।

यानी संघ के स्वयंसेवक गोविन्दाचार्य तब दत्तोपंत ठेंगडी और मदनदास देवी के जरिये मनमोहन की आर्थिक नीतियों के ट्रैक पर चलती वाजपेयी सरकार के सामने विकल्प पेश कर रहे थे, मगर वाजपेयी सत्ता में भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह विकल्प को अपनाये और अंदरुनी सच तो यही है कि वाजपेयी ने गोविन्दाचार्य को मुखौटा प्रकरण की वजह से दरकिनार नहीं किया/करवाया बल्कि वह विश्व बैक और आईएमएफ का ही दवाब था जहां वह स्वदेशी मॉडल अपनाने की स्थिति में नहीं थे। गोविन्दाचार्य खारिज कर दिये गये।

आज अमित शाह चुनावी जीत के लिये जिस सोशल इंजीनियरिंग को अपनाये हुये हैं उस सोशल इंजीनियरिंग का जिक्र या प्रयोग की बात 1998 में गोविन्दाचार्य कर रहे थे। तब संघ अंदरूनी अंतर्विरोध की वजह से या तो अपना नहीं पाया या विरोध करने लगा, तो आखिरी सवाल यही है कि क्या वाकई सत्ता अपने बनाये दायरे से बाहर की वैकल्पिक सोच को अपनाने से कतराती है।

भारत का इकोनॉमिक मॉडल जिस दिशा में जा चुका है उसमें विदेशी पूंजी ही सत्ता चलाती है और भारतीय किसान हो या मजदूर या फिर उच्च शिक्षा प्रप्त युवा सभी को प्रवासी मजदूर के तौर पर होना ही है। सत्ता सिर्फ गांव से शहर और शहर से महानगर और महानगर से विदेश भेजने के हालात को ही बना रही है, जिससे शारीरिक श्रम के मजदूर हों या बौद्धिक मजदूर सभी असमान भारत के बीच रहते हए या विदेशी जमीन पर मजदूरी या रोजगार करते हुये भारत में पूंजी भेजे, जिस पर टैक्स लगाकर सरकार मदमस्त रहे और देश लोकतंत्र के नाम पर हर सत्ता को सहूलियत देते रहे।

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