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बुद्ध अपने इस तर्कसंगत मानवीय सोच के लिए पूरी दुनिया में स्वीकारे गये, जबकि हिन्दू धर्म के अनुयायी बौद्ध अनुयायियों के साथ हिंसात्मक तरीके से पेश आये। बौद्धों की हत्याएं तक करवाई गयीं और बौद्ध दर्शन जिसे बाद में धर्म कहा गया, की घोर भर्त्सना और आलोचना की...
मार्क्स की 200वीं जयंती पर वरिष्ठ लेखक और साहित्यकार भगवान स्वरूप कटियार का विशेष लेख
यह मार्क्स की दो सौवीं जयंती का वर्ष है। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में मार्क्स की स्थापनाओं को लेकर घनघोर बहसें हुई हैं। मार्क्स से पूर्व दार्शनिक इस पहेली में उलझे हुए थे कि सिद्धांत और व्यवहार में कौन अधिक महत्वपूर्ण है। कांट ने अपनी पुस्तक “क्रिटीक ऑफ़ प्योर रीजन “में एक हद तक इसका निराकरण प्रस्तुत किया। हीगेल ने द्वंद्वात्मकता की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए इस बात पर बल दिया कि जो कुछ भी विवेक से परे है वह अतार्किक है।
यही वह बिंदु है जहाँ मार्क्स, कांट की तार्किकता और हीगेल की द्वंद्वात्मकता को जोड़ते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि दर्शन का उद्देश्य महज दुनिया की व्याख्या भर नहीं है, बल्कि उसका असली मकसद है दुनिया को बदलना। मार्क्स जहाँ एक ओर इस दुनिया को यथास्थिति की भंवर से निकालने के लिए संघर्ष करते हैं, वहीं दूसरी ओर अमानवीयता की ओर भागी जा रही दुनिया की दिशा को भी बदलने की मुहिम चलाते हैं।
मार्क्स व्याख्याओं का विरोध नहीं करते, बल्कि व्याख्याओं के उद्देश्य को जनपक्षीय बदलाव की ओर मोड़ना चाहते हैं। 5 मई 1818 में जर्मनी के राइन इलाके में जन्मे कार्ल मार्क्स का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष, झंझावातों और घोर कठिनाइयों से भरा रहा। अपनी पीएचडी जमा करने के बाद मार्क्स समझ गये थे कि जर्मनी में शिक्षा जगत के लिए दरवाजे उनके लिए बन्द कर दिये जायेंगे।
शासक वर्ग हमेशा से वैज्ञानिक विचारों से आक्रांत होता रहा हैं और विचारकों का क़त्ल, उनको दर-बदर और कैद करते रहा है। सुकरात से शुरू होकर ब्रूनो, गैलीलिओ, दिदरो, रूसो, ब्लांकी, मार्क्स, ग्राम्सी, भगतसिंह,चेग्येरा की मिसालों की एक ऐतिहासिक निरन्तरता है। मार्क्स ने 1841 में प्राचीन यूनानी प्रकृतिवादी दर्शनों डेमोक्रेट्स तथा इपिक्युरियस के तुलनात्मक अध्ययन पर पीएचडी की।
एक दूसरे के पूरक और सुख—दुख के सच्चे साथी मार्क्स—एंगेल्स
वर्ष 1843 में मार्क्स अपनी प्रेमिका जैनी से विवाह कर जर्मन शासकों के दमनचक्र से बचने के लिए पेरिस चले आये और एक जर्मन फ़्रांसिसी पत्रिका के सम्पादन से जुड़ गये। यहाँ उनकी मुलाकात तमाम फ्रांसीसी समाजवादियों से हुई। उनकी सबसे महत्वपूर्ण मुलाकात अपने देश यानी जर्मनी के समाजवादी बुद्धिजीवी विचारक फ्रेडरिक एंगेल्स से हुई और दोनों गहरे दोस्त बन गये। उनकी यह बौद्धिक और निजी मित्रता जीवन भर कायम रही।
