विद्यार्थियों का प्रवेश नालंदा विश्वविद्यालय में काफी कठिनाई से होता था, क्योंकि केवल सबसे बेहतरीन विद्यार्थियों को ही एडमिशन दिया जाता था। इसके लिए बाकायदा परीक्षा ली जाती थी....
सुधांशु मिश्र की कहानी 'इतिहास की क्लास'
दृश्य : क्लास का पहला दिन
टीचर: बहुत पुरानी बात है कुछ विदेशी आतताई आये। उन्होंने हमारे विश्वविद्यालयों - तक्षशिला और नालंदा -पर आक्रमण किये, लाइब्रेरीज को जलाया, नष्ट-भ्रष्ट किया और वे चले गये। भविष्य की संभानाओं पर आघात किया।
एक छात्र पूछता है : दोनों विश्वविद्यालयों में ज़्यादा पुराना कौन सा है?
टीचर: तक्षशिला। आजकल वह स्थान पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के इस्लामाबाद ज़िले में है। विश्वविद्यालय का सबसे पहले ज़िक्र वाल्मीकि रामायण में मिलता है। वहां विभिन्न धर्मों, मान्यताओं और आस्थाओं के शिक्षक भी थे और छात्र भी। गूगल कर के देख लेना।
छात्र : सर, तक्षशिला के टीचर्स और स्टूडेंट्स कहाँ गए?
टीचर: तक्षशिला के एक मशहूर टीचर थे आचार्य चाणक्य - आज होते तो कम से कम नोबल प्राइज तो मिलता ही। बाकियों का पता नहीं।
छात्र : सर, वे आतताई कौन थे और उन आतताइयों के इस कुकृत्य से हमने क्या खोया?
टीचर: इतिहासकारों के अनुसार पाँचवीं सदी में हूणों ने भारत पर जो विनाशकारी आक्रमण किये, उनमें तक्षशिला नगर भी ध्वस्त हो गया। वास्तव में तक्षशिला के विद्या केंद्र का ह्रास शकों और उनके उत्तराधिकारियों के समय से ही शुरू हो गया था। गुप्तों के समय जब फाह्यान वहाँ गया तो उसे वहाँ विद्या के प्रचार का कोई विशेष चिह्न नहीं मिल सका था। वह उसे चो-श-शिलो कहता है।
टीचर, कुछ रुक कर : जहाँ तक तक्षशिला की बर्बादी से क्या नुकसान हुआ, आज तक इसका ठीक से आंकलन नहीं हो सका है।
एक अन्य छात्र पूछता है : और हूण? उनका क्या हुआ?
टीचर, मुस्कराते हुए: हूणों का होना क्या था! बहुत सारे थे भारत में, बाहर से आये हुए। यहीं बस गए, यहाँ के होकर। हो सकता है तुम में से कुछ के वे पुरखे हों। छोड़ो, इस बात का कोई महत्त्व नहीं है।
छात्र : सर, तो वहां के संचित ज्ञान का भंडार कहाँ गया?
टीचर: पता नहीं।
दृश्य : क्लास का दूसरा दिन
टीचर: पिछली क्लास में हमने तक्षशिला के विनाश के बारे में बात की। हज़ार साल बाद, पिछले दिनों, इस देश में ही तैयार किये हुए स्वदेशी आततायी आए। देश के नालंदा पर आक्रमण किया । छात्रों पर प्राणघातक हमले किये।
छात्र : बस?
टीचर: नहीं। पुस्तकालयों में सशस्त्र -बल घुसे और छात्र-छात्रों पर अपने टिअर-गैस के प्रक्षेपास्त्र छोड़े। लाठियां भांजी। अपने बचाव के लिए टॉयलेट्स में घुसी लड़कियों तक को नहीं छोड़ा।
छात्रा: सर, आप ही ने बतलाया है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है।
टीचर: यह इसलिए कहा था ताकि समझदारी के साथ इतिहास से सबक लेकर एक बेहतर दुनिया और समाज बनाया जाए।
अन्य छात्र: सर पहले नालंदा के बारे में बताइये।
टीचर (एक ज़ोर से सांस लेते हुए, शुरू होते हैं): नालन्दा भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विश्वविख्यात केंद्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केंद्र में हीनयान बौद्ध धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। यहां धर्म ही नहीं, राजनीति, शिक्षा, इतिहास, ज्योतिष, विज्ञान आदि की भी शिक्षा दी जाती थी।
एक छात्र : कहां है यह नालंदा, सर?
