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श्रीदेव सुमन ने अंग्रेजों से ही नहीं, राजा के खिलाफ भी लिया था मोर्चा
(श्रीदेव सुमन के टिहरी रियासत के खिलाफ किए गये संघर्ष ने हिला दी थीं सत्ता की चूलें)
श्रीदेव सुमन की शहादत दिवस 25 जुलाई पर मुनीष कुमार का विशेष लेख
जनज्वार। श्रीदेव सुमन का नाम देश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। त्याग व संघर्ष की मिसाल श्रीदेव सुमन से देशवासी बहुत कम परिचित हैं। श्रीदेव सुमन द्वारा टिहरी रियासत के खिलाफ किए गये संघर्ष ने टिहरी रियासत की चूलें हिला दी थीं।
वे वास्तविक अर्थों में अहिंसावादी स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने टिहरी जेल में एक बार नहीं, बल्कि दो बार आमरण अनशन किया। दूसरी बार 84 दिनों तक जेल के भीतर आमरण अनशन करते हुए श्रीदेव सुमन ने 25 जुलाई, 1944 को अपने प्राण त्याग दिये। परन्तु टिहरी के राजा के सामने हार नहीं मानी और मरते दम तक अपना संघर्ष जारी रखा।
राजशाही का अत्याचार
आजादी से पूर्व टिहरी राज्य की जनता न केवल अंग्रेजी हुकूमत बल्कि टिहरी की राजशाही से भी बुरी तरह त्रस्त थी। बद्रीनाथ का अवतार माने जाने वाली टिहरी रियासत के राजाओं के राज में जनता के लिए स्कूल, पेयजल व रोजगार आदि की बेहद कमी थीं, शराब की भट्टियां अत्यधिक मात्रा में खुली हुयी थीं। एकमात्र इंटर कालेज टिहरी में था जिसमें राजा के कृपापात्र बच्चे ही भर्ती हो सकते थे। टिहरी में सभा करने व भाषण देने पर भी पाबंदी थी।
टिहरी के शासक राजाओं के अत्याचारों के बारे में जनता को बहुत कम बताया गया है। टिहरी के बुजुर्ग बताते हैं कि जनता को भयभीत रखने के लिए राजा द्वारा फांसी की सजा खुले में सेमल के तप्पड़ पर दिये जाने की प्रथा थी। कहते हैं कि राजशाही के खिलाफ गीतों को रचने वाले एक कवि को भी टिहरी के राजा ने मरवा दिया तथा प्रचार कर दिया कि उसे परियां उठा कर ले गयीं हैं।
राजा पुल पर चलने के लिए भी जनता से झूलिया वसूलता था। बहू-बेटी का विवाह होने पर सुप्पु स्योन्दी कर वसूला जाता था। टिहरी की जनता जहां बेहद अभाव में जीवन बसर करती थी, वहीं टिहरी के राजाओं के महलों में धन दौलत का अम्बार लगा रहता था। राजा जनता से लूटे गये सोना-चांदी आदि कीमती वस्तुओं को अपने राजमहलों की दीवारों में चिनवाकर रखता था।
टिहरी राज्य में खासतौर से वनों के समीप रहने वाले लोगों के लिए वन जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन था। जनता जंगलों से अपनी जरूरत की वस्तुएं घास, लकड़ी आदि प्राप्त करती थी, वन उपज पर कई सारे कुटीर उद्योग भी निर्भर थे। 1928-29 में टिहरी के राजा नरेन्द्र ने अग्रंजों की शह व सुरक्षा व्यवस्था के
नाम पर जंगलों की हदबंदी कर दी तथा जनता के पशु चराने, लकड़ी, घास लाने के सभी अधिकार समाप्त कर दिए।
संघर्ष का आगाज
इस सबसे आक्रोशित जनता ने टिहरी रियासत के खिलाफ संघर्ष का बिगुल बजा दिया। उस संघर्ष को कुचलने के लिए राजा की फौज ने 30 मई, 1930 को रवाई परगना के अंर्तगत तिलाड़ी के मैदान में वार्ता के लिए एकत्र निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी जिसमें दर्जनों लोग शहीद हुए। जान बचाने के लिए लोग जमुना नदी में कूदे। जमुना का पानी भी शहीदों के रक्त से लाल हो गया। टिहरी के लोग इसे टिहरी के जलियाबाला बाग कांड के नाम से जानते हैं।