मार्क्स और एंगेल्स एक दूसरे के पूरक थे और सुख –दुःख के सच्चे साथी। इसकी खूबसूरत झलक उनके पारस्परिक पत्राचार में मिलती है। 1841 में प्रकाशित लुडविग फायरबाख की किताब “एसेंस ऑफ़ क्रिश्चिनिटी” का हीगेल और मार्क्स पर गहरा असर पड़ा और मार्क्स नास्तिकता की ओर बढ़ गये और तभी वे लिखते हैं कि 'धर्म ह्रदयहीन परिस्थितियों का ह्रदय है और आत्माविहीन दुनिया की आत्मा तथा की पीड़ितों की राहत, धर्म लोगों की अफीम है।'
इसमें मार्क्स ने दर्शन की अवधारणाओं को आत्मसात करने के लिए सर्वहारा का आह्वान किया। अगर ध्यान से देखें तो भगतसिंह भी “मैं नास्तिक क्यों हूँ” नामक अपनी पुस्तक में लगभग ऐसा ही लिखते हैं। 1844 में प्रकाशित मार्क्स की दार्शनिक मैन्यूस्क्रिप्ट को उनकी सम्पूर्ण चिंतनधारा की बुनियाद माना जाता है। 1848 में मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखा।
उन्होंने प्रथम इंटरनेशनल में सक्रिय भागीदारी भी की उनका संबोधन एक एतिहासिक दस्तावेज बना। उन्होंने कहा कि जो भी वास्तविक है वह विवेक सम्मत है और जो भी विवेक सम्मत है वह वास्तविक है। जो लोग भी बराबरी और भाईचारे के पक्ष में खड़े होंगे, वे सदैव मार्क्स से प्रेरणा लेंगे और बराबरी और न्याय के दुश्मन मार्क्स और मार्क्सवाद से सदैव भयभीत रहेंगे।
मार्क्सवाद में निहित मानववाद
मार्क्सवादी मानववाद पर जब सोचता हूँ तो यह शब्द ही मुझे कुछ उलटबांसी सा लगता है। क्योंकि मार्क्स तो खुद ही सच्चे मानववाद के पर्याय थे। उनका सारा संघर्ष और उनका समग्र दार्शनिक चिन्तन इंसानी समाज के निर्माण का है अर्थात मार्क्सवाद में तो मानववाद स्वत: ही निहित (इनबिल्ड) है। पर प्रचलित आदर्शवादी मानवतावाद और मार्क्सवादी मानववाद में मूल फर्क होना स्वाभाविक है।
कार्ल मार्क्स का इस दुनिया को देखने–समझने और उसकी गहन विवेचना और उसकी चीड़फाड़ करने का एक मात्र मकसद है इन्सान और इन्सानी समाज की बेहतरी, हर तरह के शोषण और हर तरह के अन्याय से मुक्ति अर्थात वर्ग विहीन समाजवादी समाज की संकल्पना एवं उसकी रचना। इसके लिए पहले तो वे हजारों साल की विसंगतियों और विद्रूपताओं से भरी दुनिया की ऐतिहासिक और दार्शनिक पड़ताल करते हैं।
अपने पूर्व के विचारकों और कांट, हीगल, फायरबाख जैसे बड़े दार्शनिकों को पढ़ते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अभी तक दार्शनिकों और विचारकों ने आदर्शवादी तरीके से दुनियां की व्याख्या की है, जबकि जरूरत इसे बदलने की है और एक ऐसा बदलाव जिसमें नये समाज का निर्माण हो सके जिसके लिए सदियों से काम करने वाले सामजिक–आर्थिक और व्यवस्थागत ढाँचे को भी बदलना होगा।
पुराने ढाँचे से नया समाज बनाना सम्भव नहीं है, जबकि अभी तक यही होता रहा है और इसीलिए अभी तक कोई अमूल-चूल बदलाव नहीं हो सका। मार्क्स के नजरिये को इस तरह समझा जा सकता है जैसे रूसो कहते हैं कि मनुष्य मूलत: असभ्य और जंगली होता है। समाज उसे बनाता-तराशता है। जबकि मार्क्स ठीक इसके विपरीत अपना मत देते हैं कि मनुष्य मूलत: नेक और भला होता है जैसे बच्चा निश्छल,निष्कलंक और द्वेष रहित होता है। बड़ा होकर समाज से वह नफ़रत,प्रेम ,लालच और तमाम अच्छी और बुरी प्रव्रत्तियां ग्रहण करता है।