टीचर: नालंदा विश्वविद्यालय बिहार राज्य में पटना से 95 किलोमीटर दूर है । इस विश्वविद्यालय के खंडहरों को एक अँगरेज़ अलेक्जेंडर कनिंघम ने तलाशकर बाहर निकाला था जिसके जले हुए भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव की दास्तां बयां करते हैं।
एक छात्र: ये कनिंघम कौन था?
टीचर: एक प्रसिद्ध पुरातत्वविद, (आर्किओलॉजिस्ट)।
छात्र : उसे क्या ज़रूरत पड़ी थी इस, खोज की?
टीचर : क्योंकि वे भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण ( Archeological survey of India) के पहले डायरेक्टर जनरल थे। वे इस पद पर 1872 से 1885 तक रहे थे। क्यों खोजा? अपनी-अपनी प्राथमिकताएं हैं। इस पर बाद में बात करेंगे।
चीनी यात्री ह्वेनसांग के लेखों के आधार पर ही इन खंडहरों की पहचान नालंदा विश्वविद्यालय के रूप में की गई थी। 7वीं शताब्दी में भारत आए ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय में न केवल विद्यार्थी रहे, बल्कि बाद में उन्होंने एक शिक्षक के रूप में भी यहां अपनी सेवाएं दी थीं।
जब ह्वेनसांग भारत आया था, उस समय नालंदा विश्वनविद्यालय में 8,500 छात्र और 1,510 अध्यापक थे। अनेक पुराभिलेखों और 7वीं सदी में भारत भ्रमण के लिए आए ह्वेनसांग और इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तार से जानकारी मिलती है। ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में अपनी ज़िन्दगी का महत्वपूर्ण 1 वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में बिताया था।
एक छात्रा : यह यूनिवर्सिटी बनी कब थी?
टीचर: इस महान विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्तकाल के सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने 413-455 ईपू में की।
एक छात्र : इसे चलाता कौन था?
टीचर: गुप्त वंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसके संरक्षण में अपना महत्वपूर्ण योगदान जारी रखा और बाद में इसे महान सम्राट हर्षवर्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानीय शासकों तथा विदेशी शासकों से भी इस विश्वविद्यालय को अनुदान मिलता था।
एक और छात्र: सर, फीस क्या लगती थी? खूब लूटते होंगे!
टीचर (मुस्कुराते हुए): फीस! दिल थम के बैठो। कोई फीस नहीं। नालंदा में शिक्षा, आवास, भोजन आदि का कोई शुल्क छात्रों से नहीं लिया जाता था। सभी सुविधाएं नि:शुल्क थीं। राज्य (राजाओं) और धनी सेठों द्वारा दिए गए दान से इसका खर्च चलता था। इस विश्वविद्यालय को 200 गावों की आय प्राप्त होती थी। पुराने ज़माने में शासक शिक्षा के महत्त्व को समझते थे। वे जानते थे कि विश्विद्यालय का अर्थ है सभी तरह के विचारों का सम्मान।
बौद्ध धर्म से इस शिक्षण संस्थान के जुडे होने के बावजूद वहां हिन्दू तथा जैन मतों से संबंधित अध्ययन कराए जाने के संकेत मिलते हैं, साथ ही साथ वेद, विज्ञान, खगोलशास्त्र, सांख्य, वास्तुकला, शिल्प, मूर्तिकला, व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी सिलेबस में शामिल थे। इससे पता चलता है कि बौद्ध शासन होने के बावजूद बौद्धों ने कभी दूसरे धर्मों के अनुयायियों के साथ भेदभाव नहीं किया था।
छात्र : मतलब, पूरा सेक्लारिस्म था!
टीचर: बिलकुल ठीक समझे।
सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे, जिनमें बुद्ध भगवान की मूर्तियां स्थापित थीं।
यह विश्व का पहला पूर्णत: आवासीय ( रेजिडेंशियल) विश्वविद्यालय था और विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब 10,000 एवं अध्यापकों की संख्या 2,000 थी। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्वविद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे, जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट्ट भी इस विश्वविद्यालय के एक समय कुलपति रहे थे।
एक छात्र : सर, स्टूडेंट्स तो सारे इंडियन ही होंगे!
टीचर : वहां विश्वभर के छात्र पढ़ते थे। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं, बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, श्रीलंका, फारस, तुर्की और ग्रीक से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म के साथ ही अन्य ज्ञान का प्रचार करते थे।
नालंदा में बौद्ध धर्म के अतिरिक्त शब्दविद्या, चिकित्साशास्त्र, अथर्ववेद तथा सांख्य से संबधित विषय भी पढ़ाए जाते थे। नालंदा के एक हज़ार विद्वान आचार्यों में से 100 ऐसे थे, जो सूत्र और शास्त्र जानते थे तथा 500, तीन विषयों में पारंगत थे और 20, पचास विषयों में। केवल शीलभद्र ही ऐसे थे जिनकी सभी विषयों में समान गति थी।
छात्र : सर, एडमिशन कैसे होता था?