1938 में कांग्रेस के गुजरात के हरिपुर अधिवेशन में निर्णय लिया गया कि देशी राज्य की प्रजा अपने प्रजा मंडलों द्वारा अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करेगी।
23 जनवरी, 1939 को देहरादून में टिहरी राज्य प्रजा मंडल की स्थापना की गयी। श्रीदेव सुमन को इसकी कमान सौंपकर सचिव बनाया गया। प्रजा मंडल ने राजा के समक्ष पौण टोटी कर खत्म किया जाए, बरा बेगार बंद किया जाए तथा राज्य में उत्तरदायी शासन स्थापित किया जाए इत्यादि मांगे रखीं। परन्तु राजा नरेन्द्र देव ने प्रजा मंडल की मांगो को मानने की जगह आंदोलन के दमन का तरीका अख्तियार किया।
1942 में देश में अंग्रजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो गया। इसका असर टिहरी की जनता पर भी था। जनता इस आंदोलन में बढ़—चढ़कर भागीदारी करने लगी। देश के राजे रजवाड़े अंग्रेजों के दलाल थे। वे अंग्रेजों के दमन में हर वक्त उनके साथ थे।
29 अगस्त, 1942 को श्रीदेव सुमन जैसे ही देव प्रयाग पहुंचे उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। कुछ दिन मुनी की रेती व देहरादून जेल में रखने के बाद उन्हें आगरा जेल में 15 महीनों तक नजरबंद रखा गया। नबम्वर 1943 में श्रीदेव सुमन को रिहा किया गया। जेल से रिहा होने के बाद श्रीदेव सुमन चुप नहीं बैठे। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत व राजशाही के खिलाफ संघर्ष जारी रखा।
बेइंतहा जुल्मो सितम का दौर
30 दिसम्बर को श्रीदेव सुमन को पुनः गिरफ्तार कर टिहरी जेल भेज दिया गया। टिहरी जेल कैदियों को यातनाएं देने के लिये बेहद कुख्यात थी। श्रीदेव सुमन को लोहे की भारी जंजीरों से जकड़ कर, टिहरी जेल के बार्ड नं. 8 में बंद कर दिया। वहां उन्हें तरह—तरह की यातनाएं दी गयीं। जिस फर्श वे सोते थे, उसे गीला कर दिया जाता। उनके खाने की रोटियों में भूसा व रेत मिला दिया जाता था तथा उन पर माफी मांगने के लिए दबाव बनाया गया।
प्रजामंडल का संचालक होने के नाते उन पर टिहरी शासन के खिलाफ घृणा, द्वेष व विद्रोह फैलाने का अभियोग चलाया गया। उनके खिलाफ -हजयूठे गवाह पेश कर उन्हें दफा 124 अ के तहत 2 वर्ष की कैद तथा दो सौ रुपए जुर्माने का दण्ड दिया गया गया।
श्रीदेव सुमन ने जेल प्रशासन से प्रजा मंडल को पंजीकृत करवाने व अपने लिए कपड़ों व किताबें आदि उपलब्ध कराए जाने की मांग को लेकर जेल के भीतर अनशन प्रारम्भ कर दिया। अनशन को 21 दिन बीत जाने पर जेल प्रशासन ने आश्वासन दिया कि शीघ्र ही उच्च अधिकारियों से वार्ता कर उनकी मांगों का समाधान किया जाएगा। परन्तु जेल प्रशासन का आश्वासन झूठा निकला। उनकी मांगों पर कार्यवाही करने की जगह जेल प्रशासन ने उनके साथ सख्त रवैया अख्तियार कर लिया।