मार्क्स की मशहूर रचना पूँजी सबसे ज्यादा मानववादी और द्वंदात्मक है। पूँजी में मार्क्स यह व्याख्यायित करते हैं कि पूँजी के वर्चस्व वाले समाजों में मानवीय सम्बन्ध किस तरह वस्तुओं के बीच सम्बन्धों का रूप लेते हैं। सच्चा समाजवाद नये मानवीय सम्बन्धों को रचते हुए मनुष्य के वस्तु बनने की परिस्थिति का निषेध करता है।
पूँजीवाद के खात्मे के बाद नये मानवीय सम्बन्ध उत्पादन केन्द्रों से शुरू होकर सबसे ज्यादा अन्तरंग रिश्तों में फ़ैले जाते हैं जहाँ व्यक्ति महज वस्तु, मूल्य या मुनाफ़ा बढ़ाने के मात्र उपकरण के रूप में नहीं रह जाता है। इस तरह मार्क्सवाद मानव मुक्ति का दर्शन है जहाँ सारे रिश्ते पूर्ण मानववादी रिश्तों में बदल जाते हैं। आज अपने आपको क्रांन्तिकारी मार्क्सवादी बनाये रखना मार्क्सवादी मानववादी बनाये रखने पर टिका है।
पहले–पहल मार्क्सवादी मानववाद को साठ साल पहले रूस की दार्शनिक दुनायेव्ह्स्काया ने अपनी किताब मार्क्सवाद और स्वतंत्रता (1958) में विकसित किया था। इस किताब में मार्क्स की 1844 की मैन्यूस्क्रिप्ट के कुछ हिस्सा का अनुवाद भी शामिल था। इस पाण्डुलिपि में मार्क्स ने अपने सोच व नजरिये को प्रकृतिवाद या मानववाद कहा था।
इसके बाद दुनायेव्ह्स्काया की कई किताबें आयीं जिनमें फिलोसोफी एंड रिवोलूशन फ्रॉम हेगल तो सार्त्र एंड फ्रॉम मार्क्स टू माओ (1973),रोजालक्स्जमबर्ग,विमेन्स लिबरेशन एंड मार्क्सिस्ट फिलोसोफी ऑफ़ रेवोलुशन (1981), वीमेंस लिबरेशन एंड दि डालेटिक्स ऑफ़ रेवोलूशन (1985)। दुनायेव्ह्स्काया ने सभी किताबों में एक नए किस्म के मार्क्सवाद के विकास को प्रतिष्ठित किया जो इस बात पर आधारित है कि आज के दौर में मार्क्स का मार्क्सवाद कैसा होना चाहिए?
मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद व्यावहारिक विज्ञान
उन्होंने तर्क और तथ्यों से सिद्ध किया कि मार्क्स की महान रचना पूँजी सबसे ज्यादा द्वंद्वात्मक और मानववादी है। क्योंकि यह इस विचार पर केन्द्रित है कि मानवीय सम्बन्ध पूंजी के वर्चस्व वाले समाजों में किस तरह वस्तुओं के बीच सम्बन्धों का रूप ले लेते हैं। सच्चा समाजवाद इन परिस्थितियों का निषेध करते हुए नये मानवीय सम्बन्धों को रचते हैं जो उत्पादन केन्द्रों से शुरू होकर सबसे ज्यादा अन्तरंग रिश्तों में फैले होते हैं।
मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद व्यावहारिक विज्ञान है। उत्पादन प्रणाली के परिवर्तन के आधार पर यह मानव इतिहास का युग रूपांतरण करता है। आदिम उत्पादन प्रणाली पर आधारित आदिम साम्यवाद का युग, दास उत्पादन प्रणाली पर आधारित दास युग, सामन्ती उत्पादन प्रणाली पर आधारित सामन्तवादी युग तथा पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली पर आधारित पूंजीवादी युग वर्ग समाज और इसके बाद वर्गविहीन राज्य विहीन साम्यवादी युग जो निरंतर सर्वहारा क्रांतियों से आयेगा जिसकी समय सीमा तय नहीं है।
मार्क्स–एंगेल्स कम्युनिस्ट घोषणापत्र में लिखते हैं, दुनिया का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है जिसका मतलब है कि वर्ग समाज में शोषण, उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध सभी आन्दोलन वर्ग संघर्ष के हिस्से हैं। व्यक्ति का वजूद स्वायत्त न होकर विशिष्ट सामाजिक सम्बन्धों के तहत सामाजिक है।
कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स लिखते हैं कि बुर्जुआ राज्य पूंजीपति वर्ग के हितों की प्रबन्ध कमेटी है। मार्क्स लिखते हैं कि मनुष्य की चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली हुई चेतना बदली हुई परिस्थितियों की। लेकिन न्यूटन के गति के नियम के अनुसार बिना बाह्य बल के कोई चीज हिलती भी नहीं है। अत; भौतिक परिस्थितियाँ अपने आप नहीं बल्कि मनुष्य के चैतन्य प्रयास से बदलती हैं।
इतिहास की गति का निर्धारण भौतिक परिस्थितियों और सामाजिक चेतना की द्वंद्वात्मक एकता से होता है किसी ईश्वर, पैगम्बर या अवतार की इच्छा या कृपा से नहीं। इस तरह हम देखते हैं कि सत्य की व्याख्या के लिए मार्क्स ने हीगल के द्वंद्ववाद और फायरबाख के भौतिकवाद को संदर्भविन्दु बनाया। उसकी द्वंद्वात्मक एकता ने सत्य की नयी व्याख्या की नयी चिन्तनधारा दी और एक नए दर्शन का उदघाटन किया।
हीगल के उल्ट मार्क्स
हीगल को उलटते हुए मार्क्स ने कहा कि विचार से वस्तु की उत्पत्ति नहीं हुई है, बल्कि वस्तु से विचार की उत्पत्ति हुई है। ऐतिहासिक रूप से वस्तु विचार से पहले मौजूद रहती है और ऐतिहासिक रूप से विचार वस्तुओं से ही निकलते हैं हवा में नहीं। जैसे न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत जहाँ सेब का गिरना पहले से मौजूद था। इसी प्रकार ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया है, बल्कि मनुष्य ने ईश्वर की अवधारणा को गढ़ा है।
उन्होंने वस्तु को सबकुछ मानने वाले फायरबाख को भी ख़ारिज किया और वस्तु पर विचार की प्राथमिकता मानने वाले हीगल को भी ख़ारिज किया। उन्होंने कहा जो भी विवेक सम्मत है वास्तविक है और जो वास्तविक है वह विवेक सम्मत है और अपने विकास क्रम में वास्तविकता समय की आवश्यकता बन जाती है। मार्क्सवाद दुनिया को समझने का गतिमान विज्ञान है और सर्वहारा क्रांति की विचारधारा।
विज्ञान है मार्क्सवाद
एंगेल्स मार्क्स की अंत्येष्टि में अपने भाषण में कहा था कि “जिस तरह डार्विन ने जीवन के विकास के नियमों की व्याख्या की उसी तरह कार्ल मार्क्स ने इतिहास के विकास के नियमों की व्याख्या की है। अत: मार्क्सवाद एक विज्ञान है और मार्क्स विज्ञान को गतिशील मानते थे इसलिए मार्क्सवाद कोई स्थिर आस्था नहीं है बल्कि गतिशील विचार दर्शन है। मार्क्सवाद के बौद्धिक संसाधन सिर्फ मार्क्स और एंगेल्स के विचारों तक सीमित नहीं हैं। ज्ञान की तरह विज्ञान भी एक निरंतर प्रक्रिया है जो अपनी परिस्थिति को समझने और बदलने के प्रयास करने वाले लेनिन, माओ, ग्राम्सी, चेग्येरा, भगतसिंह की रचनाओं के ज्ञान से अनवरत सम्रध्द होता रहा है।
मार्क्स से बहुत पहले बुद्ध ने भी कुछ इसी तरह इस दुःख भरी दुनिया के दुखों के कारणों की पड़ताल के लिए कठोर श्रम किया था। राजपाट छोड़ वे बीसों साल भटकते रहे और उन्होंने समाज की विद्रूपताओं की गहन मीमांसा की। उनकी भी स्थापना थी कि जरुरत से अधिक संचय दुःख का एक बड़ा कारण। उनका मानना है कि प्रकृति इतनी सम्रध्द है कि स्रष्टि के सभी प्राणी सुख–चैन से जी सकते है।