टीचर: विद्यार्थियों का प्रवेश नालंदा विश्वविद्यालय में काफी कठिनाई से होता था, क्योंकि केवल सबसे बेहतरीन विद्यार्थियों को ही एडमिशन दिया जाता था। इसके लिए बाकायदा परीक्षा ली जाती थी।
एक अन्य छात्र : एंट्रेंस टेस्ट?
टीचर : जी हां। ऐसे महान विश्वविद्यालय को एक विदेशी तुर्क लुटेरे बख्तियार खिलजी ने 1199 ईस्वी में जलाकर नष्ट कर दिया, वह भी धर्म के नाम पर। इस कांड में हजारों दुर्लभ पुस्तकें जलकर राख हो गईं। महत्वपूर्ण दस्तावेज नष्ट हो गए। कहा जाता है कि वहां इतनी पुस्तकें थीं कि आग लगने के बाद भी 3 माह तक पुस्तकें धू-धू करके जलती रहीं।
कहते हैं कि कई अध्यापकों और बौद्ध भिक्षुओं ने अपने कपड़ों में छुपाकर कई दुर्लभ पांडुलिपियों को बचाया तथा उन्हें तिब्बत की ओर ले गए। कालांतर में इन्हीं ज्ञान-निधियों ने तिब्बत क्षेत्र को बौद्ध धर्म और ज्ञान के बड़े केंद्र में परिवर्तित कर दिया।
आश्चर्य की बात यह है कि वह लुटेरा सिर्फ 200 घुड़सवारों के साथ आया था और नालंदा विश्वविद्यालय में उस समय कम से कम 20,000 छात्र पढ़ रहे थे। निहत्थे और अहिंसक बौद्ध भिक्षुओं ने कभी यह कल्पना भी नहीं कि थी कि इस विश्वविद्यालय को सुरक्षा की जरूरत भी होगी। इस क्रूर लुटेरे ने विश्वविद्यालय के आस-पास रह रहे बौद्धों, अनेक धर्माचार्यों और बौद्ध भिक्षुओं का कत्लेआम किया और उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था। हजारों बौद्ध भिक्षु श्रीलंका या नेपाल भाग गए।
नालंदा की हजारों जलाई गईं पुस्तकों के कारण बहुत-सा ऐसा ज्ञान विलुप्त हो गया, जो आज दुनिया के काम आता।
बख्तियार खिलजी धर्मांध और मूर्ख था। उसने ताकत के मद में बंगाल पर अधिकार के बाद तिब्बत और चीन पर अधिकार की कोशिश की किंतु इस प्रयास में उसकी सेना नष्ट हो गई और उसे अधमरी हालत में देवकोट लाया गया था। देवकोट में ही उसके सहायक अलीमर्दान ने ही खिलजी की हत्या कर दी थी।
शिक्षक (कुछ रुक कर): क्या तुम्हें पता है हज़ार साल बाद नालंदा की तरह के ही एक और विश्वविद्यालय पर पिछले दिनों देश में आक्रमण हुआ है? इस यूनिवर्सिटी का वातावरण भी ठीक नालंदा की ही तरह उदार, विशाल और सर्वधर्म-समभाव के सिद्धांतों पर चलने वाला है और जो अपने यहां वाद-विवाद की प्रजातांत्रिक परंपरा की मिसाल है।
छात्र : जी सर, हमें मालूम है। आरोप हैं वहां एक विचार-विशेष के अनुयायियों ने, स्वयं कुलपति की सरपरस्ती में, राज्य-सत्ता के इशारे पर छात्रों और शिक्षकों पर जानलेवा घातक हमला कर दिया। कुछ लोग कहते हैं हमला करवा दिया। देश जंगल-राज की तरफ धकेला जा रहा है।
टीचर: तुम्हें पता नहीं है क्या कि यह फासीवादी मानसिकता को रिप्रेजेंट करता है? वरना क्या कारण है कि सत्ता उन छात्रों को ही गुनहगार ठहराने पर तुली है, जिन्हें आतंकवादी गुंडों ने पीटा और सर फोड़ दिए।
सभी छात्र: हम तो आपकी क्लास के लिए रुके हुए थे। इसके बाद प्रोटेस्ट मार्च का प्रोग्राम है। आप भी चलिए सर।
(सब हंसते हैं।)
टीचर : तुम लोग आगे बढ़ो।
छात्र : हम होंगे कामयाब एक दिन। टीचर हामी में सर हिलाते हैं।