उन्हें कागज कलम की जगह बेतों की मार पड़ने लगी। उन्होंने निर्भीकता के साथ कहा कि मेरी यह तीन मांगें महाराज तक पहुंचा दो, अन्यथा 15 दिनों के बाद मुझे जेल के भीतर पुनः आमरण अनशन प्रारम्भ करना पड़ेगा। श्रीदेव सुमन की मांग थी कि प्रजामंडल को पंजीकृत कर उसे राज्य में जनसेवा करने की पूरी छूट दी जाए, उनके मुकदमे की सुनवाई स्वयं महाराज के द्वारा की जाए तथा उन्हें जेल से बाहर पत्र व्यवहार करने की छूट दी जाए।
उनकी उक्त मांगों पर कोई भी सुनवाई नहीं हुयी। 3 मई, 1944 को टिहरी जेल में श्रीदेव सुमन ने अपना ऐतिहासिक आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया। उनका अनशन तोड़ने के लिए उनका मुंह संडासी से से जबरन खोलने की कोशिश की जाती। उनकी नियमित पिटाई कर उनके पैरों में बेड़िया डाल दी गयीं।
अनशन के दौरान जेल के भीतर कई बार मजिस्ट्रेट, डॉक्टर व जेल मंत्री ने श्रीदेव सुमन से अनशन तोड़ने की अपील की। अनशन के 48 वें दिन राज्य के जेल मंत्री डाक्टर बैलीराम ने जेल में आकर उनसे अनशन तोड़ने की अपील की तथा आश्वासन दिया कि वे महाराज से मिलकर स्वयं उनकी मांगों को मंजूर करवाने का प्रयास करेंगे।
राजशाही के आगे नहीं टेके घुटने
श्रीदेव सुमन पहले भी झूठे आश्वासन में आकर अनशन तोड़ चुके थे। इस बार वे अपने निर्णय पर अटल रहे और मांगे माने जाने के बगैर अनशन समाप्त करने से इंकार कर दिया। श्रीदेव सुमन दिल में देश प्रेम का जज्बा लिए टिहरी जेल में तिल-तिलकर अपना शरीर नष्ट कर रहे थे। परन्तु टिहरी राजशाही उनकी मांगों पर विचार करने की जगह झूठी खबर का प्रचार कर रही थी कि श्रीदेव सुमन ने अनशन तोड़ दिया है।
डॉ. बेलीराम 4 जुलाई को पुनः टिहरी जेल गये तथा श्रीदेव सुमन को आश्वासन दिया कि 4 अगस्त को उन्हें महाराज के जन्मदिन पर रिहा कर दिया जाएगा, अतः वे अनशन तोड़ दें। इस पर श्रीदेव सुमन ने कहा कि क्या महाराज ने प्रजामंडल को पंजीकृत कर उन्हें राज्य में सेवा करने की आज्ञा दे दी है, उनका अनशन रिहाई के लिए नहीं है।
जेल के भीतर 20 जुलाई की रात से उन्हें बेहोशी आने लगी। जेल प्रशासन ने उनके शरीर में गर्मी पैदा करने के नाम पर उन्हे कुनैन के इंजैक्शन लगाने शुरू कर दिये। नस के भीतर लगे इन इंजैक्शनों ने उनके शरीर में गर्मी पैदा कर दी और वे पानी की मांग करने लगे। 25 जुलाई, 1944 की शाम लगभग 4 बजे जेल की काल कोठरी में इस अमर बलिदानी ने अपनी अंतिम सांस ली।
अनशन करते और भयंकर प्रताड़ना सहते हुए गंवाए प्राण
उनकी मृत्यु खबर किसी को दिए बगैर ही श्रीदेव सुमन का पार्थिव शरीर बोरे में बंद कर राजशाही द्वारा भिलंगना नदी में इस उम्मीद के साथ फेंक दिया गया कि इस आवाज के गुम हो जाने के बाद क्रूर राजशाही व अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अब कोई बोलने की जुर्रत भी नहीं करेगा।
श्रीदेव सुमन का नाम भगतसिंह के साथी यतीन्द्रनाथ के साथ अमर हो गया। 25 वर्षीय युवा क्रांतिकारी यतीन्द्रनाथ ने भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लाहौर जेल में 13 सितम्बर, 1929 को अनशन करते हुए 64 दिन बाद अपने प्राण त्याग दिये थे।
श्रीदेव सुमन की शहादत के बाद टिहरी में राजशाही के खिलाफ संघर्ष और भी तेज हो गये। 1947 में भारत से अंग्रेजों के चले जाने के बावजूद भी टिहरी रियासत का अस्तित्व बना हुआ था। जनता ने राजशाही की समाप्ति व टिहरी रियासत के भारत में विलय को लेकर संघर्ष तेज कर दिये।