उन्होंने कहा कि दुनिया में दुःख है, उसके कारण हैं और उसके निवारण हमे मिल-जुल कर खोजने होंगे। उनके सोच में भी वैज्ञानिकता और तार्किकता थी कि दुनिया में अकारण कुछ भी नहीं होता और न ही कुछ शाश्वत होता है। हर कुछ समय सापेक्ष है और परिवर्तनीय है बुध्द का समय कार्ल मार्क्स की तरह औद्योगिक क्रांति का आर्थिक युग नहीं था और इसीलिए उन्होंने आर्थिक और राजनीतिक पक्षों पर उस तरह की विवेचनाएं भले न दी हों पर धर्म के पाखन्ड और तर्कहीनता पर गहरी चोट की।
उन्होंने कहा कि किसी बात को इसलिए मत स्वीकार कर लो कि वह सदियों से कही जा रही है और न किसी विचार को इसलिए स्वीकार कर लो कि किसी महान व्यक्ति ने कहा है या शास्त्रों, पुराणों या अन्य धार्मिक या गैर धार्मिक किताबों में लिखा है। उसे तर्क और व्यवहार की कसौटी पर कसो तब स्वीकार करो। “आप्य दीपो भव” अर्थात खुद अपने मार्ग दर्शक बनो।
मार्क्स पर अहिंसा सिद्धांत का असर
उन्होंने यह भी कहा कि जीवन रूपी वीणा के तारों को इतना मत खींचो की टूट जायें उसमें कोई सुर ही न निकले और न ही उन्हें इतना ढीला रखो कि कोई सुर न निकले। यही है उनका मध्यम मार्गीय मार्ग। वे अहिंसा के सिद्धांत के प्रवर्तक भी थे। वे अमानवीय नजरिये के सोच को भी हिंसा कहते थे। बुद्ध अपने इस तर्कसंगत मानवीय सोच के लिए पूरी दुनिया में स्वीकारे गये, जबकि हिन्दू धर्म के अनुयायी, बौद्ध अनुयायियों के साथ हिंसात्मक तरीके से पेश आये। बौद्धों की हत्याएं तक करवाई गयीं और बौद्ध दर्शन जिसे बाद में धर्म कहा गया की घोर भर्त्सना और आलोचना की। फिर भी बौद्ध धर्म ईसाई और इस्लाम धर्म के बाद दुनिया का तीसरा बड़ा धर्म बन गया।
गाँधी के दर्शन को अगर हम उनके उस महा वाक्य के आलोक में आंके जिसमें वे कहते हैं “व्यक्तिगत या सामूहिक निर्णय लेते वक्त यह ध्यान में जरूर रहे कि पंक्ति के आखिरी व्यक्ति पर उसका क्या असर पड़ेगा तो शायद हम अमानवीय कृत्य से बच जायेंगे और समाज भी विद्रूप नहीं होगा'” पर यह तभी सम्भव है समाज नैतिकता के शिखर पर हो।
डॉ. अम्बेडकर आर्थिक और सामजिक लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र मानते थे जिसमें किसी तरह गैर बराबरी, अन्याय और शोषण न हो। वे हजारों साल के आंतरिक उपनिवेशवाद जो वर्णव्यवस्था के रूप में देश में व्याप्त था उससे मुक्ति के पैरोकार थे। वे धार्मिक पाखंड से मुक्त जातिविहीन समाज के निर्माण के पक्षधर थे और इसी से वे वास्तविक मानववाद की निर्मित चाहते थे।
कमोबेश यही सोच भगतसिंह और उनके साथियों का भी था। शोषणविहीन, अन्यायमुक्त हर तरह की बराबरी का समाज जहाँ हर कोई सर उठा कर जी सके। नेहरू जी के मस्तिष्क में भी वैज्ञानिक और तर्क संगत नजरिये वाले इसी तरह के समाज की परिकल्पना थी जिसके अनुरूप उन्होंने जीवनभर काम किया।
क्या है मार्क्सवाद
मार्क्सवाद मनुष्य की मुक्ति का दर्शन और इससे परे कुछ नहीं। उनका समग्र चिन्तन उत्पदान और उत्पादन सम्बन्धों की गहन विवेचना पर आधारित। मार्क्सवादी समझ के मुताबिक मूल्य का सिद्धांत अलगाव आधारित श्रम या शोषित श्रम के इस्तेमाल से और परिणामस्वरूप अतिरिक्त मूल्य की अवधारणा से जुड़ा है।
अतिरक्त मूल्य अलगाव आधारित श्रम और मूल्य का नतीजा है। यह मार्क्सवादी यथार्थ है कि श्रम ही मूल्य का रूप धारण करता है। मूल्य वह सम्पदा है जो मैद्रिक रूप में मापी जाती है। पूंजीवाद का मकसद भौतिक सम्पदा पैदा करना नहीं है बल्कि मूल्य के संचय को बढ़ाना है। श्रम मूल्य का स्रोत है। द्वंदात्मक भौतिकवाद के अनुसार यथार्थ (सत्य) वस्तु और विचार का द्वंदात्मक युग्म है जिसमें प्राथमिकता वस्तु की है।
वस्तु और विचार की द्वंद्वात्मक एकता की प्रक्रिया या दोनों की एक दूसरे पर क्रिया–प्रतिक्रिया की निरन्तरता ही पाषणयुग से साइबरयुग तक मानव इतिहास की यात्रा की संचालन शक्ति रही है। प्रकृति की द्वंद्वात्मकता की प्रकृति परिवर्तन की निरन्तरता जिसकी गतिविज्ञान के अपने नियम हैं। सतत क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन समयांतर में परिपक्व होकर गुणात्मक क्रन्तिकारी परिवर्तन बन जाता है।
भारत के सन्दर्भ मे विगत 40 वर्षों में दलित विमर्श तथा स्त्री विमर्श के विस्तार और उसके सतत संघर्ष को क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन के उदहारण के रूप में देखा जा सकता है। वैसे तो कोई परिवर्तन विशुद्ध मात्रात्मक नहीं होता है, पर यह स्त्रीवाद तथा जातिवाद विरोध की सैद्धांतिक विजय है। इसलिए यह मात्रात्मक परिवर्तन है जो क्रांतिकारी गुणात्मक परिवर्तन विचारधारा के रूप में क्रमश: मर्दवाद और ब्राह्मणवाद के विनाश के खण्डहरों पर उगेंगे।
द्वंद्वात्मक समग्रता के दोनों परस्पर विपरीत के पारस्परिक निषेध से तीसरे उच्चतर तत्व की उत्पत्ति होती है जो दोनों से गुणात्मक तौर पर भिन्न होती है। इस नियम को वाद–प्रतिवाद और संवाद (थीसिस ,एन्टीथीसिस और सेंथेसिस) कहते हैं। 1917 की क्रान्तिकारी परिस्थितियों ने क्रान्तिकारी चेतना पैदा की।
क्रान्तिकारी परिस्थितियों और क्रान्तिकारी चेतना से लैस मनुष्य की द्वंद्वात्मक एकता के परिणामस्वरूप नवम्बर क्रान्ति हुई। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का एक और नियम है जिसका अस्तित्व है उसका अन्त निश्चित है। इसे प्रकृति की ऐतिहासिक प्रव्रत्ति कहना ज्यादा उचित होगा। एंगेल्स ने उल्लेख किया है कि मार्क्स और उनकी रचनाओं को कोट करने से कोई मार्क्सवादी नहीं हो जाता है बल्कि सच्चा मार्क्सवादी वह है जो खास परिस्थिति में वैसी ही प्रतिक्रिया दे जैसी मार्क्स देते।
ऐतिहासिक भौतिकवाद एक व्यावहारिक विज्ञान
मार्क्स के अनुसार सत्य वही है जिसे तथ्य और तर्कों के आधार पर प्रमाणित किया जा सके। ऐतिहासिक भौतिकवाद का मूलमंत्र है कि अर्थ ही मूल है। यह एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण है जो समाज के आर्थिक विकास को इतिहास के गतिविज्ञान की कुंजी मानता है। इतिहास के सभी कारक, कारण की उत्पत्ति है। उत्पादन पद्धति में परिवर्तनों और विनिमय तथा परिणामस्वरूप समाज का विभिन्न वर्गों में विभाजन और वर्ग संघर्ष में निरूपित होना।