11 जनवरी, 1948 में राजा मानवेन्द्र शाह ने अलकनन्दा नदी के तट पर बसे कीर्तिनगर में आंदोलनकारियों पर गोलियां चलवायीं। जिसमें नागेन्द्र सकलानी व भोलू भरदारी शहीद हो गये। उस घटना ने आग में घी का काम किया। जनता के संघर्ष के आगे राजा को शासन चलाना मुश्किल हो गया था। अंत में अगस्त 1949 में टिहरी का भारत में विलय कर दिया गया।
आजाद भारत में भी रजवाड़े सुरक्षित
भारत से अंग्रेजों के जाने के बाद देशी रियासतों के खिलाफ संघर्षों को लामबन्द करने वाली कांग्रेस सरकार जनता से किया अपना वायदा भूल गयी। राजाओं, राजे—रजवाड़ों की सम्पत्ति जब्त कर उन पर जनता के दमन-शोषण व हत्या जैसे अपराधों का मुकदमा चलाने की जगह, उन्हें 'आजाद' भारत के नये शासन में भी शासक ही बनाए रखा गया।
भारत की संसद में राजे-रजवाड़े व उनके वारिसों को प्रीविपर्स दिये जाने का कानून बनाया गया जिसके तहत राजाओं और उनके वारिसों को देश के खजाने से प्रतिवर्ष लाखों रुपए की राशि उन्हें शाहीखर्चों के लिए भुगतान की जाती थी।
पिछड़ी सामंती मूल्य-मान्यताओं के खिलाफ जनता को लामबन्द कर कोई निर्णायक संघर्ष नहीं चलाया गया और न ही राजे-रजवाड़ों की सम्पत्ति जब्त कर गरीब-दलित व भूमिहीन लोगों में बांटी गयी। जो भूमि सुधार देश में किए भी गये वे बेहद नाममात्र के ही थे। यही कारण है कि देश के मजदूर मेहनतकश व गरीब लोगों के जीवन में आजादी के बाद भी कोई खास बदलाव नहीं आया।
हत्यारे क्रूर शासक मानवेन्द्र शाह व उसके अधिकारियों पर श्रीदेव सुमन, भोलू भरदारी व नगेन्द्र सकलानी जैेसे शहीदों की हत्या का मुकदमा चलाने की जगह नेहरु सरकार ने उल्टा राजा को मान—सम्मान का ईनाम दिया। राजा मानवेन्द्र सिंह व उसके वारिसों को नेहरु व पटेल की जोड़ी ने सालाना 3 लाख रुपए प्रीविपर्स शाही खर्च के रुप में देने की घोषणा की।
राजा मानवेन्द्र सिंह को 1957, 62 व 67 में कांग्रेस ने अपने टिकट पर उसे सांसद चुने जाने का अवसर प्रदान किया। 1972 में इंदिरा गाांधी द्वारा संसद में कानून बनाकर प्रीवीपर्स को खत्म कर दिया गया। इसके बाद भी राजा मानवेन्द्र साह का मान मनौव्वल जारी रहा।
और हत्यारे अभी भी सत्ता पर काबिज
1980 से 1983 तक उसे आयरलैंड का एम्बेसडर बनाया गया। 1991 में मानवेन्द्र साह भाजपा के टिकट पर पुनः सांसद चुने गये। श्रीदेव सुमन जैसे शहीदों के हत्यारे आजाद भारत में भी राज कर रहे हैं। 1947 से पूर्व देश के मजदूर-किसान व आम जन अंग्रेजों व राजाओं के राज में शोषित-उत्पीडित थे। आजाद भारत में भी उनका शोषण-दमन बदस्तूर जारी है।
श्रीदेव सुमन का संघर्ष अपने दौर का अभूतपूर्व संघर्ष है। आज हमारा देश व समाज उन वीर क्रांतिकारियों को भूलता जा रहा है, जिन्होंने देश की आजादी व समाज की बेहतरी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। आज जरुरत है कि हम अमर शहीद श्रीदेव सुमन के त्याग, सर्मपण से समाज को परिचित कराएं तथा उनके बचे हुए कार्यों को आगे बढ़ाएं।
(मुनीष कुमार स्वतंत्र पत्रकार एवं समाजवादी लोक मंच के सहसंयोजक हैं।)