ऐतिहासिक भौतिकवाद एक व्यावहारिक विज्ञान है। उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के आधार पर यह मानव इतिहास का युग निरूपण करता है। व्यवस्था बदलने के लिए गतिविज्ञान के नियमों की वैज्ञानिक समझ जरुरी थी। इसके लिए मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर ऐतिहासिक भौतिकवाद के विज्ञान का अन्वेषण किया।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मार्क्सवादी दर्शन और ऐतिहासिक भौतिकवाद उसका विज्ञान है। कार्ल मार्क्स और बुद्ध जैसे विरले क्रांतिकारी बुद्धिजीवी एक ऐसी युगांतकारी चिंतनधारा का उद्घाटन करते हैं कि उनके नाम से नया वाद चल पड़ता है। मार्क्सवाद वैज्ञानिक सिध्दांतों के आधार पर दुनिया को समझने और बदलने की एक गतिमान चिन्तनधारा है। मार्क्स निजी स्वामित्व तथा वैतिनिक गुलामी पर आधारित पूँजीवाद के राजनितिक अर्थशास्त्र की व्याख्या ही नहीं करते, बल्कि एकता पर आधारित सर्वहारा क्रांति के जरिये उसे बदलना भी चाहते हैं। तभी वे कहते कि अभी तक दार्शनिकों ने भिन्न–भिन्न तरीकों से दुनियां की व्याख्या की है जबकि जरूरत इसे बदलने की है।
वर्ष 1989 में बर्लिन की दीवार टूटते ही पूंजीवादी समाज में हर्षोल्लास छा गया। एक पूंजीपरस्त बुद्धिजीवी फ्रांसिस फूकूयामा ने आनन-फानन में इतिहास और विचार के अन्त की घोषणा कर दी। उन्होंने लिखा उदारवादी जनतंत्र के अलावा सभी शासन पद्धतियां जिस पर विशेष जोर उनका समाजवाद पर था, अपनी खामियों के चलते समाप्त हो गयीं।
मनुष्य के वैचारिक विकास का यह चरम बिंदु है तथा इस तरह यह इतिहास का अंत है। जिस चिर स्थायी उदारवाद की वे बात करते हैं वह अब उदारवादी नहीं नव उदारवादी है। उदारवादी राज्य अहस्त्क्षेपीय था, जबकि नवउदारवादी राज्य विकास में भागीदार है। टाटा भाड़े के गुंडों से कलिंगनगर में आदिवासियों की जमीन नहीं हथिया सकता था। आदिवासियों के बहादुराना आन्दोलन को कुचलने के लिए भारत सरकार और उड़ीसा की पुलिस चाहिए।
न इतिहास का कभी अन्त होता है और न मनुष्य के वैचारिक विकास
गौरतलब है जनवरी 2006 में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ़ आदवासियों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर उड़ीसा पुलिस ने गोली चलाई, जिसमें 16 आदिवासी किसानों की मौत होगयी और कई घायल हो गये। न इतिहास का कभी अन्त होता है और न मनुष्य के वैचारिक विकास का और न ही मार्क्सवादी जैसे कालजयी विचारों का जो अपनी तार्किक परिणिति तक पहुँच कर इतिहास बन जाते हैं।
मार्क्स और उनका मार्क्सवाद तब तक प्रासंगिक रहेगा, जब तक वर्ग और वर्ग संघर्ष रहेगा। मार्क्सवाद को वैचारिक आधार मानने वाले संगठन भारत जैसे देश में बहुत कम हैं। फिर भी सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी बात-बात पर मार्क्सवाद के भूत से पीड़ित रहते हैं। सत्ता का भय होता है और विचार का आतंक होता है।
भारत में कबीर के साथ शुरू हुआ नवजागरण ऐतिहासिक कारणों से अपनी तार्किक परिणिति तक नहीं पहुँच सका। भारत में जन्म आधारित जातिवाद आज भी सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में स्पीड ब्रेकर बना हुआ है। 1938 के इंडडिपेंडेंट लेबर पार्टी के सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि उनकी पार्टी के विचार और कम्युनिस्ट पार्टी के विचारों में काफ़ी नजदीकी है।
उन्होंने बताया कि कम्युनिस्ट पार्टी के समक्ष तीन मुद्दे हैं ; पहला सामजिक क्रांति दूसरा उपनिवेश विरोधी आन्दोलन तीसरा समाजवादी आन्दोलन की सामाजिक चेतना के जनवादीकरण यानी वर्ग चेतना के प्रसार के जरिये क्रांतिकारी परिस्थितियों का निर्माण। सामाजिक क्रांति अर्थात जातिवाद के खात्मे के आन्दोलन की शुरुआत अम्बेडकर ने की।
अम्बेडकर ने भारतीय राजनीति को एक नया मोड़ दिया, जिसमें देश के अन्दर हजारों साल से वर्णवाद तथा जातिवाद के रूप में चल रहे आन्तरिक उपनिवेशवाद से मुक्ति का एक बड़ा सवाल उभर कर सामने आया जिसे हिन्दू कांग्रेसी नेता छूना ही नहीं चाहते थे। बाद में गांधी जी ने भी इस कडुवी सामजिक सच्चाई को स्वीकार किया औरअम्बेडकर के साथ खड़े हुए।
अछूतोद्धार में गांधी जी की भूमिका का अपना महत्व है जिसे बाद में अम्बेडकर ने भी स्वीकार किया। आज अम्बेडकर और मार्क्सवाद का कृतिम अन्तर्विरोध नवब्राह्मणवाद के रूप में सामाजिक चेतना के जनवादीकरण करने के रास्ते में एक बड़ा रोड़ा बना हुआ है। सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के अलग–अलग संघर्ष का अब वक्त नहीं है।
जातिवाद खत्म किए बिना सर्वाहारा क्रांति असंभव
जेएनयू आन्दोलन से उपजा जय भीम-लाल सलाम का नारा दोनों क्रांतियों की प्रतीकात्मक एकता का नारा है। पंजाब के दलितों का भूमि आन्दोलन और सामूहिक खेती की शुरुआत इस प्रतीकात्मक एकता का प्रयास है। मार्क्सवादी सिद्धांतों पर क्रांति के बिना जातिवाद का उन्मूलन सम्भव नहीं है और न ही जातिवाद के उन्मूलन के बिना सर्वहारा क्रांति सम्भव है।
आज भारत में सर्वहारा क्रांति के लिए अनिवार्य क्रांन्तिकारी परिस्थितियों का निर्माण अर्थात सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के लिए जातिवाद उन्मूलन का आन्दोलन तथा किसान–मजदूर के आर्थिक आन्दोलन की द्वंद्वात्मक एकता के सिद्धांत की आज ज्यादा आवश्यकता है। जय भीम–लाल सलाम के प्रतीकात्मक नारे के सिद्धांतीकरण की आज प्रबल आवश्यकता है। भगतसिंह के अनुसार जातिवाद को वर्ग चेतना से ही समाप्त किया जा सकता है।
इन सारे विचारों की उत्पत्ति का आधार है चर्चित अमेरिकन मार्क्सिस्ट मानववादी पीटर ह्युडिस के साथ वर्धा में पिछले 13-14 जून 2018 को हुए विमर्श, जो पटना में मार्क्स की दो सौवीं जयन्ती के अवसर पर एशियाई विकास शोध संस्थान द्वारा आयोजित 16 मई से 21 मई तक चले सम्मेलन में शिकागो अमेरिका से प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लेने आये थे।
संदर्भ-लुडविग फायरबाख- एसेंस ऑफ़ क्रिश्च्नीटी
कार्ल मार्क्स –अ कॉन्ट्रिब्यूशन टू दि क्रिटिक ऑफ़ हेगेल
बी आर अम्बेडकर-प्रतिक्रांति की दार्शनिक पुष्टि
एंटोनिओ ग्राम्सी-सेलेक्सन फ्रॉम प्रिजन नोट्स
कार्ल मार्क्स-वेज लेबर एंड कैपिटल
एंगेल्स-सोशलिज्म यूटोपियन एंड साइन्टिफिक
कार्ल मार्क्स-इकानामिक एंड फिलोसोफिकल मैन्यूस्क्रिप्ट
रूसो-डिस्कोर्स अपोन ओरिजिन एंड फाउंडेशन ऑफ़ इनेक्विलिटी
फ्रांसिस फुकुयामा-दि एन्ड ऑफ़ हिस्ट्री एंड दि लास्ट मैन